भेष बदल कर बेटे की शादी में पहुंचा पिता लेकिन जो किया वो कोई सोच भी नहीं सकता था!
किराए का रिश्ता – राम प्रसाद जी की पूरी कहानी
सुबह की पहली किरणें आसमान को गुलाबी रंग से रंग रही थीं। एक बूढ़ा इंसान, राम प्रसाद जी, जिनके कंधों पर जिंदगी का भारी बोझ था, चुपचाप गलियों में चल रहा था। हर कदम एक सवाल लिए था – क्या इज्जत और प्यार की तलाश में उसने जो रास्ता चुना, वह सही था? यह कहानी है एक ऐसे दिल की, जो अपनों के तानों से जख्मी होकर भी प्यार और सम्मान की तलाश में निकल पड़ा – किराए का रिश्ता।
घर की सुबह, ताने और तिरस्कार
सूरज की हल्की लालिमा आसमान में बिखरी थी।
राम प्रसाद जी रोज की तरह सैर करके घर लौटे। दरवाजे के पास अखबार नहीं था।
उन्होंने आवाज लगाई – “सुमन बेटी, जरा पानी दे देना। और हां, अखबार भी।”
रसोई से बर्तनों की खटपट थम गई।
सुमन साड़ी का पल्लू कमर में खोसते हुए बाहर आई, चेहरा थकान और गुस्से से लाल।
तीखी आवाज – “एक तो बच्चे को स्कूल के लिए तैयार करो, खाना बनाओ, घर संभालो और अब आपके लिए अखबार भी ढूंढो! खुद कुछ नहीं कर सकते?”
राम प्रसाद जी चुपचाप उसकी ओर देखते रहे, नजरें झुकाकर जूतों के फीते खोलने लगे।
सुमन और भड़क गई – “अब चुप क्यों हो गए? बोलते क्यों नहीं? बाहर से आ रहे हैं, तो अखबार उठा कर नहीं ला सकते थे?”
धीमी आवाज में – “बेटी, मैंने आंगन में देखा था। अखबार बाहर नहीं थी। लगा शायद तुम या किसी और ने अंदर ले लिया होगा।”
सुमन तंज कसते हुए – “हां, हमारे पास इतनी फुर्सत है, जो सुबह-सुबह अखबार पढ़ने बैठ जाएं। सबके पास काम है, आपकी तरह सारा दिन कुर्सी तोड़ते नहीं हैं।”
तभी सुमन का पति और राम प्रसाद जी का इकलौता बेटा अजय शेविंग करते हुए बाहर आया –
“सुमन, सुबह-सुबह क्यों शोर मचा रही हो? दे दो ना अखबार और पानी। इतनी बड़ी बात थोड़े है।”
सुमन माथे पर हाथ रखते हुए – “हे भगवान, सुबह-सुबह इतना काम सिर पर है। ऊपर से बाबूजी इसी वक्त बांग देने लगते हैं। पहले पानी, फिर अखबार, फिर चाय। क्या मैं नौकरानी हूं? इतनी फिक्र है तो खुद क्यों नहीं दे देते? या दो-चार नौकर रख लो अपनी सेवा के लिए।”
अजय झेपते हुए – “नौकर रख लूं? बोल तो ऐसी रही हो जैसे मेरे पास खजाना हो। मेरी तनख्वाह में घर चल रहा है, वही बहुत है।”
सुमन चाय की ट्रे जमीन पर रखती है – “तो अपने पिताजी से कहो कि कुछ कामधंधा करें। हमें भी थोड़ा सुख मिले। पड़ोस के वर्मा जी को देखो, 70 साल की उम्र में भी कितने चुस्त हैं। बच्चों के लिए पैसा जोड़ा, अब हर महीने पेंशन ले रहे हैं। शहर के पॉश इलाके में आलीशान मकान बनवाया। और आपके पिताजी – बस कुर्सी तोड़ो, अखबार पढ़ो, चाय मांगो।”
पुराने फर्नीचर सा अकेलापन
सुमन के शब्द राम प्रसाद जी के सीने में तीर की तरह चुभ रहे थे।
यह पहली बार नहीं था जब सुमन ने उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाई थी।
अब तो तंज का अंदाज और शब्दों की धार हर बार और तेज होती जा रही थी।
राम प्रसाद जी की हालत अब ऐसी थी जैसे घर में कोई पुराना फर्नीचर – जिसे ना कोई चाहता है, ना हटा सकता है।
अजय वहीं खड़ा था – सिर झुकाए, न विरोधकर्ता, न समर्थन।
राम प्रसाद जी ने एक पल के लिए अपने बेटे की ओर देखा – उम्मीद थी, मगर अजय ने कोई जवाब नहीं दिया।
ना पत्नी के तानों को रोका, ना पिता के दर्द को समझा।
यह बात राम प्रसाद जी के दिल में गहरी चुभन बनकर रह गई – क्या उनके बेटे के लिए अब वह कोई मायने नहीं रखते?
इसी शोर के बीच सुमन और अजय का बेटा, उनका पोता छोटू, जो अभी 8 साल का था, डर के मारे कमरे से बाहर आ गया।
उसकी यूनिफॉर्म अधूरी थी और मां की तेज आवाज से वह सिहर उठा था।
उसकी मासूम आंखें उस दृश्य को ऐसे देख रही थीं जैसे कोई जंग चल रही हो – एक तरफ चिल्लाने वाला, दूसरी तरफ सहने वाला, तीसरा खामोश तमाशबीन।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किसके साथ है।
राम प्रसाद जी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए।
कमरे के कोने में वही पुरानी कुर्सी थी, जिस पर वह कभी अपने बेटे को गोद में बिठाकर कहानियां सुनाया करते थे।
अब वही कुर्सी उनके अकेलेपन की साथी थी।
कभी यह घर हंसी और अपनत्व से भरा हुआ था। अब हर सुबह उनके लिए नया अपमान लेकर आती थी।
छोटू की मासूमियत और ‘यूजलेस’ दादा जी
शाम को राम प्रसाद जी लाठी उठाकर रोज की तरह बाहर निकल गए।
जब लौटे तो आंगन में छोटू जैसे उनके इंतजार में ही बैठा था।
चप्पलें उतारी ही थीं कि छोटू दौड़कर आया – “दादा जी, कल आपको मेरे साथ स्कूल चलना है।”
राम प्रसाद जी थके कदमों से कमरे की ओर बढ़ते हुए बोले – “नहीं बेटा, मैं स्कूल क्यों जाऊं? बच्चों के स्कूल में मम्मी-पापा जाते हैं ना, अपनी मम्मी से कहो, वो चली जाएंगी।”
उनकी आवाज में थकान और चेहरा सुबह की उदासी से भरा था।
मगर छोटू कहां मानने वाला था?
उसने छोटी सी हथेली से दादा जी का हाथ पकड़ा – “नहीं दादा जी, टीचर ने आपको ही बुलाया है। आपको मेरे साथ जाना ही होगा।”
अजय और सुमन टीवी देख रहे थे।
अजय ने छोटू को पास बिठाया – “बेटा, बताओ तो सही, दादाजी को क्यों लेकर जाना है? मम्मी या मैं भी तो जा सकते हैं।”
छोटू मासूमियत से – “पापा, आज स्कूल में एक्सचेंज एक्टिविटी है।”
सुमन ने भौंहें सिकोड़ते हुए पूछा – “यह क्या बला है?”
छोटू चिढ़ गया – “आपको इतना भी नहीं पता? मैम ने कहा है कि घर से कुछ ऐसा लेकर आना जिसे हम किसी और से एक्सचेंज कर सकें।”
अजय मुस्कुराकर – “तो बेटा, कोई पुराना खिलौना ले जाओ जो तुम्हारे काम का ना हो। उसके बदले टीचर किसी दूसरे बच्चे का खिलौना दे देगी।”
छोटू सिर हिलाकर – “नहीं पापा, मैं तो अपने सारे खिलौनों से खेलता हूं। मुझे ऐसी चीज ले जानी है जो घर में बेकार हो, यूजलेस हो। इसलिए मैं दादाजी को लेकर जा रहा हूं।”
कमरे में सन्नाटा छा गया।
छोटू ने मासूम आंखों से कहा – “मैम ने कहा था, अगर कोई चीज एक इंसान के लिए यूजलेस है तो वह किसी और के लिए कीमती हो सकती है। और कल मम्मी ही तो कह रही थी कि दादाजी किसी काम के नहीं। हमें उनकी जरूरत नहीं। शायद किसी और को हो।”
अजय की आंखें झुक गईं।
सुमन का चेहरा सफेद पड़ गया।
राम प्रसाद जी वहीं खड़े थे, छोटू के पीछे।
उनकी आंखें बता रही थीं कि इन शब्दों ने उनके दिल को गहरे जख्म दिए।
उन्होंने कुछ नहीं कहा, ना छोटू को टोका, ना सुमन से शिकायत की।
बस चुपचाप अपने कमरे में चले गए।
सुमन और अजय ने जैसे-तैसे छोटू को समझाकर स्कूल भेज दिया।
कमरे के भीतर राम प्रसाद जी को सब सुनाई दे रहा था।
उनकी आंखों से आंसू गालों पर बहने लगे।
दीवार पर टंगी एक तस्वीर को देखने लगे – उसमें तीन चेहरे थे, वह खुद, उनकी पत्नी सरस्वती और बीच में छोटा सा अजय।
यही घर था, जो उन्होंने और सरस्वती ने मिलकर बनाया था।
तब सरस्वती की हंसी से दीवारें गूंजती थीं और अजय की किलकारियां उनके जीवन का संगीत थी।
उस वक्त ना बड़ा टीवी था, ना चमकते फर्श, ना एसी की ठंडी हवा। मगर जो था उसमें अपनापन था, गर्माहट थी।
अजय उनका इकलौता बेटा, उनकी दुनिया था। उसके लिए उन्होंने कितने समझौते किए, कितने सपने कुर्बान किए।
जिंदगी एक छोटी सी किराने की दुकान के इर्दगिर्द घूमती थी।
सुबह से रात तक दुकान पर खड़े रहते। ग्राहकों से हंसी-मजाक, हिसाब-किताब और हर छोटी-बड़ी जरूरत का ख्याल।
सरस्वती घर संभालती और राम प्रसाद दुकान – दोनों का एक ही सपना था, अजय को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाना।
अजय की हर ख्वाहिश उनके लिए कीमती थी। उसकी स्कूल फीस, किताबें, ट्यूशन सब कुछ उन्होंने मेहनत से पूरा किया।
रात को दुकान बंद होने के बाद वो और सरस्वती बैठकर अजय के भविष्य के सपने बुनते।
मगर जिंदगी ने उनके सपनों को एक झटके में छीन लिया।
सरस्वती की अचानक बीमारी ने घर की सारी खुशहाली निगल ली।
अस्पताल के बिल, दवाइयां और आखिर में सरस्वती का जाना।
राम प्रसाद जी टूट गए। मगर अजय के लिए खुद को संभाला।
दुकान अब भी चल रही थी और अजय कॉलेज पूरा कर चुका था।
राम प्रसाद जी को यकीन था कि उनका बेटा बड़ा आदमी बनेगा।
त्याग, कर्ज और गिरवी दुकान
फिर एक दिन अजय ने कहा – “पापा, मुझे लाखों रुपए चाहिए। मैं एक स्टार्टअप शुरू करना चाहता हूं। अगर यह बिजनेस चल गया तो हमारी जिंदगी बदल जाएगी।”
राम प्रसाद जी ने अपने बेटे की आंखों में वही सपना देखा जो कभी उन्होंने और सरस्वती ने देखा था।
उन्होंने अपनी दुकान, जो उनकी जिंदगी की नींव थी, गिरवी रख दी।
लाखों का कर्ज लिया और सारा पैसा अजय को दे दिया।
अजय का स्टार्टअप शुरू तो हुआ, मगर जल्द ही डूब गया।
गलत फैसले, अनुभव की कमी और बाजार की मंदी ने सब कुछ तबाह कर दिया।
कर्ज बढ़ता गया और ब्याज का बोझ राम प्रसाद जी के कंधों पर लद गया।
अजय ने ना कर्ज चुकाने की कोशिश की, ना अपने पिता की हालत समझी।
राम प्रसाद जी दिन-रात मेहनत करते, मगर कर्ज का पहाड़ कम नहीं हुआ।
आखिरकार एक दिन साहूकार ने कहा – “पैसा दो वरना दुकान छोड़ो।”
उस दिन राम प्रसाद जी ने चुपचाप चाबी साहूकार के हाथ में रख दी।
वह खाली हाथ रह गए – ना दुकान, ना पैसा, ना इज्जत।
अजय ने बाद में एक छोटी-मोटी नौकरी पकड़ ली। फिर तरक्की भी की।
मगर राम प्रसाद जी ने कभी शिकायत नहीं की।
वह दुकान सिर्फ ईंट-पत्थर की नहीं थी – उनकी जिंदगी थी, उनकी मेहनत थी।
फिर भी उन्होंने अपने बेटे को माफ कर दिया।
घर से विदाई – किराए का रिश्ता
मगर आज उसी बेटे और उसकी पत्नी की नजरों में वह बेकार हो गए थे – फालतू, नकारा।
छोटू की मासूम बात ने उनके आत्मसम्मान को और ठेस पहुंचाई।
अब तक उन्होंने सुमन के ताने, अजय की उदासीनता और अपनी उपेक्षा को चुपचाप सह लिया था।
मगर अब और नहीं।
मन में फैसला पक्का हो गया – वह इस घर में और नहीं रहेंगे।
दोपहर का समय – सुमन अपने कमरे में एसी की ठंडी हवा में आराम कर रही थी।
छोटू पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने गया था और अजय ऑफिस में था।
घर में सन्नाटा था।
राम प्रसाद जी ने धीरे से अलमारी खोली, एक छोटा सा बैग निकाला – दो-तीन जोड़ी कपड़े और जरूरी सामान रखा।
पैसे की दिक्कत थी – जेब खाली थी। अलमारी में सिर्फ ₹100 के दो नोट मिले।
घर के कोने में बने मंदिर पर नजर पड़ी। वहां भगवान की मूर्ति के सामने एक डिब्बा था जिसमें पांच और ₹10 के नोट रखे थे।
एक पल को झिझक – “यह भगवान का पैसा है।”
फिर खुद को समझाया – “जो भगवान मुझे इस घर में अपमानित होते देख रहा है, वह मुझे माफ कर देगा।”
डिब्बा खोला, नोट निकाले – करीब ₹1000।
भगवान की मूर्ति की ओर देखा – हाथ जोड़े, धीमी आवाज में – “माफ कर देना प्रभु, मैंने हमेशा तुम्हारा भरोसा रखा। बस इतना साथ देना कि बाकी की जिंदगी इज्जत से जी सकूं।”
माथा टेका, बैग कंधे पर डाला और चुपचाप घर से निकल गए।
रात की ठंडी बेंच, अखबार और विज्ञापन
बाहर की हवा ठंडी थी, सूरज ढल रहा था।
जाना कहां है, पता नहीं था।
बस इतना जानते थे कि अब वह उस घर में और नहीं रह सकते, जहां उनकी इज्जत को हर रोज कुचला जाता था।
मोहल्ले की गली से गुजरे – जहां कभी उनकी दुकान थी, अब वहां चमचमाती बेकरी थी।
एक पल को कदम रुक गए – “मैं अभी हारा नहीं हूं।”
आगे बढ़े, बिना यह जाने कि रास्ता कहां ले जाएगा।
काफी देर चलते-चलते पैर थकने लगे।
एक पार्क के पास पहुंचे – घास पर सूरज की आखिरी किरणें बिखरी थीं।
एक खाली बेंच दिखी, चुपचाप जाकर बैठ गए।
सामने बच्चे खेल रहे थे – उनकी हंसी और मासूम शरारतें देखकर हल्की सी मुस्कान आई।
फिर बेटे अजय का बचपन याद आया – पतंग पकड़ने की जिद, कंधों पर बैठना, दुकान से टॉफी चुराना।
रात गहराने लगी।
पार्क में बच्चे घर लौट गए, सन्नाटा पसर गया।
राम प्रसाद जी उसी बेंच पर लेट गए।
मच्छरों का हमला शुरू हुआ।
झुंझुलाकर हाथ हिलाए, चादर ओढ़कर लेट गए।
अचानक चौकीदार ने उठाया – “यहां रात को सोना मना है। आपको यहां से जाना होगा।”
पार्क से बाहर निकल आए।
रात का सन्नाटा और गहरा था।
गेट के पास ही लेटकर जैसे-तैसे रात गुजारी।
किराए पर पिता – नया मोड़
अगली सुबह, चाय की टपरी पर पहुंचे।
चायवाले ने मुस्कुराकर कहा – “बाबूजी, आइए, चाय पी लीजिए। गरमागरम बनाई है।”
पास पड़ा अखबार उठाया – अखबार के स्पर्श ने कल की कड़वी याद जगा दी।
तभी नजर पड़ी –
“किराए पर पिता चाहिए। उम्र 65 से 70 वर्ष, जल्द संपर्क करें।”
राम प्रसाद जी का मन उस विज्ञापन में उलझ गया।
चाय की चुस्की लेते-लेते सोच में पड़ गए।
पहले पागलपन लगा, मगर अब दिमाग में गहरे उतर रहा था।
चाय वाले से फोन मांगा, नंबर डायल किया।
कुछ सेकंड की घंटी के बाद कॉल उठा –
“हेलो।”
“बेटा, मैंने अखबार में तुम्हारा विज्ञापन देखा। तुमने पिता की जरूरत बताई है।”
“जी हां, आप कौन?”
“नाम है राम प्रसाद। उम्र 68 साल। अभी नकारा तो नहीं हुआ, बस घर में बेकार करार दे दिया गया।”
“आप आ सकते हैं अंकल। आमने-सामने बात कर सकते हैं।”
गाजियाबाद का पता मिला।
बस स्टैंड की ओर चल पड़े।
रोहन की कहानी – प्यार के लिए किराए का पिता
रोहन, नीली शर्ट और काले ट्राउजर में, हाथ में फाइल लिए खड़ा था।
राम प्रसाद जी को पास के कैफे में बिठाया।
रोहन – “अंकल, मैं अनाथ हूं। मां-बाप बचपन में एक हादसे में चले गए। अनाथालय में पला-बढ़ा। स्कॉलरशिप से पढ़ाई की, आज अच्छी कंपनी में नौकरी करता हूं। मगर मेरे पास परिवार नहीं है।”
“मैं एक लड़की से प्यार करता हूं – काव्या। उसके पिता, कर्नल साहब, अपनी बेटी की शादी किसी रसूखदार परिवार में करना चाहते हैं। उनके लिए पैसा, नौकरी से ज्यादा खानदान मायने रखता है। और मेरे पास तो कुछ भी नहीं।”
“मैं चाहता हूं आप मेरे पिता बनकर काव्या के परिवार से मिलें। बस एक बार उनके सामने मेरे परिवार का किरदार निभाएं। इसके लिए ₹10,000 एडवांस दूंगा।”
राम प्रसाद जी ने कुछ देर सोचा – “ठीक है बेटा, अगर मेरी मौजूदगी से तुम्हारा जीवन संवर सकता है, तो मैं यह किरदार निभा लूंगा।”
रिहर्सल, अपनापन और नया परिवार
काव्या आई – साधारण सलवार सूट में, आंखों में प्यार और उम्मीद की चमक।
राम प्रसाद जी के पैर छू लिए – “सौभाग्यवती रहो बेटी।”
रिहर्सल शुरू हुई – सवालों की लिस्ट, हर जवाब रटा गया।
मगर राम प्रसाद जी बार-बार रोहन को अजय कहकर बुला देते।
तीनों हंस पड़ते – “बुढ़ापा है ना बेटा, आदतें आसानी से नहीं बदलती।”
काव्या ने सुझाव दिया – नए कपड़े खरीदे जाएं।
तीनों बाजार गए – कुर्ता-पायजामा, चप्पल।
रेस्टोरेंट में खाना – एक परिवार जैसा माहौल।
कर्नल साहब से मुलाकात और सच्चाई
शाम 5 बजे – काव्या के घर।
कर्नल साहब और उनकी पत्नी बाहर आए।
“तो आप हैं रोहन के पिता। आइए अंदर।”
कर्नल – “रोहन की नौकरी और भविष्य?”
राम प्रसाद जी – “लखनऊ से हूं, जनरल स्टोर चलाता था। रोहन की नौकरी इस शहर में लगी, उसने कहा पापा अब अकेले मत रहिए, मेरे पास आ जाइए।”
कर्नल साहब सवाल करते रहे, राम प्रसाद जी आत्मविश्वास से जवाब देते रहे।
कर्नल प्रभावित हुए – कहीं से नहीं लगा कि यह बनावटी रिश्ता है।
शादी, सच्चाई और अंत
शादी तय हुई।
दो हफ्ते पहले राम प्रसाद जी बीमार पड़ गए – रोहन ने अस्पताल में देखभाल की।
काव्या भी उनका हाल पूछने आई।
राम प्रसाद जी बोले – “रोहन रात भर अस्पताल में मेरे सिरहाने बैठा रहा। कभी नहीं सोचा था कि कोई मुझे इतना अपनापन देगा।”
शादी का दिन – जयमाला से पहले मेरठ से आए एक सज्जन ने राम प्रसाद जी को पहचान लिया।
कर्नल साहब से बोले – “यह मेरठ के हैं। बेटे का नाम अजय है।”
कर्नल साहब – “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे धोखा देने की?”
रोहन कांपती आवाज में – “मैं सब बताता हूं।”
राम प्रसाद जी आगे आए – “कर्नल साहब, मुझे एक मौका दीजिए, मैं सब सच बताता हूं। मैंने धोखा नहीं दिया। मैंने सिर्फ एक रिश्ते को बचाने की कोशिश की। रोहन मेरा सगा बेटा नहीं, मगर मेरे लिए सगे से बढ़कर है। मैंने उसे अपनाया, उसने मुझे दिल से अपनाया।”
“मैं एक ऐसा बाप हूं जिसे अपने घर में इज्जत नहीं मिली। अपने बेटे ने ठुकरा दिया, मगर इस लड़के ने मुझे पिता का दर्जा दिया।”
मंडप में सन्नाटा।
काव्या आगे आई – “पापा, अंकल ने जो किया वो मेरे और रोहन के लिए किया। हम बहुत प्यार करते हैं। अगर आप हमें अलग करेंगे तो मैं कभी खुश नहीं रह पाऊंगी।”
काव्या की मां ने कहा – “राम प्रसाद जी की बातों में सच्चाई है। राधिका की खुशी ही हमारी जिंदगी है।”
कर्नल साहब बोले – “आपकी बातों और इन बच्चों के प्यार ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। मैं काव्या की खुशी के लिए हां कहता हूं, मगर आगे कोई झूठ नहीं।”
मंडप में खुशी की लहर दौड़ गई।
शादी धूमधाम से हुई।
विदाई, वापसी और अपनापन
शादी के बाद तीसरे दिन – राम प्रसाद जी का कमरा खाली।
बिस्तर पर एक कागज का टुकड़ा और ₹100 रखे थे।
“बेटा रोहन, बेटी काव्या, यह वही ₹100 हैं जो तुमने मुझे पिता का किरदार निभाने के लिए दिए थे। मगर मुझे इनकी जरूरत नहीं। तुम्हारे साथ बिताए इन दिनों में मुझे ऐसा सुकून मिला जैसे मैंने पूरी जिंदगी जी ली। तुमने मुझे वह इज्जत और प्यार दिया जो मैंने अपने घर में खो दिया था। मगर अब मुझे जाना होगा। मैं तुम पर बोझ नहीं बनना चाहता। मेरी दुआएं तुम्हारे साथ हैं।”
काव्या और रोहन उन्हें ढूंढने निकले – बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हर जगह।
आखिरकार शहर के बाहरी छोर पर एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठे मिले।
“पिताजी, आप हमें छोड़कर क्यों जा रहे हैं?”
“बेटा, तुमने मुझे वह इज्जत दी जो मैंने अपनी जिंदगी में खो दी थी। मगर मैं अब बूढ़ा हूं, तुम पर बोझ नहीं बनना चाहता।”
काव्या – “पिताजी, आप बोझ नहीं, हमारी ताकत हैं। हम आपको जिंदगी भर अपने पिता के रूप में चाहते हैं।”
रोहन – “पिताजी, मैं अनाथ हूं। मगर आपने मुझे वह प्यार दिया जिसके लिए मैं उम्र भर तरसता रहा। हमें आपकी जरूरत है।”
राम प्रसाद जी की आंखें भर आईं – “मैंने कभी नहीं सोचा था कि कोई पराया मुझे इतना अपना मानेगा।”
काव्या – “पिताजी, पराए नहीं, हम आपके अपने हैं। अब घर चलिए, वादा करते हैं आपको कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे।”
आखिरकार मान गए – सब एक साथ घर लौट आए।
अजय की वापसी – पछतावा और नई दुनिया
अगले दिन रोहन के घर अनजानी दस्तक –
काव्या ने दरवाजा खोला – सामने अजय खड़ा था, चेहरा पछतावे से भरा।
“पिताजी यहां हैं?”
राम प्रसाद जी को देखते ही अजय उनके कदमों में गिर पड़ा – “पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने आपको ठुकराया, आपकी इज्जत को मिट्टी में मिलते देखता रहा। मगर जब आप घर छोड़कर गए तो एहसास हुआ कि मैंने क्या खोया।”
राम प्रसाद जी की आंखें नम – “अजय, तू मेरा बेटा है और मैं तुझसे हमेशा प्यार करूंगा। मगर मैं अब यहां अपनी नई दुनिया बसा चुका हूं। ये दोनों मेरा बहुत ख्याल रखते हैं, मुझे प्यार और इज्जत दी। मैं इनके बिना अधूरा हूं।”
अजय – “पिताजी, मैं आपकी हर बात मानूंगा। प्लीज घर चलिए।”
राम प्रसाद जी ने सिर हिलाया – “नहीं अजय, मेरा फैसला नहीं बदलेगा। हां, मैं छोटू से मिलने जरूर आऊंगा और हमेशा आता रहूंगा। मगर मेरा घर अब यही है। मैं नाराज नहीं हूं बेटा, बस वहां नहीं लौटना चाहता जहां मेरी जरूरत नहीं। जहां सम्मान मिला है, आखिरी सांसें भी वहीं लूंगा।”
कहानी का संदेश
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किराए का रिश्ता – हर रिश्ते की कीमत इज्जत और प्यार में है, खून के रिश्ते से नहीं।
इंसान को सम्मान और अपनापन वहीं मिलता है, जहां दिल से जगह दी जाती है।
– समाप्त –
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