मालिक ने नौकर को चोरी का इलज़ाम लगाकर निकाला था, कई साल बाद वही नौकर फिल्म स्टार बनकर लौटा, फिर जो

गोविंद की कहानी – बेगुनाही, संघर्ष और इंसानियत की मिसाल

गोविंद सिंह मैनशन में पिछले दस सालों से काम कर रहा था। मालिक ठाकुर हनीफ कुरैशी और उनकी पत्नी रुक्मणी देवी उसे अपने बेटे जैसा मानते थे। छोटी अंजलि तो उसे भाई ही कहती थी। गोविंद की ईमानदारी और वफादारी पूरे घर में मशहूर थी।

एक दिन अचानक सब बदल गया। गोविंद के सूटकेस में चोरी का हार मिला। उसने कांपती आवाज़ में कहा – “यह मेरे सूटकेस में कैसे आया? मैंने नहीं लिया!” मगर कोई उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था। पल भर में वह सबकी नजरों में चोर बन चुका था। हीरा और उसके साथी घड़ियाली आंसू बहाते हुए बोले – “हमें तो यकीन ही नहीं हो रहा कि गोविंद ऐसा कर सकता है। मालिक, हमने तो इसे अपना भाई समझा था।”

ठाकुर साहब को जैसे बिजली गिर गई। जिस गोविंद को वह बेटे की तरह मानते थे, वही चोर निकला! उनका दिल टूट गया। गुस्से में उन्होंने गोविंद को घर से निकाल दिया। “नमकहराम! हमने तुझे अपने घर में पनाह दी, तुझ पर अपने परिवार से ज्यादा भरोसा किया और तूने हमारी पीठ में छुरा घोंप दिया!” गोविंद उनके पैरों पर गिर पड़ा, गिड़गिड़ाया, रोया – “मालिक, मैंने चोरी नहीं की है। मुझे कोई फंसा रहा है। मैं बेकसूर हूं।” मगर ठाकुर साहब ने एक ना सुनी। गार्ड्स ने गोविंद को धक्के मारकर कोठी के बाहर फेंक दिया।

रुक्मणी देवी भी रो रही थीं। सिर्फ छोटी अंजलि गोविंद के लिए रोती रही – “पापा, गोविंद भैया चोर नहीं है!” मगर उसकी भी कोई नहीं सुनता। गोविंद सड़क पर पड़ा था, उसकी आंखों से आंसू नहीं, खून बह रहा था। उसने अपना सम्मान, पहचान, परिवार सब खो दिया था।

वह बिना किसी मंजिल के अनजान सड़कों पर चल पड़ा। सिंह मैनशन का गेट उसके मुंह पर तमाचे की तरह बंद हो गया। बाहर की दुनिया उसे खाने को दौड़ रही थी। पहले कुछ दिन वह शहर में ही भटकता रहा। काम ढूंढ़ने की कोशिश की – मगर हर जगह उसे शक की निगाह से देखा जाता। जेब के पैसे खत्म हो गए। रातें रेलवे स्टेशन की बेंच या मंदिर की सीढ़ियों पर कटतीं। दिन में लंगर में खाना, कभी ढाबे पर झूठे बर्तन धोकर रोटी पा लेता। खुद्दारी उसे भीख मांगने नहीं देती थी, मगर भूख इंसान को तोड़ देती है।

उसके मन में बार-बार वही सवाल – “मैंने तो किसी का बुरा नहीं चाहा, फिर मेरे साथ ऐसा क्यों?” वह अपनी किस्मत को, उस दिन को कोसता जब वह हार उसके सूटकेस में मिला था।

एक महीने बाद उसे समझ आ गया – इस शहर में अब उसके लिए कुछ नहीं बचा। उसने सुना था – मुंबई सपनों का शहर है, वहां मेहनत करने वालों को मौका मिलता है। बिना टिकट के ट्रेन में बैठकर वह मुंबई चला गया। सफर भी आसान नहीं था – दो दिन शौचालय के पास सिकुड़ा बैठा रहा। मगर उसकी आंखों में एक नई उम्मीद थी।

मुंबई पहुंचकर भी संघर्ष जारी रहा। दिन में काम की तलाश, रातें फ्लाईओवर के नीचे। आखिरकार एक ईरानी कैफे में बर्तन धोने का काम मिला। मालिक एक बूढ़ा पारसी था, जो गोविंद की ईमानदारी से प्रभावित हुआ। गोविंद का ज्यादातर वक्त कैफे में ही गुजरता। पास ही फिल्म सिटी थी – वह अक्सर शूटिंग देखता, सितारों की दुनिया उसके लिए जादू जैसी थी।

एक दिन फिल्म के जूनियर आर्टिस्ट सप्लायर ने गोविंद को वेटर के छोटे रोल के लिए बुलाया। गोविंद झिझका – मगर ₹500 की जरूरत थी। उसे यूनिफार्म पहनाई गई, सेट पर ले जाया गया। डायरेक्टर ने समझाया – बस ट्रे लेकर हीरो के सामने से गुजरना है, एक लाइन बोलनी है। कैमरा ऑन हुआ, गोविंद ने अपनी लाइन बोली – “साहब, आपका ऑर्डर।” उसकी आवाज़ में सच्चाई, मासूमियत और दर्द था – जिससे सब चौंक गए।

डायरेक्टर मिस्टर कपूर ने गोविंद को बुलाया – “क्या नाम है तुम्हारा?” – “गोविंद। पास के कैफे में बर्तन धोता हूं।” कपूर मुस्कुराए – “मुझे तुम्हारी आंखों में एक कलाकार दिखाई देता है।” उसी दिन गोविंद की किस्मत बदल गई। कपूर ने उसे अपनी अगली फिल्म में अहम रोल दिया – एक ईमानदार नौकर का, जो मालिक के लिए जान दे देता है। गोविंद ने अपनी सारी पीड़ा, वफादारी, जख्म उस किरदार में उड़ेल दिए। फिल्म सुपरहिट हो गई। लोग उसकी एक्टिंग की तारीफ करने लगे। कपूर ने उसका नाम बदलकर ‘किशन कुमार’ रखा, उसे एक्टिंग की बारीकियां सिखाईं, पढ़ना-लिखना सिखाया।

पांच सालों में किशन कुमार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक के बाद एक हिट फिल्में, अवार्ड्स, शोहरत, पैसा – सब कुछ मिल गया। वह हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार बन गया। मगर दिल के किसी कोने में वह गोविंद था – जो अपने ऊपर लगे चोरी के दाग को कभी नहीं भूल पाया।

हर रात वह सिंह मैनशन की आखिरी रात याद करता – चोर शब्द उसके दिल में चुभता था। उसके पास सब कुछ था, मगर मन का सुकून नहीं। उसने कई बार सोचा – लखनऊ वापस जाए, मगर किस हक से? क्या कोई उसकी बात पर यकीन करेगा? इन्हीं सवालों में उलझा रहता।

एक दिन फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में वह लखनऊ आया। उसने फैसला किया – एक बार दूर से ही सिंह मैनशन देखेगा। आधी रात के बाद साधारण गाड़ी में, चेहरा शॉल से ढंककर वह वहां पहुंचा। जिस जगह पर कभी आलीशान सिंह मैनशन था, वहां अब वीरान खंडहर थी। गेट पर जंग, घास, दीवारों पर काई, बाहर ‘बिकाऊ है’ का बोर्ड।

किशन कुमार का दिल टूट गया। पास के चाय वाले से पूछा – “यह सिंह मैनशन, यहां रहने वाले लोग कहां गए?” चाय वाले ने ठंडी सांस ली – “ठाकुर साहब तो बर्बाद हो गए। उनके नौकरों ने उन्हें लूट लिया। एक वफादार नौकर था गोविंद – सुना है उसने चोरी की थी, फिर बाकी नौकरों ने सब माल साफ कर दिया। ठाकुर साहब कोठी बेचनी पड़ी। अब उनका कोई पता नहीं।”

किशन कुमार के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसे फंसाने वाले असली चोर थे। ठाकुर साहब का परिवार बर्बाद हो गया। उसके मन में नफरत और पछतावा – काश उसने अपनी बेगुनाही साबित करने की कोशिश की होती। आज उनकी हालत उसकी वजह से हुई है।

उसने फैसला किया – मालिक को ढूंढेगा। एक सुपरस्टार के लिए किसी को ढूंढना मुश्किल नहीं था। दो दिन की कोशिश के बाद पता चला – ठाकुर साहब शहर के पुराने इलाके में मंदिर के बाहर भीख मांग रहे हैं। किशन कुमार का दिल फट पड़ा। वह फौरन वहां पहुंचा। मंदिर की सीढ़ियों पर फटे कपड़ों में बूढ़ा आदमी – वही चेहरा, वही आंखें। किशन कुमार रोता हुआ उनके सामने बैठ गया। “मालिक…” ठाकुर साहब चौक गए। “कौन हो तुम?” किशन ने शॉल हटाया – “मैं गोविंद हूं।” ठाकुर साहब अविश्वास से देख रहे थे – “गोविंद, तुम जिंदा हो?” वह उनके पैरों पर गिर पड़ा – “मुझे माफ कर दीजिए मालिक। मेरी वजह से आपकी यह हालत हुई। काश मैंने आपको सच बता दिया होता।”

ठाकुर साहब भी फूट-फूट कर रोने लगे। “गलती तुम्हारी नहीं, मेरी थी। मैंने अपनी आंखों पर भरोसा किया, अपने बेटे पर नहीं।” उस दिन मंदिर की सीढ़ियों पर मालिक और नौकर नहीं, पिता और बेटे का मिलन हो रहा था। उनके आंसू सालों के गम, दर्द को धो रहे थे।

किशन को पता चला – रुक्मणी देवी बीमार हैं, अंजलि छोटी सी दुकान पर काम करती है। उसने तय किया – वह अपने मालिक को उनकी खोई हुई इज्जत और सम्मान लौटाएगा। ठाकुर साहब को होटल ले गया, डॉक्टर बुलाया। फिर उस छोटे किराए के मकान में पहुंचा, जहां रुक्मणी देवी और अंजलि रहती थीं। दरवाजा अंजलि ने खोला – किशन को पहचान नहीं पाई, मगर जब उसने मुस्कुराकर कहा – “अंजलि बेटी, अपने गोविंद भैया को भूल गई?” – वह दौड़कर उससे लिपट गई। रुक्मणी देवी भी रो पड़ीं – “गोविंद बेटा, तू आ गया।”

किशन ने अपनी योजना बताई – “मैं आपको सिंह मैनशन वापस ले जाना चाहता हूं।” ठाकुर साहब ने सिर झुका लिया – “अब वह घर हमारा नहीं रहा।” किशन मुस्कुराया – “मैंने उसे वापस खरीद लिया है, वह आज भी आपका ही है।” पूरे परिवार को यकीन नहीं हुआ – जिस नौकर को चोर समझकर निकाला था, वही उनका सबसे बड़ा सहारा बनकर लौटा है।

अगले कुछ हफ्तों में किशन ने सिंह मैनशन को फिर से सजाया। जब घर तैयार हुआ, पूरे परिवार को वहां लेकर गया। ठाकुर साहब ने दहलीज पर कदम रखा – उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। यह उनके लिए सिर्फ घर नहीं, खोई हुई इज्जत थी।

किशन ने ठाकुर साहब के कारोबार में निवेश किया, अंजलि की पढ़ाई की जिम्मेदारी ली, रुक्मणी देवी के इलाज का इंतजाम किया। उसने हीरा, पन्ना, मोती और पुखराज – चारों नौकरों का पता लगवाया। कानून का सहारा लिया, उन्हें सजा दिलवाई। वे पकड़े गए, गुनाह कबूल किया, बताया कैसे उन्होंने गोविंद को फंसाया था। आज गोविंद कुमार का नाम पूरी तरह बेदाग हो चुका था – मगर अब उसे किसी सबूत की जरूरत नहीं थी। उसकी सबसे बड़ी बेगुनाही – उसकी इंसानियत और नेकी थी।

एक शाम पूरा परिवार सिंह मैनशन के लॉन में बैठा चाय पी रहा था। ठाकुर साहब ने किशन का हाथ पकड़ा – “बेटा, लोग तुम्हें सुपरस्टार कहते हैं, पर मेरे लिए तुम भगवान हो। तुमने हमें जीने की वजह लौटाई है।” किशन की आंखें नम हो गईं – “मालिक, मैंने तो बस अपना फर्ज निभाया है। आपने ही सिखाया था – वफादारी और ईमानदारी ही इंसान की सबसे बड़ी दौलत है।”

अंजलि अब कॉलेज जाती थी, उसके चेहरे पर मुस्कान लौट आई थी। अपने गोविंद भैया के पास बैठी थी, जैसे बचपन में बैठती थी। आज गोविंद कुमार उर्फ किशन कुमार दुनिया की नजरों में फिल्म स्टार था – पर अपनी नजरों में सिंह मैनशन का वही वफादार गोविंद, जिसने अपने मालिक का नमक खाया था और आज उस नमक का हक अदा किया था।

उसके दामन पर लगा चोरी का दाग अब पूरी तरह मिट चुका था – उसकी जगह ईमानदारी का सितारा चमक रहा था, जिसकी रोशनी किसी भी फिल्मी सितारे की चमक से कहीं ज्यादा थी।

सीख:
इंसान की असली पहचान उसके पद या दौलत से नहीं, उसके चरित्र और नियत से होती है। माफ कर देना बदला लेने से कहीं बड़ा होता है। वफादारी का कर्ज अदा करके इंसान और भी अमीर हो जाता है।

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