रिश्ता बचाने के लिए पत्नी के सारे ज़ुल्म सहता रहा, एक दिन गुस्सा आया.. फिर जो हुआ

“सम्मान की तलाश: गोविंद की कहानी”

रामपुर के एक साधारण मोहल्ले में गोविंद की जिंदगी किसी धीमी आग पर रखे बर्तन जैसी थी। बाहर से सब ठीक दिखता था, लेकिन अंदर सब कुछ उबल रहा था। शादी को सात साल हो चुके थे और हर गुजरता दिन उसे यह एहसास दिलाता था कि वह अपनी ही पत्नी लता की नजरों में कितना छोटा है। लता का स्वभाव शुरू से ही तेज था। गोविंद ने सोचा था कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा, लेकिन उसने गलत सोचा था।

लता के पिता शहर के नामी व्यापारी थे और उन्होंने अपनी बेटी को वह सब दिया था जो पैसा खरीद सकता था। लेकिन शायद संस्कार देना भूल गए थे। गोविंद एक सरकारी स्कूल में शिक्षक था। तनख्वाह अच्छी थी, सम्मानजनक नौकरी थी। लेकिन लता के लिए यह काफी नहीं था। उसे चाहिए था बड़ा घर, महंगी गाड़ी, विदेश की सैर और वह सब जो उसकी सहेलियों के पास था।

हर सुबह लता ताना मारती, “तुम्हारे जैसा निकम्मा आदमी मैंने नहीं देखा। मेरी सहेली रिया का पति देखो कितना कमाता है। तुम तो बस किताबें पढ़ाते रहते हो।” गोविंद चुपचाप चाय पीता रहता। जवाब देने से क्या फायदा? बहस बढ़ती और पूरा दिन खराब हो जाता। उसने सिर्फ इतना कहा, “लता, मैं ईमानदारी से काम करता हूं। हमारे पास सब कुछ है।”

लता हंसते हुए बोली, “तुम्हें पता भी है सब कुछ का मतलब क्या होता है? मैं अपनी सहेलियों के सामने शर्मिंदा होती हूं जब वे अपनी विदेश यात्राओं के बारे में बताती हैं।” गोविंद ने कुछ नहीं कहा। अपना बैग उठाया और स्कूल के लिए निकल गया। रास्ते भर वह सोचता रहा कि उसने क्या गलती की है। उसने हमेशा लता का ख्याल रखा, उसकी हर जायज मांग पूरी की। लेकिन यह औरत खुश क्यों नहीं है?

स्कूल में बच्चे उसका सम्मान करते थे, माता-पिता उसकी तारीफ करते थे। लेकिन अपने ही घर में वो एक असफल इंसान था। यह विडंबना उसे अंदर तक तोड़ देती थी। शाम को जब वह घर लौटा तो घर में सन्नाटा था। लता अपने कमरे में थी, फोन पर किसी से बातें कर रही थी। गोविंद ने सुना, वो अपनी सहेली से कह रही थी, “यार, मैं नहीं जानती मैं कब तक इस बोरिंग जिंदगी में फंसी रहूंगी। गोविंद में कोई जुनून नहीं है, कोई हिम्मत नहीं है।”

गोविंद का दिल बैठ गया। उसने धीरे से रसोई में जाकर खाना बनाना शुरू किया। हां, खाना वह खुद बनाता था क्योंकि लता को यह छोटे काम पसंद नहीं थे। रात के खाने पर लता ने फिर शुरू किया, “मेरे पापा कह रहे थे कि तुम्हें कोई बिजनेस शुरू करना चाहिए। नौकरी में क्या रखा है?” गोविंद ने कहा, “लता, मुझे पढ़ाना अच्छा लगता है। यह मेरा जुनून है।” “जुनून से पेट नहीं भरता। पैसा चाहिए, समझे?” लता ने ताना मारा।

गोविंद ने थाली एक तरफ सरका दी। उसकी भूख मर चुकी थी। अब लता के तानों से ही पेट भर जाता था। वह अपने कमरे में चला गया और खिड़की से बाहर देखने लगा। आसमान में तारे चमक रहे थे लेकिन उसकी जिंदगी में अंधेरा था।

अगले दिन स्कूल में प्रिंसिपल ने उसे बुलाया। “गोविंद जी, आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। हम आपको अगले महीने से सीनियर टीचर बनाना चाहते हैं। तनख्वाह भी बढ़ेगी।” गोविंद को थोड़ी खुशी मिली। शायद यह खबर सुनकर लता खुश हो जाए। शाम को उसने उत्साह से लता को बताया। लेकिन लता का जवाब उसकी सारी उम्मीदें तोड़ गया, “बस इतनी सी बात। मेरे दोस्त की बहन का पति तो महीने में लाखों कमाता है। तुम हजारों में खुश हो जाते हो।”

उस रात गोविंद को नींद नहीं आई। वो सोचता रहा कि आखिर कब तक वह यह सब सहता रहेगा। लेकिन फिर उसे अपने बूढ़े माता-पिता याद आए, जिन्होंने उसे सिखाया था कि घर बचाना सबसे बड़ा धर्म है। तलाक समाज में बदनामी लाता है। लेकिन हर इंसान की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। गोविंद भी इंसान था और वह सीमा धीरे-धीरे टूट रही थी।

महीना बीतते-बीतते गोविंद की हालत और खराब हो गई। लता का व्यवहार अब सिर्फ शब्दों तक सीमित नहीं रह गया था। उसने गोविंद को सामाजिक रूप से भी अपमानित करना शुरू कर दिया था। पिछले रविवार लता के माता-पिता घर आए थे। गोविंद ने पूरे मन से उनका स्वागत किया। लेकिन लता ने सबके सामने ही कहा, “पापा, आप देख रहे हो ना? यही हाल है मेरा। गोविंद को तो बस अपनी किताबों से मतलब है। घर की कोई जिम्मेदारी नहीं समझते।”

गोविंद सक्त में आ गया। उसके ससुर ने भी उसे घूर कर देखा, “बेटा, लड़की को खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर लता परेशान है तो गलती तुम्हारी ही होगी।” गोविंद ने विरोध करना चाहा लेकिन शब्द गले में अटक गए। बुजुर्गों से बहस करना उसके संस्कार नहीं थे। वो चुपचाप बैठा रहा, जबकि लता ने और भी कई झूठी शिकायतें सुनाई।

अगले हफ्ते स्कूल में एक समारोह था। गोविंद को सम्मानित किया जाना था उसके बेहतरीन शिक्षण कार्य के लिए। उसने लता से कहा, “तुम चलोगी ना? मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है।” लता ने मुंह बनाया, “मुझे तुम्हारे स्कूल के बोरिंग प्रोग्राम में कोई दिलचस्पी नहीं। मैं अपनी सहेली के साथ शॉपिंग जा रही हूं।” गोविंद का दिल टूट गया। उसने कभी कुछ नहीं मांगा था लता से। लेकिन आज उसे साथ की सख्त जरूरत थी। फिर भी उसने कुछ नहीं कहा।

समारोह में जब उसे मंच पर बुलाया गया तो सबके साथ परिवार वाले थे। सिर्फ गोविंद अकेला था। उसकी आंखें नम हो गई लेकिन उसने मुस्कुराने की कोशिश की। प्रिंसिपल ने उसकी तारीफ की, “गोविंद जी जैसे समर्पित शिक्षक बहुत कम होते हैं। इनका परिवार गर्व महसूस करता होगा।” गोविंद ने सिर्फ धन्यवाद कहा। अंदर ही अंदर वह बिखर रहा था।

घर पहुंचा तो लता सोफे पर लेटी फोन चला रही थी। खरीदारी के थैले चारों ओर बिखरे थे। गोविंद ने पूछा, “कितना खर्च किया?” “तुम्हें क्या? मेरे पापा के पैसे हैं।” लता ने बिना देखे जवाब दिया। “लता, हम पतिपत्नी हैं। मुझे भी हक है जानने का।” लता उठकर बैठ गई, उसकी आंखों में गुस्सा था। “हक? तुम हक की बात मत करो। तुम तो मुझे वह जिंदगी भी नहीं दे सके जिसकी मैं हकदार हूं।”

गोविंद ने गहरी सांस ली, “मैं लगातार कोशिश कर रहा हूं। मेरी तनख्वाह बढ़ी है। हम आराम से रह रहे हैं।” “आराम से? यह छोटा सा घर, पुरानी कार। यह आराम है तुम्हारे हिसाब से? मेरी सहेलियां विदेश घूम रही हैं और मैं इस जेल में फंसी हूं।” गोविंद ने पहली बार आवाज ऊंची की, “जेल? मैंने तुम्हें कभी कुछ करने से नहीं रोका। तुम जो चाहो करो लेकिन मेरा अपमान मत करो।”

लता हंसी, “अपमान? तुम अपमान महसूस करते हो? तो मैं क्या महसूस करती हूं? जब लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरे पति क्या करते हैं? मुझे शर्म आती है यह बताते हुए कि तुम बस एक साधारण शिक्षक हो।” गोविंद के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसका पेशा जिस पर उसे गर्व था, लता के लिए शर्म का विषय था। वो बिना कुछ बोले अपने कमरे में चला गया। उस रात गोविंद ने अपनी डायरी में लिखा, “आज मुझे पहली बार लगा कि मैं इस रिश्ते में अकेला हूं। शायद हमेशा से अकेला था। लता ने कभी मुझे अपना नहीं समझा।”

अगले कुछ दिन ऐसे ही बीते। गोविंद स्कूल जाता, लौटता और अपने कमरे में बंद हो जाता। लता को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वो अपनी दुनिया में मस्त थी। फिर एक दिन गोविंद के पुराने दोस्त राजेश ने फोन किया, “यार कैसा है? बहुत दिन हो गए मिले।” गोविंद की आवाज में दर्द था, “बस चल रहा है।” राजेश ने भांप लिया, “क्या हुआ? सब ठीक है ना?” गोविंद टूट गया। उसने राजेश को सब कुछ बता दिया। राजेश ने सुना और कहा, “यार यह गलत है। तुझे कुछ करना होगा। कब तक सहता रहेगा?”

गोविंद को पहली बार लगा कि शायद राजेश सही कह रहा था। लेकिन करें तो क्या करें? तलाक नहीं। वह इतना टूट चुका था कि फैसला लेने की हिम्मत भी खो चुका था। लेकिन जिंदगी अपने अनोखे तरीके से चलती है। गोविंद नहीं जानता था कि आने वाली घटना उसकी जिंदगी पूरी तरह बदल देगी।

दो सप्ताह बाद गोविंद के पिताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। गोविंद को देर रात फोन आया और वह तुरंत अस्पताल की ओर भागा। “लता चलो, पिताजी की हालत गंभीर है।” गोविंद ने घबराहट में कहा। लता ने करवट बदली, “मुझे नींद आ रही है। तुम जाओ। मैं सुबह आऊंगी।” गोविंद स्तब्ध रह गया। उसके पिता मौत से लड़ रहे थे और उसकी पत्नी को नींद की चिंता थी। उसने कुछ नहीं कहा और अकेले ही निकल गया।

अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि स्थिति नाजुक है। अगले 24 घंटे बहुत महत्वपूर्ण है। “आपको परिवार को बुला लेना चाहिए।” गोविंद रात भर पिताजी के पास बैठा रहा। सुबह हुई, दोपहर हुई लेकिन लता नहीं आई। शाम को उसका फोन आया, “मैं अपनी सहेली के यहां हूं। उसकी पार्टी थी। आ नहीं पाई।” गोविंद ने फोन काट दिया। उसकी आंखों में अब आंसू भी नहीं थे। इतने सालों से रोज के ताने, रोज का अपमान सुनकर आंसू भी सूख चुके थे।

तीसरे दिन पिताजी की हालत सुधरी। डॉक्टर ने कहा खतरा टल गया है लेकिन इन्हें पूरे आराम की जरूरत है। गोविंद पिताजी को घर लाया। उनका कमरा ठीक किया, दवाइयां लाई, खाना बनाया, सब कुछ अकेले किया। लता घर में थी, लेकिन उसे मानो कुछ दिखता ही नहीं था। वह अपने फोन में व्यस्त रहती या सहेलियों से बातें करती।

एक शाम पिताजी ने गोविंद का हाथ पकड़ा, “बेटा, मैं सब देख रहा हूं। लता तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करती है? तुम कब तक सहोगे?” गोविंद की आंखें भर आई, “पिताजी, घर टूटना नहीं चाहिए। आपने यही तो सिखाया था।” “बेटा, घर वहां होता है जहां सम्मान हो, प्यार हो। चार दीवारें घर नहीं बनाती। तुम्हारी खुशी भी जरूरी है।”

उसी रात लता के पिता का फोन आया, “गोविंद, मैं सुन रहा हूं तुम्हारे पिताजी बीमार हैं। तुम उनकी देखभाल में इतने व्यस्त हो कि लता का ध्यान नहीं रख पा रहे। यह गलत है।” गोविंद का धैर्य टूट गया। पहली बार उसने साफ शब्दों में जवाब दिया, “माफ कीजिए, लेकिन आप गलत जानकारी पा रहे हैं। मेरे पिताजी मौत के करीब थे और लता अस्पताल तक नहीं आई। मैं अकेला था। अब मैं उनकी सेवा कर रहा हूं और इसमें गलत कुछ नहीं।”

“तुम मुझसे इस तरह बात कर रहे हो?” उनकी आवाज कठोर हो गई। “मैं सच बोल रहा हूं। अगर आपको विश्वास नहीं तो खुद आकर देख लीजिए।” गोविंद ने फोन काट दिया।

लता गुस्से में आई, “तुमने मेरे पापा से ऐसे कैसे बात की?” गोविंद ने पहली बार उसकी आंखों में देखा, “मैंने वही बोला जो सच है। तुम्हें शर्म आनी चाहिए, लता। मेरे पिता बीमार थे और तुमने एक बार मुंह नहीं पूछा। तुम सिर्फ अपने बारे में सोचती हो।” “तो मुझे क्यों फर्क पड़े? वे तुम्हारे माता-पिता हैं, मेरे नहीं।”

यह शब्द गोविंद के लिए आखिरी तिनका साबित हुए। उसने गहरी सांस ली, “लता, मैंने सात साल तुम्हारा अपमान सहा। तुम्हारे ताने, तुम्हारी उपेक्षा, सब कुछ। मैं चुप रहा क्योंकि मुझे लगा तुम बदल जाओगी। लेकिन आज मुझे समझ आया कि तुम कभी नहीं बदलोगी।” “तो क्या करोगे? तलाक दोगे?” लता ने मजाक उड़ाया। “हां,” गोविंद ने सीधे उसकी आंखों में देखते हुए कहा, “मैं तलाक लूंगा। मुझे अपनी खुद की इज्जत वापस चाहिए।”

लता हंसी, लेकिन उसकी हंसी में अब घबराहट थी, “तुम ऐसा नहीं कर सकते। समाज में तुम्हारी क्या इज्जत रहेगी?” “जो इज्जत तुमने पहले ही छीन ली, उससे ज्यादा क्या खोऊंगा?” गोविंद ने गुस्से में कहा।

अगले दिन गोविंद ने वकील से संपर्क किया। पिताजी ने उसका साथ दिया, “बेटा, तुमने सही फैसला लिया। जिंदगी एक ही मिलती है। उसे गलत इंसान के साथ बर्बाद मत करो।” लता को जब वकील का नोटिस मिला तो उसे पहली बार डर लगा। उसके माता-पिता भी परेशान हो गए। उन्होंने गोविंद को समझाने की कोशिश की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी।

गोविंद ने अपनी डायरी में आखिरी पन्ने पर लिखा, “आज मैंने अपने लिए जीने का फैसला किया। मैं जान गया हूं कि सम्मान खोकर रिश्ता बचाने का कोई मतलब नहीं। मैं अब आजाद हूं।”

छह महीने बाद तलाक हो गया। गोविंद ने फिर से अपनी जिंदगी शुरू की। स्कूल, अपने पिताजी की सेवा और खुद के लिए समय। वो खुश था, शांत था। लता को बाद में एहसास हुआ कि उसने क्या खोया, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

गलतियां सबसे होती हैं, लेकिन उनको बढ़ावा देना हमारी जिंदगी को मुश्किल बना देता है। घर तब घर जैसा लगता है जब उसमें प्यार हो, अपनापन हो। सिर्फ एक ढांचे को घर कह देना घर नहीं होता।

आपको क्या लगता है गोविंद को यह निर्णय बहुत पहले लेना चाहिए था या लता को एक मौका देना चाहिए था?