लड़का बस में पुलिस की बुराई करता रहा ,अगली सीट पर बैठे आदमी ने बताया की मै पुलिस में हूँ ,फिर जो हुआ
“बस का सफर और इंसानियत की वर्दी”
उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की एक पुरानी बस लखनऊ से पूर्वांचल के एक छोटे कस्बे की ओर जा रही थी। बस के भीतर आम हिंदुस्तान की तस्वीर थी—कोई सीट के लिए लड़ रहा था, कोई मोबाइल पर बातें कर रहा था, कोई किसान कोने में ऊंघ रहा था। खिड़की के पास वाली सीट पर एक अधेड़ उम्र का आदमी बैठा था, उम्र करीब पचास साल, साधारण पैंट-शर्ट, घिसी चप्पलें, चेहरे पर थकान और आंखों में गहरी सोच।
उसके पीछे वाली सीट पर दो युवा छात्र बैठे थे—रोहन और समीर। दोनों कॉलेज से छुट्टी लेकर घर जा रहे थे। दोनों आज की पीढ़ी के प्रतीक—जोशीले, बेबाक, हर चीज़ पर राय रखने वाले। सफर शुरू हुआ ही था कि बस एक चौराहे पर रुकी, जहां ट्रैफिक पुलिस का सिपाही गाड़ियों को नियंत्रित कर रहा था। रोहन ने समीर से हंसते हुए कहा, “देख हफ्ता वसूलने वाला आ गया।” समीर भी हंसा, “इनकी तो पांचों उंगलियां घी में होती हैं, दिनभर गाड़ियां रोकने का नाटक, रात में जेबें नोटों से भरी।”
आगे बैठा आदमी थोड़ा सा हिला, गर्दन घुमाई, लेकिन कुछ बोला नहीं। रोहन का जोश बढ़ गया—“इनसे बड़ा कामचोर कौन होगा? थाने में जाकर देखो, सुबह से शाम तक पान चबाते, मक्खियां मारते रहते हैं। आम आदमी शिकायत लेकर जाए तो ऐसे घुमाते हैं कि शिकायत ही भूल जाए। नेता आ जाए तो कुर्सी खाली कर देंगे। सही कह रहा हूं भाई!”
समीर ने भी हामी भरी, “इनकी भाषा सुनो, कैसी गंदी गालियां देते हैं। शरीफ आदमी तो डरता है। रिश्वतखोरी तो देखो, बिना पैसे एफआईआर तक नहीं लिखते। हर काम का रेट फिक्स है—पासपोर्ट वेरिफिकेशन के 500, किराएदार के वेरिफिकेशन के 1000। देश को दीमक की तरह खा रहे हैं।”
बस में बैठे कुछ और लोग भी उनकी बातों में दिलचस्पी लेने लगे। कुछ मुस्कुरा रहे थे, कुछ सिर हिला रहे थे। आगे बैठा आदमी अभी भी चुप था, बस खामोशी से सब कुछ सुन रहा था। करीब एक घंटा गुजर गया। लड़कों का जोश चरम पर था। उन्होंने पुलिस की बुराई करते-करते पूरे सिस्टम और देश को कोसना शुरू कर दिया। तभी बस एक ढाबे पर रुकी। सब लोग नीचे उतरने लगे। रोहन और समीर भी उठे। जैसे ही वे उस आदमी के पास से गुजरे, रोहन ने ऊंची आवाज में कहा, “चलो भाई चाय पीते हैं, क्या पता यहां भी कोई मामू मिल जाए और चाय के पैसे उसी से वसूल लें।”
यह सुनते ही अधेड़ आदमी के सब्र का बांध टूट गया। वह धीरे से उठा, पीछे मुड़ा, और दोनों लड़कों की आंखों में आंखें डालकर देखा। उसकी आंखों में गुस्सा नहीं था, नफरत नहीं थी—बस एक गहरी उदासी और पीड़ा थी। रोहन और समीर एक पल के लिए ठिठक गए। उसने बहुत ही शांत लेकिन मजबूत आवाज में कहा—
“तुम लोग शायद सही कह रहे हो। पुलिस में बहुत से लोग बेईमान होंगे, रिश्वतखोर होंगे, कामचोर होंगे। लेकिन सब ऐसे नहीं होते।”
उसने अपनी जेब से पुराना घिसा हुआ बटुआ निकाला, उसमें से एक पहचान पत्र निकाला और लड़कों के सामने कर दिया—उत्तर प्रदेश पुलिस का पहचान पत्र। नाम—इंस्पेक्टर अमर सिंह।
“क्योंकि मैं भी पुलिस में हूं।”
यह सुनते ही रोहन और समीर के पैरों तले जमीन खिसक गई। चेहरे का रंग उड़ गया। लगा, अब तो गए काम से—इंस्पेक्टर उन्हें यहीं पीटेगा, थाने ले जाएगा। लेकिन इंस्पेक्टर अमर सिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह मुस्कुराए, एक फीकी दर्द भरी मुस्कान—“डरो मत, मैं तुम्हें कुछ नहीं करूंगा। न मारूंगा, न जेल में डालूंगा। बस तुम लोगों ने पिछले घंटे में बहुत कुछ कहा, अब 5 मिनट मेरे भी सुन लो।”
उन्होंने दोनों को वापस सीट पर बैठने का इशारा किया, खुद भी बगल वाली खाली सीट पर बैठ गए। उनकी आंखें खिड़की के बाहर थीं, आवाज में थकान और सच्चाई थी।
“तुमने कहा पुलिस वाले कामचोर होते हैं। मैं पिछले तीन महीनों से अपने घर नहीं गया हूं। मेरी बेटी का छठा जन्मदिन था पिछले हफ्ते, मैं नहीं जा पाया। मेरी पत्नी अकेली बूढ़े बीमार मां-बाप की देखभाल कर रही है। मैं उससे दिन में दो मिनट बात कर पाता हूं, वो भी जब वह सो रही होती है। क्यों? क्योंकि शहर में अपहरण का केस चल रहा है। जब तक बच्ची नहीं मिलती, छुट्टी नहीं मिल सकती।
तुमने कहा हम रिश्वतखोर हैं। शायद कुछ होते होंगे। लेकिन मैं अपनी ईमानदारी की कसम खाकर कहता हूं, मैंने आज तक तनख्वाह के अलावा एक रुपया भी हराम का नहीं कमाया। ये चप्पलें दो साल से पहनी हैं, क्योंकि नई खरीदने के पैसे नहीं हैं। तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा मां-बाप की दवाइयों और बच्चों की फीस में जाता है।
तुमने कहा हम गालियां देते हैं, बदतमीज हैं। बेटा, जब तुम घर में मां-बहन के साथ टीवी देख रहे होते हो, तब हम रात के अंधेरे में अपराधियों, हत्यारों, बलात्कारियों का सामना कर रहे होते हैं। उनकी भाषा में माफ कीजिए और धन्यवाद जैसे शब्द नहीं होते। जब तुम किसी जले-कटे-सड़े हुए जिस्म को देखते हो तो रूह कांप जाती है, हम रोज ऐसे जिस्मों को उठाते हैं। जब तुम किसी मां को बेटे की लाश पर रोते देखते हो तो दिल फट जाता है, हम रोज किसी मां को यह खबर देने का पत्थर दिल काम करते हैं। धीरे-धीरे हमारा दिल भी पत्थर का हो जाता है, जुबान कड़वी हो जाती है, हम हंसना भूल जाते हैं।
तुमने कहा हम टोंद वाले हैं, सुस्त हैं। हमारी कोई ड्यूटी का समय नहीं, न सोने का, न खाने का। कभी-कभी 24-48 घंटे बिना सोए, बिना खाए दंगे वाली जगह या वीआईपी सुरक्षा में खड़े रहना पड़ता है। धूप, बारिश, ठंड—तनाव और भागदौड़ में शरीर कब जवाब दे जाए, पता नहीं चलता।”
वह एक पल के लिए रुके, जेब से मुड़ी तस्वीर निकाली—परिवार की तस्वीर। “यह मेरा परिवार है, मैं इनसे बहुत प्यार करता हूं। लेकिन मैं अपनी वर्दी से ज्यादा प्यार करता हूं। क्योंकि यह वर्दी मुझे तुम जैसे लाखों परिवारों की हिफाजत करने की जिम्मेदारी देती है। हां, हमारे बीच कुछ काली भेड़े हैं, मैं मानता हूं। लेकिन उनकी वजह से तुम हजारों-लाखों ईमानदार और जानबाज पुलिस वालों की कुर्बानी को मजाक में नहीं उड़ा सकते। जो रोज अपनी जान हथेली पर रखकर सिर्फ इसलिए घर से निकलते हैं ताकि तुम लोग सुरक्षित रह सको।”
इंस्पेक्टर अमर सिंह की बात खत्म हुई तो बस में सन्नाटा छा गया। रोहन और समीर की आंखें शर्म और पछतावे से भर आईं, सिर झुक गए। आज उन्हें अपनी सोच, अपने शब्दों, अपनी नासमझी पर बेइंतहा शर्मिंदगी हो रही थी। उन्होंने आज तक सिक्के का सिर्फ एक पहलू देखा था, आज इस मामूली से दिखने वाले लेकिन असाधारण इंसान ने उन्हें दूसरा दर्दनाक और गौरवपूर्ण पहलू दिखाया।
रोहन ने कांपते हाथों से इंस्पेक्टर अमर सिंह का हाथ पकड़ लिया—“सर, हमें माफ कर दीजिए, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। हम अंधे थे, कभी इस तरह से सोचा ही नहीं।” समीर भी रोते हुए बोला—“हां सर, आज के बाद कभी किसी पुलिस वाले का अपमान नहीं करेंगे। आपने हमारी आंखें खोल दीं।”
इंस्पेक्टर अमर सिंह ने उनके सिर पर हाथ फेरा—“माफी मुझसे नहीं, अपने जमीर से मांगो बेटा। अगर सच में गलती का एहसास है तो आज के बाद जब भी किसी पुलिस वाले को देखना, नफरत से नहीं, इज्जत से देखना। हो सके तो मुस्कुरा कर सिर्फ एक बार ‘थैंक यू’ कह देना, हमारे लिए वही सबसे बड़ा इनाम है।”
ढाबा आ गया था, बस रुकी। इंस्पेक्टर अमर सिंह ने कहा, “चलो, अब तुम लोगों ने जो कहा था, वह करते हैं। मैं तुम दोनों को अपनी तरफ से चाय पिलाता हूं।” वे तीनों बस से उतरे, लेकिन आज रोहन और समीर एक पुलिस वाले के साथ नहीं, बल्कि एक पिता, एक गुरु, एक हीरो के साथ चल रहे थे।
उस दिन के बाद रोहन और समीर की जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई। उन्होंने सिर्फ पुलिस के बारे में ही नहीं, बल्कि जिंदगी के हर पहलू को एक नए, संवेदनशील नजरिए से देखना शुरू किया। रोहन ने पढ़ाई पूरी की और पत्रकार बन गया, समाज और पुलिस के बीच की खाई को पाटने का काम करता है, पुलिस की अच्छी कहानियां और अमर सिंह जैसे गुमनाम नायकों के बलिदान को दुनिया के सामने लाता है। समीर ने अपना मकसद बदल दिया, सिविल सर्विस की परीक्षा दी और आज वह खुद भारतीय पुलिस सेवा का युवा, ईमानदार अफसर है। वह अक्सर अपने नए रंगरूटों को बस के उस सफर की कहानी सुनाता है और इंस्पेक्टर अमर सिंह की सीख देता है—वर्दी का रंग खाकी जरूर है, लेकिन उसका धर्म हमेशा इंसानियत ही रहना चाहिए।
सीख:
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें किसी भी पेशे या समूह के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर राय नहीं बनानी चाहिए। हर वर्दी के पीछे एक इंसान, एक परिवार, एक बलिदान छिपा होता है। हमारे पुलिस के जवान समाज के गुमनाम रक्षक हैं, जो अपनी खुशियां हमारी सुरक्षा के लिए कुर्बान कर देते हैं।
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