लड़की आत्महत्या करने जा रही थी… लेकिन एक अनजान हाथ ने उसकी किस्मत बदल दी
पूरी कहानी: एक नई शुरुआत
शाम का समय था, लेकिन आसमान में पहले से ही अंधेरा छा चुका था। हल्की बारिश की बूंदें शहर की रफ्तार को धीमा कर रही थीं और उन्हीं बूंदों के बीच एक लड़की खड़ी थी—अकेली, खामोश और टूटी हुई। वह पुल पर थी। नदी के ऊपर बने उस पुराने लोहे के पुल की रेलिंग पर उसका हाथ कांपते हुए टिका था। बाल भीगे हुए थे। आंखों से आंसू और बारिश साथ बह रहे थे। उसका चेहरा साफ नहीं दिख रहा था, लेकिन उसकी हालत साफ बता रही थी कि यह लड़की जिंदगी से थक चुकी है। किसी ने उसे रोका नहीं। लोग अपनी-अपनी जिंदगी में भाग रहे थे। किसी ने ध्यान नहीं दिया या देना नहीं चाहा।
लेकिन उसी वक्त एक लड़का उधर से गुजर रहा था। गीली जैकेट पहने, कंधे पर एक बैग, हाथ में एक प्लास्टिक बैग जिसमें शायद कुछ खाना था। उसने लड़की को देखा। रुक गया। कुछ था उसके चेहरे पर, कुछ ऐसा कि वह आगे बढ़ा और जैसे ही लड़की ने आंखें बंद करके एक कदम आगे बढ़ाया, उसने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया।
“रुको!” उसकी आवाज में घबराहट नहीं थी, बस गहराई थी।
लड़की ने चौंककर पीछे देखा और गुस्से में चीख पड़ी, “तुम कौन होते हो? मुझे क्यों रोका? छोड़ो मुझे!”
वह घुटनों पर गिर गई, जमीन पर बैठकर फूट-फूट कर रोने लगी। लड़का कुछ नहीं बोला, बस चुपचाप उसके पास बैठ गया। ना उसने नाम पूछा, ना वजह, ना समझाया, ना सवाल किया। वह बस बैठा रहा, चुपचाप।
कुछ देर बाद लड़की की सिसकियां धीमी हुईं। “तुम जाओ, मुझे अकेला छोड़ दो,” उसने कहा।
लड़के ने बैग से एक पानी की बोतल निकाली और उसकी तरफ बढ़ा दी, “पियो।” बस इतना कहा।
लड़की ने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद बोतल ले ली, चुपचाप पानी पीती रही। उसके हाथ अब भी कांप रहे थे।
“क्या तुम्हें भूख लगी है?” लड़के ने पूछा।
लड़की ने कुछ नहीं कहा।
वह उठा, पास के फुटपाथ की दुकान से समोसे और बिस्किट ले आया। वापस आकर उसने पत्ते पर खाना रखा और धीरे से बोला, “थोड़ा सा खा लो। फिर जो करना हो कर लेना।”
उसकी आवाज में ना दया थी, ना जरूरत से ज्यादा नरमी, बस एक स्थिरता थी, एक सच्चाई।
लड़की ने उसकी तरफ देखा, पहली बार ध्यान से। वो कोई अमीर नहीं लग रहा था, ना कोई सेल्समैन, ना कोई साधु। बस एक आम लड़का, लेकिन कुछ खास था उसकी आंखों में। धीरे-धीरे लड़की ने खाना उठाया। आधी रात तक दोनों वहीं बैठे रहे। नदी का शोर, सड़क की लाइट्स और दोनों की खामोशी जैसे सब मिलकर कोई अनकहा संवाद बना रहे थे।
फिर लड़की ने अचानक पूछा, “तुम क्यों रुके थे?”
लड़का थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “क्योंकि सालों पहले मैं भी यहीं था, ठीक इसी जगह।”
लड़की की आंखें हैरानी से खुलीं। “तुम?”
“हां,” उसने कहा, “लेकिन उस दिन किसी ने मेरा हाथ पकड़ लिया था, जैसे आज मैंने तुम्हारा।”
वह फिर चुप हो गया।
लड़की को यकीन नहीं हुआ, लेकिन उसके चेहरे पर कोई बनावटीपन नहीं था।
“तो फिर क्या हुआ?” उसने पूछा।
लड़का मुस्कुराया, “वो कहानी फिर कभी सुनाऊंगा। अभी चलो, कहीं चले जहां गर्मी हो और सुकून।”
लड़की कुछ सोचने लगी, फिर सिर हिलाकर खड़ी हो गई। पुल के उस किनारे से उन्होंने साथ चलना शुरू किया।
लड़की अब एक छोटे से कमरे में बैठी थी। लकड़ी की पुरानी मेज, हल्की पीली रोशनी और एक शांत माहौल, जहां पहली बार उसे खुद को सुनने की जगह मिली थी। उसके सामने वही लड़का बैठा था, अब चाय बनाते हुए।
“नाम क्या है तुम्हारा?” लड़के ने पूछा बिना उसकी तरफ देखे।
लड़की थोड़ी देर चुप रही, फिर धीमे से बोली, “आराध्या।”
“अच्छा नाम है,” लड़का मुस्कुराया, “मेरा नाम कबीर है।”
एक खामोश पल।
“तुम्हें लग रहा होगा मैं पागल हूं,” आराध्या बोली, उसकी आवाज भारी थी।
“नहीं,” कबीर ने चाय बढ़ाते हुए कहा, “मुझे लग रहा है तुम थकी हुई हो।”
आराध्या की आंखें फिर से भर आईं। थोड़ी देर तक बस सन्नाटा रहा। फिर धीरे-धीरे जैसे किसी ने उसकी आत्मा का ताला खोल दिया हो, वो बोलने लगी।
“मैं पढ़ाई में अच्छी थी। घर वालों की उम्मीद थी मुझसे। कॉलेज में टॉप किया। फिर एमबीए किया। सब अच्छा चल रहा था।”
कबीर ने हल्के से पूछा, “फिर?”
“प्यार हुआ…” उसकी आंखों में अंधेरा उतर आया, “मुझे लगा वही मेरा सब कुछ है। हमने शादी की प्लानिंग की थी। मैं अपने करियर को छोड़ने तक को तैयार थी, बस उसके लिए।”
कबीर का लहजा अब भी शांत था, “लेकिन?”
“उसने धोखा दिया…” आराध्या की आंखों से आंसू टपकने लगे, “मेरी सबसे अच्छी दोस्त के साथ, मेरे ही सामने।”
कबीर चुपचाप सुनता रहा।
“और जब मैंने सब तोड़ने की कोशिश की, उसने सब मुझ पर ही मढ़ दिया। ऑफिस में मेरी छवि खराब की। लोग मुझसे कटने लगे।”
“घरवाले?” कबीर ने पूछा।
“पापा को हार्ट अटैक आ गया था पिछले साल। मम्मी अब खुद कमजोर हो गई हैं। मैं कुछ बताती तो वो और टूट जातीं।”
“तो तुम अकेली लड़ती रही?” उसने धीरे से पूछा।
आराध्या ने सिर हिलाया, “और जब लड़ते-लड़ते थक गई तो लगा शायद यही रास्ता बचा है।”
कबीर ने उसकी तरफ देखा, उसके चेहरे पर ना दया थी, ना आश्चर्य, बस समझ।
“कभी-कभी जब कोई हमें तोड़ता है, तो वह हमारे बाहर को नहीं, अंदर को तोड़ता है,” उसने कहा।
आराध्या ने हैरानी से उसकी तरफ देखा, “तुम कैसे इतना सब समझते हो?”
कबीर थोड़ी देर चुप रहा, फिर धीरे से बोला, “क्योंकि मैंने भी यही सब महसूस किया है और शायद उसी दर्द ने मुझे बदल दिया।”
“तुम क्या करते हो?” उसने पूछा।
कबीर मुस्कुराया, “अभी के लिए लोगों को उनके टूटे हिस्सों से जोड़ने की कोशिश करता हूं।”
“तुम काउंसलर हो?”
“हां, लेकिन जो डिग्री से नहीं, दर्द से सीखा है।”
आराध्या की आंखों में पहली बार उम्मीद की एक हल्की सी रेखा चमकी।
“तुमने मुझे क्यों बचाया, कबीर?”
“क्योंकि जब मुझे बचाया गया था, तो उस शख्स ने मुझसे एक वादा लिया था। अब तुम्हारी बारी है किसी को बचाने की।”
कमरे में एक अजीब सी खामोशी छा गई। लेकिन अब वो भारी नहीं थी, वो सुकून वाली खामोशी थी। आराध्या ने धीरे-धीरे चाय का कप उठाया और पहली बार मुस्कुराई। इस मुस्कान में जान थी। फिर से जीने की शुरुआत थी।
वक्त बीता…
अब आराध्या हर दिन कबीर से मिलती थी। कभी दोनों पार्क में टहलते, कभी चुपचाप चाय की दुकान पर बैठते। कोई भारी-भरकम बातें नहीं होतीं, बस छोटी-छोटी बातें, जैसे जिंदगी दोबारा सीखने की कोशिश कर रही हो।
एक दिन कबीर उसे एक पुरानी इमारत के पास ले गया। दरवाजे पर एक बोर्ड लटका था—
सेकंड स्टेप फाउंडेशन: जिंदगी की एक और शुरुआत।
आराध्या हैरान रह गई। “यह क्या है?”
कबीर ने धीमे से जवाब दिया, “यही वह जगह है जहां मैं अब अपना वक्त बिताता हूं। यहां वो लोग आते हैं जो जिंदगी से हार चुके होते हैं और उन्हें बस एक दूसरा कदम चाहिए होता है।”
अंदर का दृश्य देखकर आराध्या स्तब्ध रह गई। कमरे में अलग-अलग उम्र के लोग बैठे थे—कुछ खामोश, कुछ मुस्कुराते हुए। दीवारों पर हाथों से बनी तस्वीरें टंगी थीं—पुल, हाथ पकड़ते हुए, उगते सूरज।
“क्या यह सब आत्महत्या की कगार पर थे?”
“कुछ थे, कुछ अब दूसरों को बचा रहे हैं,” कबीर ने कहा।
तभी एक वृद्ध महिला ने आकर आराध्या से हाथ मिलाया, “मैं मीरा हूं। यहां आने से पहले मैं खुद को खत्म करने वाली थी। अब मैं लोगों को कविता सुनाकर जीना सिखाती हूं।”
आराध्या की आंखें भर आईं। उसी शाम जब सब चले गए, कबीर और आराध्या अकेले बैठे थे।
कबीर ने पहली बार अपना पूरा सच बताया—
“5 साल पहले मैं भी उसी पुल पर खड़ा था, उसी जगह पर जहां तुम खड़ी थी। मुझे लग रहा था कि मेरी जिंदगी खत्म हो गई है।”
“क्यों?” आराध्या ने धीरे से पूछा।
“मां की मौत ने मुझे तोड़ दिया था। मैं अकेला पड़ गया था। करियर तबाह, रिश्ते टूट चुके थे। और फिर उस रात मैं खड़ा था उस पुल पर।”
“फिर क्या हुआ?”
“एक आदमी आया, उम्र में मुझसे बड़ा। उसने कुछ नहीं कहा, बस मेरे पास बैठ गया। मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोला, ‘अगर आज तुम कूद गए, तो तुम्हें कभी यह पता नहीं चलेगा कि कल कितना सुंदर हो सकता था।’”
आराध्या की आंखों में आंसू थे।
“मैं नहीं कूदा। अगले दिन उसी आदमी ने मुझे मनोचिकित्सा में दाखिला दिलवाया। वो मेरा गुरु बना और उसने मुझसे एक वादा लिया—जब कभी तुम किसी और को उसी पुल पर देखो तो रुक जाना।”
आराध्या चुप थी, उसके होठ कांप रहे थे। उसने बस इतना कहा, “इसका मतलब उस दिन तुम वहां इसलिए थे?”
कबीर ने सिर हिलाया, “मैं रोज उस पुल से गुजरता हूं। देखता हूं कोई और मेरी जैसी हालत में तो नहीं। और जब तुम्हें वहां देखा तो समझ गया—यह संयोग नहीं था, यह तुम्हारा वादा था।”
“अब तुम्हारा भी है,” कबीर मुस्कुराया।
उसी रात आराध्या ने फैसला किया। वह वापस नहीं जाएगी उस पुराने डर, उस पुराने दर्द की तरफ। वह यहीं रहेगी, सीखेगी और अब दूसरों को जीना सिखाएगी।
छह महीने बाद…
सेकंड स्टेप फाउंडेशन अब सिर्फ एक संस्था नहीं, एक आंदोलन बन चुका था।
आराध्या अब एक प्रशिक्षित काउंसलर थी—मजबूत, आत्मविश्वासी और सबसे अहम, जीवित।
वह अब उन लोगों से मिलती थी जो वही दर्द लेकर आते थे जिससे वह खुद गुजर चुकी थी।
कबीर उसके साथ हर कदम पर था—अब एक मेंटर नहीं, एक साथी, जो जानता था कि दर्द को कैसे उम्मीद में बदला जाए।
एक शाम ऑफिस के बाहर बोर्ड लगाया गया—
न्यू काउंसलर: मिस आराध्या वर्मा।
वो बोर्ड देखकर कबीर ने कहा, “अब तुम किसी की शुरुआत बनोगी।”
आराध्या मुस्कुराई। उसकी मुस्कान में वह ताकत थी जो किसी को जिंदा रखने के लिए काफी होती है।
अंतिम दृश्य
वही पुराना पुल, बारिश की हल्की बूंदें गिर रही थीं। शाम का अंधेरा धीरे-धीरे फैल रहा था।
एक लड़की, शायद 17 साल की, पुल के किनारे खड़ी थी। बाल बिखरे हुए, आंखों में डर, होंठ सिले हुए। वही भावनाएं, वही डर जो आराध्या ने उस रात महसूस किया था।
लेकिन इस बार कोई और उसे देखने आया।
आराध्या धीरे-धीरे उस लड़की के पास गई। कुछ नहीं कहा, बस उसके बगल में खड़ी हो गई। फिर बहुत धीरे से उसका हाथ थामा।
लड़की कांपी, “क्यों? क्यों आई हो?” लड़की ने डरी हुई आवाज में पूछा।
आराध्या ने बस इतना कहा, “क्योंकि मैं जानती हूं, यह पुल मौत की नहीं, नई जिंदगी की शुरुआत भी हो सकता है।”
लड़की फूट-फूट कर रो पड़ी।
आराध्या ने उसे गले से लगाया। वही एहसास, जो कभी कबीर ने उसे दिया था। ना कोई सवाल, ना कोई सलाह। बस एक मानवीय स्पर्श।
यही होती है असली जीत। यही होती है नई शुरुआत।
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