लावारिस बच्ची की माँ की तरह रात दिन सेवा करती थी नर्स ,6 महीने बाद उसका पिता उसे अपनाने पहुंचा फिर
कहानी: दो मांओं की ममता और एक बेटी का उजाला
क्या होता है जब एक मां के आंचल की छांव समाज के डर की धूप में झुलस जाती है? क्या होता है जब एक नन्ही सी जान जिसे दुनिया में लाने वाले ही उसे लावारिस छोड़ दें? किस्मत उसका हाथ थामने के लिए किसे भेजती है? यह कहानी एक ऐसी मजबूर मां की है जिसने अपनी ही कोख से जन्मी बेटी को परिवार के खौफ से अस्पताल में मरने के लिए छोड़ दिया। और एक ऐसी नर्स की है जिसके लिए उसकी ड्यूटी सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि इंसानियत का सबसे बड़ा धर्म थी।
हरियाणा का एक बड़ा समृद्ध गांव, जहां आधुनिकता के बावजूद सोच सदियों पुरानी थी। बेटा पैदा हो तो खुशियां, बेटी हो तो मातम। ऐसे ही गांव के सबसे बड़े और इज्जतदार परिवार चौधरी हरपाल सिंह का परिवार था। हरपाल सिंह रूढ़िवादी सोच के इंसान थे। उनके दो बेटे थे—विक्रम और सूरज। विक्रम की शादी को पांच साल हो गए थे और उसके दो बेटे थे। सूरज अपने भाई और पिता से अलग था, नरम दिल और पढ़ा-लिखा। उसने परिवार की मर्जी के खिलाफ पूजा से प्रेम विवाह किया। पूजा सुंदर, संस्कारी और प्यारी लड़की थी, लेकिन सास राजेश्वरी देवी ने उसे कभी दिल से स्वीकार नहीं किया।
शादी के एक साल बाद सूरज को दुबई में नौकरी मिल गई। वह अपनी गर्भवती पत्नी पूजा को छोड़कर विदेश चला गया। पूजा की मुश्किलें बढ़ गईं। सास ताने देती, “छोटे बेटे का पहला बच्चा तो लड़का ही होना चाहिए। अगर लड़की हुई तो इस घर में उसके लिए कोई जगह नहीं।” पूजा डर के साए में जी रही थी। वह रोज भगवान से बेटे की मन्नत मांगती थी, ताकि उसे और उसकी संतान को इस घर में इज्जत से जीने का हक मिल सके।
आखिरकार वह दिन आ गया। पूजा को प्रसव पीड़ा शुरू हुई और उसे शहर के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। ऑपरेशन थिएटर के बाहर राजेश्वरी देवी का चेहरा सख्त था। कुछ घंटों बाद नर्स बाहर आई, “मुबारक हो, बेटी हुई है।” यह सुनकर राजेश्वरी देवी के चेहरे पर नफरत और घृणा आ गई। “बेटी मनहूस! इसने हमारे खानदान का नाम डुबो दिया।” वह अंदर गई, पूजा बेहोश थी। बगल में पालने में नन्ही सी परी सो रही थी। राजेश्वरी देवी ने नर्स को नोटों की गड्डी थमाई, “यह बच्ची आज ही मर जानी चाहिए। किसी को पता नहीं चलना चाहिए। सबको बता दो कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ था।”
नर्स सिस्टर ग्रेस अनुभवी और संवेदनशील थी। “नहीं मैडम, यह पाप मैं नहीं कर सकती। यह जिंदा जान है।” राजेश्वरी देवी बोली, “अगर यह जिंदा रही, तो इसकी मां जिंदा नहीं रहेगी। मैं इसे घर में कदम नहीं रखने दूंगी और बहू को भी निकाल दूंगी। अब फैसला तुम्हारे हाथ में है।” वह बाहर चली गई। पूजा को होश आया, उसने अपनी बेटी के बारे में पूछा। नर्स ने सारी बातें बता दी। पूजा का दिल फट गया। लेकिन डर के आगे उसकी ममता हार गई। उसने नर्स से कहा, “मेरी सास जो कह रही है वही कर दो। सबको बता दो कि मेरी बेटी मर गई है।” उसने एक बार भी पलटकर अपनी बेटी का चेहरा नहीं देखा, डर से कि उसकी ममता उसके फैसले को कमजोर न कर दे।
गांव में खबर फैला दी गई कि बहू ने मरी हुई लड़की को जन्म दिया है। सूरज को भी यही झूठी खबर दी गई। वह टूट गया। पूरा परिवार झूठे मातम में डूब गया, जबकि उनकी खुशी अस्पताल के ठंडे पालने में लावारिस पड़ी थी।
अस्पताल के पीडियाट्रिक वार्ड में सिस्टर ग्रेस काम करती थी। अविवाहित, 35 साल की महिला, जिसने अपनी जिंदगी बच्चों की सेवा में लगा दी थी। जब पूजा की बच्ची को लावारिस घोषित कर अनाथालय भेजने की तैयारी हुई, सिस्टर ग्रेस की नजर उस पर पड़ी। उसने बच्ची को गोद में उठाया, बच्ची ने उसकी उंगली पकड़ ली। उसी पल सिस्टर ग्रेस ने फैसला कर लिया—वह इस बच्ची को अपनी देखभाल में रखेगी। उसने सुपरिटेंडेंट से अनुमति ली। ग्रेस ने उसका नाम “एंजेल” रखा। वह अपनी तनख्वाह से एंजेल के लिए दूध, कपड़े, खिलौने लाती। रात-रात भर जागकर उसे सुलाती। एंजेल सिर्फ ग्रेस को पहचानती थी।
महीने गुजर गए—छह महीने बाद एंजेल अब हंसती-खेलती बच्ची बन चुकी थी। अस्पताल प्रशासन ने कई बार ग्रेस से कहा कि अब बच्ची को अनाथालय भेजना चाहिए, लेकिन वह हर बार रोक लेती। ग्रेस उसे कानूनी तौर पर गोद लेने का मन बना चुकी थी।
उधर, दुबई में सूरज अपनी बेटी को खोने के गम से उबर नहीं पा रहा था। पूजा भी अंदर से टूट चुकी थी। छह महीने बाद सूरज अचानक छुट्टी लेकर घर लौटा। पूजा उसे देखकर घबरा गई। सूरज ने पूछा, “पूजा, क्या बात है?” पूजा का सब्र टूट गया। वह सूरज के पैरों में गिरकर रोने लगी, “मुझे माफ कर दीजिए, मैंने आपके साथ बहुत बड़ा धोखा किया है।” सूरज हैरान, “क्या मतलब?” पूजा ने सारी सच्चाई बता दी। सूरज को अपनी मां और परिवार की सोच पर गुस्सा आया, लेकिन सबसे ज्यादा फिक्र अपनी बेटी की थी—कहां होगी, किस हाल में होगी?
रात के अंधेरे में सूरज और पूजा अस्पताल पहुंचे। उन्होंने नर्स से छह महीने पहले पैदा हुई लावारिस बच्ची के बारे में पूछा। नर्स ने सिस्टर ग्रेस के बारे में बताया। वे पीडियाट्रिक वार्ड पहुंचे। वहां सिस्टर ग्रेस कुर्सी पर बैठी थी, उसकी गोद में एंजेल सो रही थी। सूरज ने पहली बार अपनी बेटी का चेहरा देखा, उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा। सिस्टर ग्रेस की आंख खुली, “जी आप लोग कौन?” सूरज बोला, “मैं इस बच्ची का पिता हूं।” सिस्टर ग्रेस हैरान। सूरज ने पूरी कहानी बता दी। सिस्टर ग्रेस चुपचाप सुनती रही, उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन सुकून भी था कि बच्ची को उसका असली हकदार मिल गया।
ग्रेस ने भारी मन से एंजेल को सूरज की गोद में दे दिया। छह महीने में पहली बार एंजेल अपने पिता की गोद में थी। वह रोई नहीं, बल्कि सूरज की उंगली पकड़कर खेलने लगी। सूरज और पूजा अपनी बेटी को सीने से लगाकर रोते रहे। सूरज ने सिस्टर ग्रेस का हाथ पकड़ लिया, “मैं आपका शुक्रिया कैसे अदा करूं? आपने मेरी बेटी को नई जिंदगी दी, जो सगी मां भी नहीं कर सकी। बताइए, मैं आपकी सेवा के लिए क्या कीमत दूं?” सिस्टर ग्रेस ने हाथ जोड़कर कहा, “साहब, मैंने कोई सेवा नहीं की। मैंने सिर्फ एक मां का फर्ज निभाया है। एंजेल सिर्फ आपकी नहीं, मेरी भी बेटी है। इसकी मुस्कान ही मेरे लिए सबसे बड़ा इनाम है।”
सूरज ने कहा, “आपकी ममता का कोई मोल नहीं है। लेकिन मैं आपके लिए कुछ करना चाहता हूं।” अगले दिन उसने अस्पताल के सुपरिटेंडेंट से मुलाकात की, अस्पताल को बड़ा दान दिया और शर्त रखी कि पीडियाट्रिक वार्ड को सिस्टर ग्रेस के नाम पर बनाया जाए। फिर वह ग्रेस के पास गया, एक राखी उसकी तरफ बढ़ाई, “सिस्टर, मेरी कोई बहन नहीं है। आज से आप मेरी बहन हैं और इस बच्ची की मौसी। क्या आप मुझे अपना भाई बनाएंगी?” सिस्टर ग्रेस की आंखों से आंसू छलक पड़े। उसने कांपते हाथों से राखी सूरज की कलाई पर बांध दी। आज उसे वह परिवार मिल गया जिसका वह सपना देखती थी।
सूरज अपनी बेटी को लेकर घर पहुंचा तो भूचाल आ गया। हरपाल सिंह और राजेश्वरी देवी अपनी मरी हुई पोती को जिंदा देखकर हैरान रह गए। राजेश्वरी देवी चिल्लाई, “यह मनहूस लड़की कहां से आ गई?” लेकिन सूरज अब चुप रहने वाला नहीं था। उसने कहा, “यह मेरी बेटी है, इस घर की वारिस है और यहीं रहेगी। अगर इसके लिए जगह नहीं है तो मेरे और मेरी पत्नी के लिए भी कोई जगह नहीं।” पहली बार सूरज ने अपने पिता और मां के सामने इतनी ऊंची आवाज में बात की थी। हरपाल सिंह ने बेटे की आंखों में आत्मविश्वास देखा, उनका दिल भी पोती को देखकर पिघल गया। उन्होंने कहा, “यह घर जितना तुम्हारा है, उतना ही तुम्हारी बेटी का भी है। आज से यह हमारी पोती है।”
उस दिन के बाद घर का माहौल बदलने लगा। सूरज ने अपनी बेटी का नाम “दिया” रखा, और वह सचमुच उस घर के लिए दिए की तरह साबित हुई। घर की किस्मत बदल गई, सूरज का प्रमोशन हो गया, विक्रम का कारोबार चल पड़ा, घर में खुशियां लौट आईं। राजेश्वरी देवी अब दिया के बिना एक पल नहीं रहती थी। उसकी खिलखिलाहट पत्थर दिल को मोम की तरह पिघला देती थी। अब वह मान गई थी कि बेटियां बोझ नहीं, घर की लक्ष्मी होती हैं।
सिस्टर ग्रेस अब परिवार का अहम हिस्सा थी। वह दिया की मौसी थी। हर तीज-त्यौहार पर वह घर आती थी। सूरज और पूजा ने सुनिश्चित किया कि दिया हमेशा यह जाने कि उसकी दो मां हैं—एक जिसने उसे जन्म दिया, दूसरी जिसने उसे जिंदगी दी।
सीख:
यह कहानी हमें सिखाती है कि बेटी और बेटे में फर्क करने वाली सोच समाज के लिए अभिशाप है। बेटियां वरदान हैं, जो घर में खुशियां और समृद्धि लेकर आती हैं। यह कहानी सिस्टर ग्रेस जैसी गुमनाम नायिकाओं को सलाम करती है, जो बिना किसी रिश्ते के इंसानियत का फर्ज निभाती हैं, जो कभी-कभी अपने भी नहीं निभा पाते।
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