लावारिस बूढी अम्मा की सेवा करती थी नर्स 2 महीने के बाद उसका अरबपति बेटा उसे ढूंढते हुए पहुंचा फिर

कहानी: इंसानियत का इनाम – नर्स कविता और लावारिस अम्मा की सच्ची गाथा

प्रस्तावना क्या इस मतलबी, दौलती दुनिया में इंसानियत का कोई मोल है? क्या कोई साधारण लड़की किसी अनजान, लावारिस के लिए अपना चैन, अपनी नींद, अपनी जेब कुर्बान कर सकता है… बिना किसी उम्मीद या रिश्ता? और क्या कभी-कभी यह निस्वार्थ सेवा किसी की दुनिया बदल सकती है?

कविता – दिल्ली के सरकारी अस्पताल की नर्स

दिल्ली – सपनों का शहर, टूटे अरमानों की कब्रगाह। शहर के भीड़-भाड़ वाले हिस्से में एक विशाल सरकारी अस्पताल था, जहां हर कोने में दवा की तेज गंध, कराहते-झुंझलाते मरीज, तेज-तर्रार डॉक्टर और थकी-हारी नर्सें भागती रहती थीं। इन्हीं में से एक थी कविता – 28 साल की, राजस्थान के छोटे गांव से आई मजबूत और संस्कारी लड़की। उसकी जिंदगी का एक ही सपना था– अपने छोटे परिवार को खुश देखना, अपने भाई को पढ़ाना… और माँ-बाप के लिए फक्र का कारण बनना।

कविता के लिए सफेद वर्दी सिर्फ तनख्वाह का जरिया नहीं, बल्कि सेवा, अपनापन, और इंसानियत का फर्ज था। जब बाकी लोग वार्ड में लावारिस मरीजों को बोझ समझ उनकी उपेक्षा करते, कविता हर ऐसे मरीज को दिल से अपनाती।

अम्मा – अस्पताल के कोने में बेसुध

सर्द रात, पुलिस की गाड़ी एक बूढ़ी औरत को पार्क के बेंच से उठाकर लाई – कोई पहचान नहीं, कोई परिजन नहीं, शरीर पस्त, दिमाग बेहोश। डॉक्टरों ने कहा – “सीवियर ब्रेन हैमरेज, गहरा कोमा, उम्मीद बेहद कम”। वार्ड के सबसे कोने वाले बेड नंबर 24 पर डाल दिया गया, जहां बाकी नर्सें भूल जातीं कि वहां कोई है भी।

कविता ने उस झुर्रीदार चेहरे में अपनी मां को देखा – और उसी दिन से “बेड नंबर 24” उसके लिए बन गया “अम्मा”। ड्यूटी के बाद घंटों वहीं बैठना, रोज गर्म पानी से सफाई, ताजे कपड़े, शरीर पर धीरे-धीरे सूप की एक-एक बूंद, अपनी तनख्वाह से नया गर्म कंबल, फूल… सारी सेवा कविता बिना किसी चक्कर, उम्मीद, दया या जरूरतमंद की पुकार के करती रही। दूसरों के तानों पर वह मुस्कुरा देती, “किसी का नहीं है, तभी तो हम हैं।”

दो महीने की निस्वार्थ सेवा

कोमा में भी कविता अम्मा से बातें करती – गांव के किस्से, अपने भाई की शरारतें, घर की यादें, माँ की दुआएं, हनुमान चालीसा की पाठ। अगले महीने में अम्मा के शरीर पर केवल सांसे बाकी थीं। अब अस्पताल में कोई उम्मीद नहीं थी, पर कविता अपनी मुस्कान, अपना अपनापन, और सेवा बरकरार रखी रही। कुछ लोग उसे लावारिसों की ‘माँ’ कहकर मजाक उड़ाते, पर उसके लिए यह सेवा थी, सबसे बड़ा धर्म।

लंदन – एक बेटा अपनी मां की तलाश में

दूसरी ओर, दुनिया के जिस हिस्से में दौलत बिखरी थी, वहां मेहरा ग्रुप का युवा अरबपति मालिक राजीव मेहरा दिन-रात अपनी मां शांति देवी की तलाश में भटक रहा था। दो महीने से माँ के गायब होने के बाद चैन की जगह चिंता, गुस्से की जगह ग्लानि थी। दो महीने, करोड़ों की टीम, मीडिया-अखबार, पुलिस, सब कोशिशें नाकाम – आखिर एक सुराग मिला कि एक लावारिस वृद्धा पार्क के पास मिली थी, जिसे अस्पताल लाया गया।

मुलाकात – सेवा और दौलत आमने-सामने

राजीव भागता हुआ सरकारी अस्पताल पहुंचा, माँ की फोटो दिखाता-भागता जनरल वार्ड तक गया। दीवार पर लगे “बेड नंबर 24” के सामने वह थम गया – मशीनों, नलियों से घिरी शांति देवी बेहद कमज़ोर, अचेतन अवस्था में – पास में एक साधारण सी नर्स बड़े प्यार से उनका सिर सहला रही थी। वह कविता थी – यानी वही इंसान जिसके निस्वार्थ सेवाभाव से अम्मा अब भी जीवित थी।

राजीव फूट-फूटकर रो पड़ा – “आपने मेरी माँ की सगी बेटी से बढ़ कर सेवा की… मैं आपका ये कर्ज़ कभी नहीं चुका सकता।” उसने कविता को लाखों का चेक थमाना चाहा, कविता मुस्कुराकर बोली, “ये सब पैसों के लिए नहीं किया साहब। मेरे लिए अगर अम्मा ठीक हो जाएं, वही सब कुछ है।”

नयी जिंदगी – कविता का पुनर्जन्म

राजीव ने उसी वक्त शांति देवी के नाम पर एक सुपर स्पेशलिटी चैरिटेबल हॉस्पिटल बनवाने का वादा किया और कविता को उसकी मुख्य ट्रस्टी और डायरेक्टर नियुक्त किया। आगे की पढ़ाई व हॉस्पिटल मैनेजमेंट का जिम्मा भी मेहरा फाउंडेशन ने ले लिया। कुछ ही महीनों में शांति देवी ठीक हो गईं और मां-बेटे के बीच के सारे गिले-शिकवे मिट गए। शांति देवी ने कविता को बेटी की तरह गले लगाया – “जो मेरा अपना खून नहीं कर सका, वह तूने कर दिखाया।”

दो साल बाद, दिल्ली के बीचोंबीच “शांति देवी चैरिटेबल अस्पताल एंड रिसर्च सेंटर” बनकर तैयार था – और उसका नेतृत्व कविता शर्मा के हाथों में था। अब हर गरीब, हर अकेले, हर बेसहारा को यहां मुफ्त, इज्जत और प्रेम से इलाज मिल रहा था।

सीख

कविता की कहानी हमें सिखाती है कि निस्वार्थ भाव से की गई सेवा और इंसानियत की कभी न कभी, कहीं न कहीं, सबसे सुंदर इनाम मिल ही जाता है – ऊपरवाला कभी भी आपकी नेकी को बेकार नहीं जाने देता। इंसानियत ही असली धर्म है – दुनिया की सबसे बड़ी कमाई।

अगर कविता की यह कहानी आपको छू गई हो, तो इसे औरों तक फैलाएं – ताकि हम सबके दिल में इंसानियत की एक नन्ही-सी लौ हमेशा जलती रहे।