सरकारी अस्पताल में जब एक लावारिस मरीज तड़प रहा था , तभी देश के मशहूर सर्जन की नज़ारे पड़ी फिर …

शहर का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल

शहर का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल हमेशा लोगों से भरा रहता था। गलियारों में दवाओं की महक, स्ट्रेचर पर जाते मरीजों की कराह, और डॉक्टरों की भागदौड़ भरी जिंदगी का शोर हर वक्त गूंजता रहता था। इसी शोर के बीच जनरल वार्ड के एक कोने वाले बिस्तर पर 80 साल के एक बुजुर्ग लेटे थे। नाम था पंडित शंकर मिश्र। शरीर एकदम कमजोर, हड्डियों का ढांचा, आंखों में खालीपन और चेहरे पर लाचारी की लकीरें। नर्सें और वार्ड बॉय उन्हें यूनिट सात का ‘लावारिस बाबा’ कहकर बुलाते थे। कोई उनसे ज्यादा बात नहीं करता था, बस समय पर खाना और सस्ती दवाइयां देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते थे।

पंडित जी को कुछ याद नहीं रहता था सिवाय एक पुरानी धुन के। जब भी उन्हें दर्द होता या अकेलापन महसूस होता तो वह कांपते होठों से एक अनोखी धुन गुनगुनाने लगते। धुन में शास्त्रीय संगीत का स्पर्श था, पर वो किसी सुने हुए राग जैसी नहीं लगती थी। वार्ड बॉय हंसते, “देखो बाबा फिर से अपना पुराना टेप रिकॉर्डर चालू कर दिया।”

एक नई हलचल

उसी दिन अस्पताल में एक बड़ी हलचल थी। देश के सबसे नामी हार्ट सर्जन डॉ. रोहन वर्मा एक चैरिटी इवेंट के मुख्य अतिथि बनकर आए थे। डॉक्टर रोहन, जिनका नाम मेडिकल की दुनिया में सूरज की तरह चमकता था, जिनकी फीस लाखों में थी और जिनके हाथों में जादू था। इवेंट के बाद अस्पताल के डीन ने उनसे जनरल वार्ड का एक चक्कर लगाने का अनुरोध किया ताकि अस्पताल की छवि अच्छी बन सके।

डॉक्टर रोहन महंगे सूट में अपने आसपास डॉक्टरों और मीडिया की भीड़ के साथ वार्ड में दाखिल हुए। डीन उन्हें अस्पताल की उपलब्धियां बता रहे थे। “सर, हमने यहां गरीबों के लिए बहुत अच्छी व्यवस्था की है।”

तभी डॉक्टर रोहन के कानों में एक धीमी कांपती हुई धुन पड़ी। वह रुक गए। भीड़ भी रुक गई। “यह आवाज कहां से आ रही है?” उन्होंने पूछा।

डीन ने असहज होकर कहा, “सर, वो कोने में एक लावारिस मरीज है। थोड़ा मानसिक रूप से कमजोर है। बस कुछ भी गुनगुनाता रहता है। आप इधर चलिए।”

लेकिन डॉक्टर रोहन की नजरें उस कोने में टिक चुकी थी। वो धुन, वो अधूरी सी पर दिल में उतर जाने वाली धुन। उन्होंने अपनी जिंदगी में यह धुन सिर्फ एक ही इंसान से सुनी थी। उन्होंने भीड़ को अनदेखा किया और धीरे-धीरे उस बिस्तर की ओर बढ़ने लगे।

बिस्तर पर एक कमजोर सा बूढ़ा लेटा था। आंखें बंद थी और होठ एक भूली-बिसरी याद की तरह हिल रहे थे। डॉक्टर रोहन करीब पहुंचे। धुन अब और साफ थी। उनकी आंखों में हैरानी और एक अजीब सी नमी तैरने लगी। उन्होंने बहुत धीरे से पूछा, “बाबा, आपका नाम क्या है?”

बुजुर्ग ने धीरे से आंखें खोली। उनकी धुंधली नजरें डॉक्टर रोहन के महंगे सूट और चमकते जूतों पर टिकी। “शंकर… शंकर मिश्र,” उन्होंने टूटी हुई आवाज में कहा।

डॉक्टर रोहन का दिल जोरों से धड़कने लगा। उन्होंने फिर पूछा, “यह धुन… यह धुन आप कहां से जानते हैं?”

पंडित जी के चेहरे पर पहली बार एक हल्की सी चमक आई। “यह तो मैंने अपने सबसे प्यारे शिष्य के लिए बनाई थी। मेरा रूहू बड़ा नटखट था, पर संगीत में उसकी आत्मा बसती थी। कहता था, गुरुजी मेरे लिए एक ऐसी धुन बनाओ जो दुनिया में किसी के पास ना हो।”

डॉक्टर रोहन की आंखों से आंसू बह निकले। ‘रूहू’ यह नाम उन्हें उनकी मां के अलावा सिर्फ एक ही इंसान ने दिया था। उनके गुरु पंडित शंकर मिश्र, जिन्होंने बचपन में उन्हें संगीत सिखाया था। वही गुरु जिन्होंने उन्हें सिखाया था कि उंगलियों की साधना और मन की एकाग्रता से किसी भी मुश्किल काम को साधा जा सकता है।

डॉक्टर रोहन हमेशा कहते थे कि उनकी सर्जरी का हुनर संगीत की उसी साधना की देन है।

“गुरु जी…” डॉक्टर रोहन की आवाज कांप गई। वो घुटनों के बल उसी गंदे फर्श पर बैठ गए। “गुरुजी, मैं रोहन… आपका रोहू हूं।”

पंडित शंकर मिश्र की आंखें फैल गई। उन्होंने ध्यान से उस मशहूर डॉक्टर के चेहरे को देखा। वो चेहरा, वो आंखें और वो आवाज। समय जैसे 20 साल पीछे चला गया।

“रोहू… तू… तू मेरा रोहू है?” उनकी आवाज में भरोसा और आश्चर्य का मिलाजुला भाव था।

“हां गुरु जी, मैं ही हूं।” डॉक्टर रोहन ने उनके झुर्रियों भरे हाथ अपने हाथों में ले लिए और माथे से लगा लिया।

“मुझे तो बताया गया था कि आप शहर छोड़कर गए और फिर कभी नहीं लौटे। किसी ने कहा कि आप नहीं रहे।”

अस्पताल का पूरा स्टाफ, डीन और मीडिया सब सन्न रह गए। जो बुजुर्ग उन्हें एक लावारिस बोझ लग रहा था, वो देश के सबसे बड़े सर्जन का गुरु निकला। वार्ड बॉय जो उन पर हंसते थे, अब शर्म से नजरें झुकाए खड़े थे।

गुरु का दर्द

पंडित जी ने धीरे-धीरे बताया, “मैं तुम्हारी मां के देहांत के बाद अकेला पड़ गया था। बेटा, मेरे अपने बच्चों ने मुझे घर से निकाल दिया। मैं काम की तलाश में भटकता रहा पर उम्र ने साथ नहीं दिया। फिर एक दिन चक्कर खाकर गिर पड़ा और किसी ने यहां भर्ती करा दिया।”

डॉक्टर रोहन की आंखों में आंसू और गुस्सा दोनों थे। उन्होंने तुरंत अपने असिस्टेंट को फोन किया। “शहर के सबसे अच्छे प्राइवेट अस्पताल के प्रेसिडेंशियल स्वीट को तैयार करो। मेरे गुरुजी अब वहां रहेंगे।”

डीन आगे बढ़कर बोले, “सर, हम इनका पूरा ध्यान रखेंगे।”

डॉक्टर रोहन ने ठंडी नजरों से उन्हें देखा। “जब यह लावारिस थे तब आपका ध्यान कहां था? जो इंसान अपने गुरु का सम्मान नहीं कर सकता, वो किसी का इलाज क्या करेगा?”

नई शुरुआत

अगले कुछ घंटों में सब कुछ बदल गया। पंडित शंकर मिश्र एक शानदार एंबुलेंस में डॉक्टर रोहन के साथ शहर के सबसे महंगे अस्पताल में थे। डॉक्टर रोहन ने खुद उनकी सारी जांचें करवाई। उन्होंने अपने सारे अपॉइंटमेंट रद्द कर दिए थे।

मीडिया में यह खबर आग की तरह फैल चुकी थी—मशहूर सर्जन को अस्पताल के लावारिस वार्ड में मिला अपना खोया हुआ गुरु।

एक हफ्ते बाद पंडित शंकर मिश्र डॉ. रोहन के आलीशान घर के बगीचे में बैठे थे। उनका स्वास्थ्य अब बेहतर था। चेहरे पर पुरानी चमक लौट आई थी। डॉ. रोहन उनके पैरों के पास बैठे थे।

“गुरु जी, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं? यह घर, यह दौलत सब आपकी ही देन है।” डॉक्टर रोहन ने कहा।

पंडित जी मुस्कुराए। “बेटा, गुरु को शिष्य की सफलता से बढ़कर और कोई गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए। तूने मुझे सम्मान देकर मेरा जीवन सफल कर दिया।”

“नहीं गुरु जी,” डॉक्टर रोहन ने कहा, “असली गुरु दक्षिणा तो अब मैं आपको दूंगा।”

सम्मान की नई परंपरा

अगले दिन डॉक्टर रोहन ने एक बड़ी प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। उन्होंने घोषणा की, “आज मैं ‘पंडित शंकर मिश्र हीलिंग आर्ट्स फाउंडेशन’ की शुरुआत कर रहा हूं। यह फाउंडेशन देश के सभी सरकारी अस्पतालों में बुजुर्ग और बेसहारा मरीजों के लिए संगीत और कला थेरेपी की व्यवस्था करेगा। क्योंकि दवाइयां सिर्फ शरीर का इलाज करती हैं, लेकिन सम्मान और कला आत्मा का इलाज करती है।”

उन्होंने आगे कहा, “हम अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जो हमारी नींव रखते हैं—हमारे मां-बाप, हमारे शिक्षक। मेरा मानना है कि हर अस्पताल में एक सम्मान वार्ड होना चाहिए, जहां ऐसे बुजुर्गों का इलाज सिर्फ एक जिम्मेदारी नहीं बल्कि सम्मान के साथ किया जाए।”

प्रेस कॉन्फ्रेंस में तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी।

धुन की विरासत

उस शाम जब सूरज ढल रहा था, डॉक्टर रोहन अपने घर के संगीत कक्ष में बैठे थे। उनके सामने उनके गुरु पंडित शंकर मिश्र बैठे थे और उनके बगल में डॉक्टर रोहन का आठ साल का बेटा बैठा था। पंडित जी उसे वही धुन सिखा रहे थे जो उन्होंने सालों पहले अपने रोहू के लिए बनाई थी। ज्ञान और सम्मान की वह परंपरा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जा रही थी।

डॉक्टर रोहन की आंखों में संतुष्टि के आंसू थे। आज उन्होंने सिर्फ अपने गुरु को नहीं पाया था बल्कि अपनी आत्मा को भी पा लिया था। उन्होंने साबित कर दिया था कि एक अच्छा बेटा या शिष्य बनने के लिए किसी चमत्कार की नहीं बल्कि एक नेक दिल और कृतज्ञता की जरूरत होती है।

अंतिम संदेश

आपकी जिंदगी का पंडित मिश्र कौन है? इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, आज ही अपने किसी शिक्षक, बुजुर्ग या माता-पिता को याद करें। एक फोन कॉल या एक मुलाकात ही आपकी सच्ची गुरु दक्षिणा हो सकती है। अफसोस से बेहतर सम्मान है और उसका सही समय सिर्फ आज है।

यह कहानी सिर्फ एक अस्पताल की नहीं, बल्कि हर उस रिश्ते की है जिसमें सम्मान, कृतज्ञता और प्रेम छुपा है।