सरकारी नौकरी के घमंड में पत्नी ने पति को, निकम्मा पति कहकर पार्टी में मजाक उड़ाई । फिर पति ने जो किय

रात के आठ बजे थे। जयपुर के एक बड़े होटल में सरकारी अफसरों की पार्टी चल रही थी। रंगीन लाइटें, तेज़ म्यूज़िक, हंसी-ठिठोली से भरा हॉल। सब कुछ शोर में डूबा था। लेकिन उसी हॉल के कोने में खड़ी थी काव्या मिश्रा। नीली साड़ी में सजी, आत्मविश्वास से भरा चेहरा, गर्व और आंखों में चमक। आज उसकी तरक्की हुई थी। वह अब जिला विकास अधिकारी बन चुकी थी। तालियों की गूंज उसके कानों में मिठास घोल रही थी। लेकिन उसी तालियों के पीछे एक चेहरा था – राजवीर, उसका पति। सादे कपड़ों में विनम्र और चुप, जो अब एक साल से बेरोजगार था।

लोग उसके पास आते, काव्या से बातें करते। “मैम आपकी तरक्की तो मिसाल है। आपके पति क्या करते हैं?”
काव्या ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “अभी कुछ नहीं करते। घर संभालते हैं।”
हंसी की लहर उठी, गिलास टकराए, तालियां गूंजी। लेकिन उसी पल राजवीर की नजरें झुक गईं। वो मुस्कुराने की कोशिश करता रहा, लेकिन भीतर कुछ टूट गया।
वो बस इतना सोच रहा था – जिस औरत की हर मंजिल तक मैं साथ चला, आज वही मुझे मजाक बना रही है।

थोड़ी देर बाद पार्टी में टोस्ट उठा, “काव्या जी इतने कम वक्त में इतनी ऊंचाई… आपके पति बहुत खुशकिस्मत हैं।”
भीड़ में किसी ने हंसकर कहा, “अब तो राजवीर जी घर जमाई बन गए होंगे।”
लोगों ने ठहाका लगाया। काव्या ने भी औपचारिक मुस्कान दे दी। पर वो मुस्कान राजवीर के सीने में तीर बनकर चुभी।
वो गिलास रखकर चुपचाप बाहर निकल गया। बाहर बारिश हो रही थी। सड़कें चमक रही थीं। लेकिन उसकी आंखें बुझी हुई थीं। हर बूंद उसके बालों से फिसल कर उसके दिल तक पहुंच रही थी – जहां सन्नाटा था, शर्म थी और एक सवाल – क्या मैं वाकई किसी के लायक नहीं रहा?

वह देर तक सड़क किनारे बेंच पर बैठा रहा, बारिश में भीगता, यादों में खोया।
उसे वह वक्त याद आया जब काव्या ने कहा था, “अगर मैं अफसर बनी तो सबसे पहले तुम्हारा शुक्रिया कहूंगी।”
आज वही काव्या दूसरों की हंसी का हिस्सा बन चुकी थी।

धीरे से उठा। आसमान की ओर देखा और कहा, “शायद अब वक्त आ गया है खुद को फिर से खोजने का।”
फिर वह भीगती सड़कों पर अकेला चलता चला गया। जहां पीछे छोड़ आया था वो घर और अपना टूट चुका गर्व।

सुबह की ठंडी हवा थी। राजवीर बस में बैठा था। खिड़की से बाहर बारिश की बूंदें शीशे पर फिसल रही थीं।
शहर पीछे छूट चुका था। लेकिन उसके भीतर अब भी तूफान बाकी था।
वह सोच रहा था – कभी जिसे अपनी दुनिया समझा, उसी ने आज मुझे सबसे छोटा महसूस कराया।

बस रुकती है, एक छोटे शहर भोपाल के पास।
राजवीर उतरता है। एक पुराना बाजार, चाय की खुशबू और दीवारों पर फीके पड़े बोर्ड।
उसे एक बोर्ड दिखता है – “अनिकेत कंप्यूटर सर्विसेस”।
उसका कॉलेज का पुराना दोस्त अनिकेत।
वो अंदर जाता है।
“भाई, तू यहां?”
अनिकेत हैरान – “अरे राजवीर, तू तो सरकारी अफसर बनने वाला था ना। यह हाल कैसे?”
राजवीर बस मुस्कुराया – “कभी-कभी इंसान ओहदा नहीं, खुद को ढूंढने निकलता है।”
अनिकेत ने बिना सवाल किए कहा, “चल, यही काम कर ले। दुकान छोटी है, पर दिल बड़ा है।”

उस दिन से राजवीर वही रहने लगा।
दिन में ग्राहकों के लैपटॉप और प्रिंटर ठीक करता।
रात को दुकान की मध्यम नीली लाइट में बैठकर कुछ नया सोचता।
उसके भीतर एक ही आग जल रही थी – अब किसी बेरोजगार को खुद से नफरत ना होने दूं।

वह धीरे-धीरे कोड लिखने लगा।
एक ऐसा ऐप बना रहा था जो बेरोजगार लोगों को छोटे-छोटे कामों से जोड़ेगा।
नाम रखा – “रोजगार सेतु”।
वो हंसता और कहता – “अब कोई और राजवीर किसी की हंसी का मजाक नहीं बनेगा।”

दिन बीतते गए।
रातें जाग-जाग कर बीतीं।
लोग उसे मामूली समझते, लेकिन अंदर से वह अपने सपनों की नींव रख रहा था।

एक रात अनिकेत ने पूछा – “भाई, इतना सब करने की जरूरत क्या है? दुनिया नहीं बदलने वाली।”
राजवीर ने शांत मुस्कान के साथ कहा – “मुझे दुनिया नहीं बदलनी, बस सोच बदलनी है।”

उधर जयपुर में काव्या की दुनिया बदल चुकी थी।
वह अफसर बन चुकी थी।
लोग उसके आगे-पीछे घूमते थे।
पर अब उसे उन तालियों की आवाज खाली लगती थी।
घर लौटती तो सन्नाटा उसका स्वागत करता।
हर सुबह आईने में खुद को देखती।
पर अब वह चमक सिर्फ चेहरे पर थी, दिल में नहीं।
वो अक्सर खिड़की से बाहर देखती।
बारिश की हर बूंद उसे राजवीर की याद दिलाती।
कई बार फोन उठाती, पर कॉल नहीं करती।
क्योंकि अहंकार अभी जिंदा था।
वो सोचती – अगर उसने मुझे छोड़ दिया, तो लौटे भी वही।
लेकिन रात की खामोशियों में जब अहंकार सो जाता, दिल हर बार वही बात कहता – “वह लौट आए।”

कई महीने बीत गए थे।
राजवीर की छोटी सी दुकान अब उम्मीद की जगह बन चुकी थी।
हर दिन नए चेहरे आते – कोई काम मांगने, कोई सीखने।
उसकी मेहनत अब आकार ले रही थी।
“रोजगार सेतु” नाम का ऐप तैयार हो चुका था।
एक क्लिक में बेरोजगार लोग काम से जुड़ने लगे।
कोई प्लंबर बना, कोई ड्राइवर, कोई ऑनलाइन फ्रीलांसर।
राजवीर के चेहरे पर वो सुकून था, जो जीत से नहीं, बदलाव से मिलता है।
उसने आसमान की ओर देखा – “भगवान, अब किसी को बेरोजगारी का मजाक ना बनना पड़े।”

एक शाम अनिकेत भागता हुआ आया – “भाई, तेरे ऐप से एक आदमी को काम मिला है। उसने कहा तो उसकी जिंदगी बदल गई।”
राजवीर ने बस आंखें बंद की और गहरी सांस ली।
वो मुस्कुराया – “शायद अब जिंदगी ने मुझे माफ कर दिया।”

उधर जयपुर में काव्या अब पहले जैसी नहीं रही थी।
वह अफसर थी, ओहदा बड़ा था।
लेकिन अंदर से वह खाली थी।
ऑफिस के लोग अब भी तारीफ करते, पर हर तारीफ उसके अंदर एक टीस छोड़ जाती।
वो रात में अकेले बैठती।
पुरानी फोटो निकालती – जिसमें राजवीर के साथ उसकी सच्ची मुस्कान थी।
अब वह मुस्कान बस तस्वीरों में रह गई थी।

एक दिन ऑफिस की मीटिंग के बीच टीवी स्क्रीन पर खबर चली –
“देश के युवाओं के लिए नई उम्मीद – रोजगार सेतु ऐप का लॉन्च।”
काव्या ने सिर उठाया।
स्क्रीन पर चेहरा दिखा – राजवीर मिश्रा।
वही राजवीर, वही शांत आंखें, वही विनम्र मुस्कान।
न्यूज़ एंकर बोल रही थी – “कभी बेरोजगारी का मजाक बने इस युवक ने आज लाखों युवाओं को काम दिलाया है। सरकार ने उसे युवा नवाचार सम्मान के लिए नामांकित किया है।”
काव्या के हाथ से फाइल गिर गई।
दिल की धड़कनें तेज हो गईं।
वो स्क्रीन के पास जाकर बस देखती रही।
राजवीर कह रहा था – “मैंने बेरोजगारी देखी है, अपमान झेला है। लेकिन अब चाहता हूं कोई और ऐसा दर्द ना सहे।”
उसकी आवाज में वह सच्चाई थी, जिसे सुनकर काव्या की आंखें भर आईं।
वह मीटिंग छोड़कर बाहर चली गई।
गाड़ी में बैठी और धीरे से बोली – “तुम जीत गए राजवीर, और मैं हार गई।”

घर पहुंची तो दीवारें भी जैसे सवाल पूछ रही थीं – किसके लिए यह अहंकार था?
वो सारा रुतबा, सारी शोहरत अब बोझ लगने लगी थी।
वह अब अफसर नहीं, बस एक औरत थी – जिसने अपनी सच्ची मोहब्बत को अपने अहंकार की भेंट चढ़ा दिया था।
उस रात वह देर तक रोती रही और खुद से कहा – “अगर किस्मत ने एक बार और मौका दिया, तो मैं इस बार सिर्फ प्यार नहीं, सम्मान दूंगी।”

कुछ हफ्तों बाद राजधानी में एक बड़ा कार्यक्रम था – युवा नवाचार सम्मान समारोह।
देश भर के इनोवेटर्स, मंत्री, पत्रकार सब मौजूद थे।
मंच पर नाम पुकारा गया – “श्री राजवीर मिश्रा, रोजगार सेतु के संस्थापक।”
तालियों से पूरा हॉल गूंज उठा।
राजवीर मंच की तरफ बढ़ा।
वही होटल, वही रोशनी, वही मंच – जहां कभी उसने अपमान झेला था।
बस इस बार तालियों की दिशा बदल चुकी थी।

राजवीर माइक पर पहुंचा, मुस्कुराया।
पर उसकी नजर दरवाजे पर टिक गई।
और तभी दरवाजे से एक जाना पहचाना चेहरा अंदर आया – काव्या मिश्रा।
नीली साड़ी वही थी।
चेहरा वही, पर आंखों में अब अहंकार नहीं, सिर्फ पछतावा और विनम्रता थी।
काव्या धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
पूरा हॉल शांत था।
वो मंच तक आई, झुकी और कहा – “मुझे माफ कर दो राजवीर। मैंने तुम्हें कभी छोटा समझा। पर आज जाना कि तुम सबसे बड़े इंसान हो।”
राजवीर कुछ सेकंड चुप रहा।
फिर माइक उठाया और कहा – “जो गिर कर भी उठे, वही इंसान कहलाता है। और जो अपनी गलती मान ले, वह सबसे बड़ा इंसान।”
उसने मुस्कुरा कर कहा – “मैंने तुम्हें माफ किया, काव्या। बहुत पहले।”
काव्या की आंखों से आंसू बह निकले।
उसने झुककर उसके पैर छुए।
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।
पर उस तालियों के शोर में दोनों के दिल की खामोशी सबसे गहरी थी।

कार्यक्रम खत्म हुआ।
भीड़ छट गई।
राजवीर और काव्या हॉल के बाहर खड़े थे।
काव्या बोली – “तुमने जीत नहीं पाई, राजवीर। तुमने खुद को पा लिया।”
राजवीर ने मुस्कुरा कर कहा – “और तुमने भी, बस थोड़ा देर से।”

कुछ महीनों बाद “रोजगार सेतु फाउंडेशन” बन गया।
राजवीर उसका संस्थापक था और काव्या उसकी मेंटर।
अब दोनों मिलकर बेरोजगार युवाओं को काम दिलाते थे।
काव्या अब लोगों से कहती – “पहले मैं सोचती थी कि इज्जत ओहदे से मिलती है। अब समझ आई, वो कर्म से मिलती है।”
लोग तालियां बजाते, राजवीर बस मुस्कुरा देता।
अब वो शांति पा चुका था।

एक शाम दोनों फाउंडेशन की छत पर खड़े थे।
नीचे शहर की लाइटें टिमटिमा रही थीं।
ऊपर आसमान में बादल थे।
हल्की बारिश होने लगी।
काव्या बोली – “कभी-कभी सोचती हूं, अगर वह रात ना होती तो शायद यह सुबह भी ना आती।”
राजवीर ने जवाब दिया – “हां, कभी-कभी टूटना जरूरी होता है। तभी इंसान खुद से मिल पाता है।”
बारिश की बूंदें उन पर गिर रही थीं।
पर अब वह ठंडी नहीं लग रही थी।
वह अब सुकून दे रही थी।
काव्या ने मुस्कुराकर कहा – “अब डर नहीं लगता। भीगने में भी सुकून मिलता है।”
राजवीर ने कहा – “क्योंकि अब दर्द नहीं, बरकत की बारिश हो रही है।”

समय बीता, रोजगार सेतु अब पूरे देश में फैल गया।
हर गांव, हर शहर में युवाओं की जिंदगी बदलने लगी।
राजवीर और काव्या की कहानी अब एक मिसाल बन चुकी थी।

एक टीवी इंटरव्यू में एंकर ने पूछा – “आप दोनों अब क्या हैं एक दूसरे के लिए?”
राजवीर मुस्कुराया – “पछतावा नहीं, प्रेरणा।”
काव्या ने जोड़ा – “और सबक, कि प्यार में जीत तभी होती है जब अहंकार हार जाए।”

स्टूडियो से बाहर आते हुए हल्की बारिश शुरू हो गई।
काव्या ने छतरी खोली।
राजवीर बोला – “इतनी बारिशें झेली हैं हमने, अब भीगने से डर लगता है?”
काव्या हंसी – “अब नहीं, राजवीर। अब तो भीगने में सुकून है।”
उसने छाता फेंक दिया।
दोनों बारिश में चलते रहे।
उसी सड़क पर, जहां कभी उनके रास्ते अलग हुए थे।
इस बार रास्ता वही था, लेकिन कदम एक साथ।

बारिश में मिट्टी की खुशबू थी और हवा में एक सुकून, जैसे ऊपर वाला कह रहा हो –
कहानी खत्म नहीं हुई, बस मुकम्मल हो गई है।

अंतिम सवाल:
क्या आपको लगता है कि किसी रिश्ते में माफ कर देना ही सबसे बड़ी जीत होती है? या कभी-कभी चुपचाप आगे बढ़ जाना ही सही रास्ता होता है?
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क्योंकि आपका जवाब किसी के दिल में नई शुरुआत की उम्मीद जगा सकता है।

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फिर मिलेंगे एक और दिल को छू लेने वाली सच्ची कहानी के साथ।

समाप्त।