सरदार ने फौजी से पैसे नहीं लिए, महीनों बाद सेना लौटी तो चमत्कार हुआ|
शीर्षक: शहीद मेजर जसप्रीत सिंह मेमोरियल होटल – एक सच्ची देशभक्ति की कहानी
पंजाब के हरेभरे खेतों के बीच, लुधियाना से अमृतसर जाने वाले नेशनल हाईवे पर एक छोटा सा अनजाना चायनाश्ता होटल था — पंजाबी तड़का चाय होटल। बांस और लकड़ी की टूटी-फूटी छत, पुरानी बेंचें, और एक कोने में धुएं से काली पड़ चुकी रसोई। लेकिन इस होटल की हवा में एक अनोखा अपनापन था और चाय-नाश्ते में घर जैसी मोहब्बत।
इस होटल का मालिक था 68 साल का सरदार हरदयाल सिंह। लंबी सफेद दाढ़ी, सिर पर केसरिया पगड़ी, और चेहरे पर जिंदगी के अनुभवों की गहरी लकीरें। उनकी आंखों में चमक थी, जो किसी सच्चे देशभक्त की निशानी थी।
हरदयाल सिंह की जिंदगी संघर्ष और स्वाभिमान की लंबी दास्तान थी। जवानी में वह फौज में भर्ती होना चाहते थे, लेकिन परिवार की जिम्मेदारियों ने उनके सपनों को बांध लिया। उनका सपना उनके बेटे कैप्टन जसप्रीत सिंह ने पूरा किया। जसप्रीत भारतीय सेना में मेजर थे, लेकिन पांच साल पहले कारगिल में एक आतंकी मुठभेड़ में शहीद हो गए। उस हादसे ने उनकी पत्नी को भी छीन लिया और पीछे छोड़ गए उनकी छह साल की बेटी सिमरन। अब हरदयाल सिंह का इस दुनिया में सिमरन के सिवा कोई नहीं था। सिमरन उनकी जिंदगी का उजाला थी, उनका हौसला थी और जीने का एकमात्र मकसद।
अब 13 साल की सिमरन पास के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। वह पढ़ाई में तेज थी और इंजीनियर बनना चाहती थी। हरदयाल अपनी पोती के सपनों को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत करते थे। होटल की कमाई से घर का खर्च चलता और सिमरन की पढ़ाई का बोझ उठता। लेकिन यह कमाई इतनी थी कि बस दो वक्त की रोटी और थोड़ी सी बचत हो पाती। सिमरन की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का खर्च एक पहाड़ सा था, जिसे देखकर हरदयाल की हिम्मत कई बार टूटने लगती। फिर भी वह अपनी पोती के सामने कभी चिंता जाहिर नहीं करते थे।
एक दोपहर की शुरुआत…
जुलाई की एक उमस भरी दोपहर थी। आसमान में बादल छाए थे और होटल पर सन्नाटा था। हरदयाल रसोई में चाय का मसाला तैयार कर रहे थे और सिमरन बाहर बेंच पर किताब खोलकर होमवर्क कर रही थी। तभी सड़क पर धूल उड़ाते हुए सेना के चार ट्रक और कुछ जीपें उनके होटल के सामने रुकीं। उनमें से करीब 30 फौजी उतरे। उनकी वर्दियां धूल से सनी थीं, चेहरों पर थकान थी, लेकिन आंखों में अनुशासन और दृढ़ता की चमक थी।
हरदयाल ने फौजियों को देखते ही अपने हाथ रोक दिए। उनके दिल में अपने शहीद बेटे की याद, फौजी वर्दी के लिए सम्मान और इन जवानों के लिए ममता का तूफान उमड़ पड़ा। वह रसोई से बाहर आए और बोले, “आओ पुत्तर जी आयो नो। बैठो थक गएगे।” उनकी आवाज में गहरा अपनापन था।
फौजियों का लीडर सूबेदार मेजर कुलविंदर सिंह ने कहा, “बाऊजी कुछ खानावाना मिलेगा? जवान भूखे हैं। लंबा सफर करके आए हैं और सरहद की ओर जा रहे हैं।” सरहद शब्द सुनते ही हरदयाल का सीना गर्व से फूल गया। “हां पुत्तर, क्यों नहीं? आज तो मेरे होटल की किस्मत जाग गई कि मेरे देश के रक्षक मेरे मेहमान बने हैं।”
अगले डेढ़ घंटे तक हरदयाल ने अपनी उम्र और थकान को भुलाकर एक जुनून के साथ काम किया। उन्होंने ताजी रोटियां सेंकी, आलू के पराठे बनाए, दाल में देसी घी का तड़का लगाया और प्याज-हरी मिर्च का सलाद काटा। सिमरन दौड़-दौड़ कर सबको पानी और चाय परोस रही थी। उसकी मासूम आंखों में फौजियों के लिए गहरा सम्मान झलक रहा था।
कई दिनों बाद फौजियों ने ऐसा घरेलू खाना और चाय का स्वाद चखा। वे सब तृप्त और खुश थे। खाना खाने के बाद सूबेदार कुलविंदर बिल चुकाने आए। “बाऊजी कितना हुआ?” हरदयाल ने हाथ जोड़ लिए, “नहीं पुत्तर, पैसे नहीं।” कुलविंदर ने हैरानी से पूछा, “क्यों बाऊजी, कोई कमी रह गई क्या?” हरदयाल की आवाज भर गई, “नहीं पुत्तर, कमी मेरे खाने में नहीं। मेरी किस्मत में थी जो तुमने आज पूरी कर दी। तुम इस देश की रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हो। बर्फीले पहाड़ों और तपते रेगिस्तान में तुम जागते हो, ताकि हम चैन से सो सके। और मैं एक बूढ़ा बाप तुम्हें एक वक्त का खाना खिलाकर पैसे लूं? यह मेरे लिए पाप होगा।”
कुलविंदर और बाकी जवान उनकी बात सुनकर निशब्द हो गए। बाऊजी हम आपकी भावनाओं की कद्र करते हैं पर नियम के खिलाफ है। हम मुफ्त में खाना नहीं खा सकते। हरदयाल ने दीवार पर लगी अपने बेटे की तस्वीर की ओर इशारा किया। “मेरा भी एक बेटा था, मेजर जसप्रीत सिंह। वह भी तुम्हारी तरह इस वर्दी में देश की सेवा करते हुए शहीद हो गया। जब वह छुट्टियों में आता था तो यही मेरे हाथ का बना पराठा और चाय पीता था। आज तुम सबको खाते देखकर मुझे लगा मेरा जसप्रीत लौट आया। तुम सब मेरे बेटे हो। और कोई बाप अपने बच्चों से खाने के पैसे नहीं लेता।”
यह सुनकर हर फौजी की आंखें नम हो गईं। कुलविंदर ने आगे बढ़कर हरदयाल को गले लगा लिया। “बाऊजी, आप सिर्फ एक होटल वाले नहीं, एक सच्चे देशभक्त और पिता हैं। देश को आप जैसे लोग चाहिए।”
जाते वक्त कुलविंदर ने अपनी जेब से एक छोटा सा आर्मी बैज निकाला और हरदयाल के हाथ में रख दिया। “बाऊजी, इसे रखिए। यह हमारी तरफ से आपके लिए सलामी है और वादा रहा जब भी इस रास्ते से गुजरेंगे, आपके हाथ का खाना और चाय जरूर लेंगे।”
फौजी चले गए लेकिन हरदयाल की आंखों में तृप्ति और शांति छोड़ गए। उस दिन उन्हें लगा कि उन्होंने जिंदगी की सबसे बड़ी कमाई कर ली।
मुसीबतें फिर आईं…
कुछ हफ्तों बाद मानसून आ गया। इस बारिश ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। हरदयाल का पुराना होटल इस बारिश को झेल नहीं पाया। टीन की छत में छेद हो गए। पानी टपकने लगा। रसोई का सामान, आटा, दाल, मसाले सीलन से खराब होने लगे। बेंचे भीग कर टूटने लगीं। ग्राहक कम हो गए और जो आते, टपकती छत देखकर लौट जाते। कमाई लगभग बंद हो गई। हरदयाल के पास कोई रास्ता ना बचा।
उन्होंने गांव के सूदखोर महाजन रमेश चंद से होटल के कागज गिरवी रखकर ₹50,000 का कर्ज लिया। रमेश चंद लालची और क्रूर था। उसकी नजर हाईवे की इस कीमती जमीन पर थी। कर्ज के पैसों से सिमरन की फीस तो भर गई लेकिन होटल की मरम्मत और घर का खर्च अभी बाकी था। हरदयाल ने त्रिपाल और बांध से छत ठीक करने की कोशिश की, लेकिन वह नाकाफी थी।
दो महीने बाद रमेश चंद पैसे मांगने लगा। वह रोज होटल पर आता और हरदयाल को अपमानित करता। “ए बुड्ढे, मेरे पैसे कब देगा? नहीं तो यह होटल खाली कर।” एक दिन उसने हद कर दी। अपने दो गुंडों के साथ आया और होटल का सामान सड़क पर फेंकने लगा। सिमरन डर से अपने दादा से लिपट गई। हरदयाल ने गिड़गिड़ाया, लेकिन रमेश चंद पर कोई असर ना हुआ। “10 दिन की मोहलत देता हूं। अगर ₹50,000 ब्याज समेत ना मिले तो 11वें दिन तू और तेरी पोती सड़क पर होंगे।”
हरदयाल पूरी तरह टूट चुके थे। ₹50,000 कहां से लाते? उनकी आंखों के सामने अंधेरा था। सिमरन का इंजीनियर बनने का सपना, उनके बेटे की आखिरी निशानी, यह होटल — सब कुछ खत्म होता दिख रहा था।
उस रात सालों बाद एक शहीद का पिता अपनी बेबसी पर फूट-फूट कर रोया। तभी सड़क पर कई गाड़ियों के हॉर्न बजे। सेना का एक बड़ा काफिला उनके होटल के सामने रुका। सबसे आगे की जीप से सूबेदार मेजर कुलविंदर सिंह उतरे। साथ में एक रबदार कर्नल, जिनके कंधों पर सितारे चमक रहे थे।
कुलविंदर ने हरदयाल के पैर छुए। “बाऊजी, हम वादा निभाने आए।” हरदयाल हैरान थे। तभी रमेश चंद अपने गुंडों के साथ आ धमका। “बुड्ढे, मोहलत खत्म। होटल खाली कर।” कुलविंदर ने कड़क आवाज में पूछा, “यह होटल तेरा कब से हुआ?” रमेश ने घूर कर देखा, “तू कौन? इस बुड्ढे ने मुझसे ₹50,000 का कर्ज लिया है। यह होटल मेरा है।”
कर्नल, जो अब तक चुप थे, आगे आए। उनकी आंखों की सख्ती देख रमेश कांप गया। “कितना कर्ज?” कर्नल ने पूछा। “₹50,000,” रमेश हकबकाया।
कर्नल ने एक जवान को इशारा किया। जवान एक ब्रीफ केस लाया जिसमें नोटों की गड्डियां थीं। कर्नल ने ₹50,000 निकाले और रमेश के सामने फेंक दिए। “ले, इनका कर्ज। और अब यहां से भाग वरना तेरे कर्ज की कानूनी जांच होगी।” रमेश पैसे उठाकर भाग निकला।
कर्नल ने हरदयाल की ओर मुस्कुराते हुए कहा, “बाऊजी, माफ करना, हमें थोड़ा देर हो गई। यह कर्ज नहीं, उस दिन के खाने का एहसान है, जो हम फौजी कभी नहीं रखते।”
उन्होंने कुलविंदर को इशारा किया। कुलविंदर ने एक फोल्डर लाकर कर्नल को दिया। “बाऊजी, उस दिन आपने 30 जवानों को खाना खिलाया था। आज हम 300 जवान लाए हैं। हम इस टूटे होटल में नहीं खाएंगे। हम इसे नया बनाएंगे। भारतीय सेना ने फैसला किया है कि यह होटल अब हमारा आधिकारिक विश्राम स्थल होगा। यहां से गुजरने वाला हर काफिला यही रुकेगा, यही खाना खाएगा। इसका ठेका आपका होगा और हर महीने निश्चित आमदनी मिलेगी।”
हरदयाल को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। कर्नल ने फोल्डर खोला जिसमें एक नई बिल्डिंग का नक्शा था। “और बाऊजी, इस होटल का नाम अब पंजाबी तड़का चाय होटल नहीं, बल्कि शहीद मेजर जसप्रीत सिंह मेमोरियल होटल होगा। यह आपके वीर बेटे को हमारी श्रद्धांजलि है।”
हरदयाल की आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा। वह जमीन पर बैठ गए। कर्नल सिमरन के पास गए और उसके सिर पर हाथ रखा। “बेटी, तुम इंजीनियर बनना चाहती हो ना? तुम्हारी पढ़ाई की जिम्मेदारी अब भारतीय सेना की है। तुम्हारा दाखिला दिल्ली के आर्मी इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में होगा। फीस, रहना, खाना — सब सेना देगी। तुम बस मन लगाकर पढ़ो और देश की सेवा करो।”
सिमरन और हरदयाल रो रहे थे। लेकिन यह आंसू खुशी और कृतज्ञता के थे।
नया जीवन, नई पहचान…
कुछ महीनों बाद उस पुराने होटल की जगह एक शानदार शहीद मेजर जसप्रीत सिंह मेमोरियल होटल खड़ा था। उद्घाटन के लिए सेना के बड़े अफसर आए। हरदयाल ने फीता काटा। होटल की दीवार पर जसप्रीत की तस्वीर थी, फूलों के हार से सजी। हरदयाल अब भी वहां काम करते थे, लेकिन अब एक सम्मानित उद्यमी के रूप में। उनकी आंखों में अब चिंता नहीं, गर्व और संतोष की चमक थी।
सिमरन दिल्ली में अपनी पढ़ाई शुरू कर चुकी थी। छुट्टियों में वह होटल पर अपने दादा का हाथ बंटाती। यह कहानी सिखाती है कि देशभक्ति और नेकी का कोई काम व्यर्थ नहीं जाता। हरदयाल ने बस कुछ भूखे फौजियों को खाना खिलाया था, लेकिन भारतीय सेना ने उन्हें और उनकी पोती को सम्मान और सुरक्षा का एक नया जीवन दिया।
यह साबित करता है कि भारतीय सेना न सिर्फ सरहदों की, बल्कि अपने देश के सच्चे देशभक्तों के सम्मान की भी रक्षा करती है।
समाप्त
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