स्कूल का चपरासी रोज़ भूखे छात्र को खिलाता था अपने टिफिन से खाना, जब छात्र का सच सामने आया तो होश उड़

“काका का टिफिन: इंसानियत की सबसे बड़ी शिक्षा”
क्या होता है जब एक इंसान की भूख उसके स्वाभिमान से बड़ी हो जाती है? क्या होता है जब इंसानियत किसी वर्दी या पद की मोहताज ना रहकर एक साधारण से टिफिन के डिब्बे में अपनी खुशबू बिखेर देती है?
यह कहानी एक ऐसे ही स्कूल के चपरासी की है, जिसके लिए उसकी ड्यूटी सिर्फ घंटी बजाना और फर्श साफ करना नहीं थी, बल्कि हर बच्चे के चेहरे को पढ़ना भी थी। और एक ऐसे होनहार छात्र की, जिसकी किताबों के पीछे एक दर्दनाक सच्चाई छिपी थी, जिसे वह दुनिया की नजरों से छिपाए हर रोज भूख की आग में चुपचाप जल रहा था।
जब उस चपरासी ने उस बच्चे के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाए बिना अपनी आधी रोटी में उसे हिस्सेदार बनाया, तो उसने सोचा भी नहीं था कि वह सिर्फ एक बच्चे का पेट नहीं, बल्कि एक ऐसे भविष्य का निर्माण कर रहा है जो एक दिन पूरी दुनिया के सामने उसकी गुमनाम नेकी को सलाम करेगा।
यह कहानी उस खामोश सेवा और उस चौंका देने वाले सच की है, जो यह साबित कर देगी कि दुनिया में सबसे बड़ा धर्म किसी भूखे को रोटी खिलाना ही है।
लखनऊ का सिटी मॉनटेसरी स्कूल
शहर के सबसे प्रतिष्ठित और महंगे स्कूलों में से एक। यहां शहर के बड़े अफसरों, उद्योगपतियों और नेताओं के बच्चे पढ़ते थे। ऊंची-ऊंची खूबसूरत इमारतें, हरे-भरे खेल के मैदान, एयर कंडीशन क्लासरूम… यह स्कूल बाहर से किसी जन्नत जैसा ही दिखता था।
इसी स्कूल में पिछले 30 सालों से एक शख्स और था, जो इस चमक-दमक का हिस्सा तो था, लेकिन उसकी दुनिया इन सबसे अलग थी।
वो थे राम प्रसाद जी।
स्कूल के सबसे पुराने और सबसे नेक दिल चपरासी। 60 साल की उम्र, चेहरे पर झुर्रियां, शरीर झुकने लगा था, लेकिन आंखों में आज भी एक अजीब सी चमक और होठों पर एक स्थाई पिता जैसी मुस्कान रहती थी।
राम प्रसाद जी के लिए यह स्कूल सिर्फ नौकरी नहीं, उनका घर, उनका परिवार था।
वह हर बच्चे को अपने पोते-पोती की तरह ही प्यार करते थे।
इसी स्कूल की 12वीं कक्षा का सबसे होनहार छात्र था रोहन।
17 साल का एक लड़का, जिसकी काबिलियत की मिसालें पूरे स्कूल में दी जाती थीं। हर विषय में अव्वल, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का विजेता, स्कूल की क्रिकेट टीम का कप्तान।
टीचर कहते थे, “यह लड़का एक दिन इस स्कूल का और देश का नाम रोशन करेगा।”
रोहन हमेशा साफ-सुथरी यूनिफार्म में आता, जूते चमकते रहते, चेहरे पर आत्मविश्वास झलकता।
हर कोई यही समझता कि वह किसी बहुत बड़े और सुखी परिवार का बेटा है।
लेकिन राम प्रसाद जी की अनुभवी आंखों ने उस चमकते चेहरे के पीछे छिपी गहरी उदासी और खामोश पीड़ा को पढ़ लिया था।
उन्होंने एक बात पर गौर किया, जो शायद स्कूल के किसी टीचर या छात्र ने नहीं देखी थी—
रोहन कभी भी लंच ब्रेक के दौरान कुछ नहीं खाता था।
जब सारे बच्चे अपनी-अपनी महंगी गाड़ियों से आए टिफिन खोलकर लजीज पकवानों का मजा ले रहे होते, रोहन चुपचाप अपनी क्लास में बैठा किसी किताब को पढ़ने का नाटक करता।
अगर कोई दोस्त पूछता, “रोहन, तू लंच क्यों नहीं करता?”
वह मुस्कुरा कर कह देता, “यार, आज सुबह ज्यादा नाश्ता कर लिया था। भूख नहीं है। या फिर मेरी मां आज टिफिन रखना भूल गई।”
यह रोज का सिलसिला था।
राम प्रसाद जी जो लंच ब्रेक के दौरान क्लासरूम के बाहर गलियारों में झाड़ू लगाते थे, रोज रोहन को इस तरह देखते और उनका दिल भर आता।
वह एक पिता थे, जानते थे कि इस उम्र में बच्चों को कितनी भूख लगती है।
वह समझ गए थे कि दाल में कुछ काला है—यह लड़का अपनी खुद्दारी के पीछे अपनी भूख को छुपा रहा है।
एक दिन लंच ब्रेक के दौरान राम प्रसाद जी ने देखा कि रोहन क्लास में अकेला बैठा था, अचानक चक्कर खाकर अपनी डेस्क पर गिर पड़ा।
राम प्रसाद जी सब छोड़कर दौड़ते हुए क्लास में पहुंचे।
“बेटा, क्या हुआ? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है क्या?”
“नहीं काका, बस थोड़ी कमजोरी लग रही है।”
“कमजोरी लगेगी ही ना? सुबह से कुछ खाया है?”
“चलो मेरे साथ, मैं अपने टिफिन से तुम्हें खाना खिलाता हूं।”
“नहीं काका, मुझे भूख नहीं है।”
रोहन ने लगभग चीखते हुए अपना हाथ छुड़ा लिया। उसकी आंखों में शर्मिंदगी और गहरा दर्द था।
जब लंच ब्रेक हुआ और रोहन अपनी आदत के मुताबिक क्लास में आकर बैठा, उसने अपनी डेस्क के अंदर वो टिफिन का डिब्बा देखा।
वो हैरान रह गया—यह किसका है?
उसने डिब्बा खोला—अंदर दो मोटी-मोटी घी लगी रोटियां, आलू की सूखी सब्जी और थोड़ा सा अचार था।
खाने की खुशबू ने उसकी कई दिनों की भूखी हथेलियों में तड़प सी पैदा कर दी।
उसने इधर-उधर देखा, क्लास में कोई नहीं था।
एक पल के लिए सोचा, यह किसी और का होगा।
लेकिन उसकी भूख उसके सारे तर्कों पर हावी हो गई।
उसने जल्दी-जल्दी छिपकर वो रोटियां खा लीं।
सालों बाद उसे ऐसा लगा जैसे उसने अमृत खाया हो।
खाना खाने के बाद उसने डिब्बे को वैसे ही बंद करके डेस्क के अंदर रख दिया।
जब छुट्टी हुई और वह जाने लगा तो देखा, डिब्बा वहां नहीं है।
अब यह सिलसिला रोज का हो गया।
रोज लंच ब्रेक से पहले एक गुमनाम टिफिन का डिब्बा उसकी डेस्क के अंदर पहुंच जाता और रोज रोहन चुपचाप उसे खा लेता।
वो कभी जान नहीं पाया कि यह टिफिन कौन रखता है।
उसे लगता, शायद कोई दोस्त है जो उसकी हालत जानता है, लेकिन सामने आकर उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहता।
उधर राम प्रसाद जी रोज अपने घर से दो लोगों का खाना बनवाकर लाते।
पत्नी जब भी पूछती, “अजी, आप इतना खाना क्यों ले जाने लगे हैं?”
वो हंसकर कह देते, “भगवान, अब बुढ़ापे में भूख ज्यादा लगने लगी है।”
वो अपनी आधी रोटियां उस गुमनाम बेटे को खिलाकर और दूर से देखकर एक ऐसा आत्मिक सुकून महसूस करते, जो शायद उन्हें किसी पूजा-पाठ में भी नहीं मिलता था।
इस गुमनाम अपनेपन का असर रोहन की सेहत और पढ़ाई पर साफ दिखने लगा।
उसके मुरझाए चेहरे पर रौनक आ गई थी, दिमाग और भी तेज चलने लगा था।
समय बीतता गया। 12वीं की बोर्ड परीक्षाएं आ गईं।
रोहन ने दिन-रात मेहनत की और जब नतीजा आया, उसने नया इतिहास रच दिया।
ना सिर्फ स्कूल में, बल्कि पूरे राज्य में टॉप किया था।
पूरे स्कूल में जश्न का माहौल था।
स्कूल के चेयरमैन ने एक बड़े सम्मान समारोह का आयोजन किया।
राज्य के शिक्षा मंत्री को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया।
तय हुआ कि रोहन को उसके माता-पिता के साथ मंच पर सम्मानित किया जाएगा और आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल की तरफ से बड़ी स्कॉलरशिप दी जाएगी।
समारोह का दिन आया।
स्कूल का बड़ा ऑडिटोरियम छात्रों, टीचर्स और शहर के गणमान्य लोगों से भरा था।
सब लोग बेसब्री से उस होनहार लड़के और उसके माता-पिता का इंतजार कर रहे थे।
रोहन समय पर आ गया था, आत्मविश्वास से भरा हुआ।
लेकिन उसके माता-पिता का कहीं कोई अता-पता नहीं था।
समय बीतता जा रहा था।
शिक्षा मंत्री जी भी आ चुके थे।
प्रिंसिपल साहब बार-बार पूछ रहे थे, “बेटा, तुम्हारे पेरेंट्स कहां रह गए?”
“सर, बस आते ही होंगे, रास्ते में होंगे।”
आखिरकार जब इंतजार की हद हो गई, प्रिंसिपल साहब को गुस्सा आ गया।
“यह क्या लापरवाही है रोहन? आज तुम्हारी जिंदगी का इतना बड़ा दिन है और तुम्हारे माता-पिता को इसकी कोई कदर ही नहीं है। कैसे लोग हैं?”
यह सुनना था कि रोहन का सब्र टूट गया।
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे।
कांपती आवाज में बोला, “सर, प्लीज मेरे माता-पिता को कुछ मत कहिए। वो नहीं आ सकते।”
“क्यों नहीं आ सकते?”
“क्योंकि सर, मेरे कोई माता-पिता नहीं हैं।”
यह सुनकर पूरे ऑडिटोरियम में सन्नाटा छा गया।
रोहन ने रोते-रोते अपनी कहानी सुनानी शुरू की—
“सर, मेरे पिता शहर के बहुत बड़े बिजनेसमैन थे। 2 साल पहले उन्हें बिजनेस में धोखा मिला और वह रातों-रात सड़क पर आ गए।
इस सदमे को वह बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्हें हार्ट अटैक आ गया।
उनके जाने के कुछ महीनों बाद मेरी मां भी चिंता और दुख में मुझे अकेला छोड़कर चली गई।
हमारे बंगले, गाड़ियां सब बिक गईं। मैं सड़क पर आ गया था।
मैं मर जाना चाहता था, लेकिन मुझे पिता की एक बात याद आई—
शिक्षा ही वह ताकत है जो तुम्हें किसी भी हालत से बाहर निकाल सकती है।
मैंने फैसला किया कि पढ़ाई पूरी करूंगा।
एक पुराने वफादार नौकर ने मुझे अपनी झुग्गी में जगह दी।
रात में ट्यूशन पढ़ाकर स्कूल की फीस और गुजारे का इंतजाम करता था, लेकिन कमाई इतनी नहीं थी कि पेट भर खाना खा सकूं।
कई-कई दिन भूखा रहता था।
स्कूल में चक्कर खाकर गिर जाता था।
लेकिन खुद्दारी की वजह से कभी किसी से कुछ कह नहीं पाया।”
यह सब सुनकर हर इंसान सन्न रह गया।
रोहन ने आगे कहा—
“मैं शायद आज जिंदा भी नहीं होता या पढ़ाई कब की छोड़ चुका होता अगर एक फरिश्ते ने आकर मेरा हाथ ना थामा होता।
एक ऐसा गुमनाम फरिश्ता, जो पिछले दो सालों से हर रोज बिना बताए मेरे लिए अपने घर से खाना लाता रहा।
मैं आज तक नहीं जान पाया कि वो कौन है।
लेकिन आज अपनी यह कामयाबी, यह स्कॉलरशिप अपने माता-पिता के बाद उसी गुमनाम इंसान को समर्पित करना चाहता हूं।”
वो फूट-फूट कर रोने लगा।
पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।
हर किसी की आंखें नम थीं।
प्रिंसिपल साहब ने रोते हुए रोहन को गले से लगा लिया, “बेटा, हमें माफ कर देना, हम तुम्हारी तकलीफ को समझ नहीं पाए।”
तभी ऑडिटोरियम के पिछले दरवाजे पर एक बूढ़ा सा चपरासी अपने हाथ में झाड़ू लिए चुपचाप खड़ा था।
उसकी बूढ़ी आंखों से भी आंसू बह रहे थे।
वो राम प्रसाद जी थे।
वो चुपचाप वहां से जाने के लिए मुड़े, लेकिन रोहन की तेज नजरों ने उन्हें देख लिया।
अचानक उसके दिमाग में बिजली सी कौंधी—वो टिफिन का डिब्बा, वो हमेशा स्टील का पुराना सा घर जैसा डिब्बा होता था, और काका भी तो हमेशा वैसा ही डिब्बा लाते हैं।
उसे सब समझते देर नहीं लगी।
वो चीखा, “काका, रुकिए!”
वह मंच से कूदकर हजारों लोगों की भीड़ को चीरता हुआ उस चपरासी की तरफ दौड़ा।
राम प्रसाद जी घबरा गए, लगा शायद रोहन अब सबके सामने उन्हें शर्मिंदा करेगा।
लेकिन रोहन ने जो किया, उसने वहां मौजूद हर इंसान को रुला दिया।
वो दौड़ कर गया और उस बूढ़े चपरासी के पैरों में गिर पड़ा—
“काका, तो वो आप थे। आप थे मेरे वो फरिश्ते।”
राम प्रसाद जी ने उसे उठाकर अपने सीने से लगा लिया।
उनकी आंखों से भी आंसुओं की झड़ी लग गई।
“अरे बेटा, मैंने कुछ नहीं किया। मैंने तो सिर्फ एक बाप का फर्ज निभाया था।”
उस दिन उस मंच पर शिक्षा मंत्री और स्कूल के चेयरमैन ने सिर्फ एक होनहार छात्र को ही नहीं, बल्कि उस महान गुमनाम गुरु को भी सम्मानित किया, जिसने इंसानियत की सबसे बड़ी शिक्षा दी थी।
उस दिन के बाद स्कूल ने राम प्रसाद जी को सिर्फ एक चपरासी नहीं, बल्कि एक संरक्षक का दर्जा दिया।
चेयरमैन साहब ने उन्हें जीवन भर की पेंशन और रहने के लिए एक घर भी दिया।
रोहन अपनी स्कॉलरशिप के पैसों से आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चला गया, लेकिन वह कभी भी अपने उस दूसरे पिता राम प्रसाद जी को नहीं भूला।
कुछ सालों बाद जब वह एक बड़ा और कामयाब इंजीनियर बनकर लौटा, तो सबसे पहला काम जो किया, वो यह था कि उसने अपने काका के नाम पर एक बहुत बड़ा चैरिटेबल ट्रस्ट शुरू किया।
वो ट्रस्ट आज हजारों गरीब और होनहार बच्चों को मुफ्त में शिक्षा और भोजन मुहैया कराता है।
दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी और करुणा किसी पद या हैसियत की मोहताज नहीं होती।
राम प्रसाद जी ने एक छोटा सा, खामोश सा कदम उठाया, लेकिन उस एक कदम ने एक जिंदगी को, एक भविष्य को बचा लिया।
हमें कभी भी किसी को उसकी बाहरी चमक-धमक से नहीं आंकना चाहिए।
हर मुस्कुराते हुए चेहरे के पीछे एक कहानी हो सकती है, एक संघर्ष हो सकता है।
“सबसे बड़ा धर्म है भूखे को रोटी देना।
और सबसे बड़ी इंसानियत है किसी की भूख को उसकी खुद्दारी के साथ बांटना।”
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