10 साल का अनाथ बच्चा एक करोड़पति की कार साफ करता था || उसे नहीं पता था कि आगे क्या होगा

आत्मा का रिश्ता

कहानी:

लखनऊ शहर के एक बड़े बंगले के बाहर हर सुबह एक मासूम बच्चा चुपचाप आकर एक करोड़पति की कार को साफ कर देता। उसकी उम्र मुश्किल से दस-ग्यारह साल थी, कपड़े मैले, चप्पलें घिसी हुई, लेकिन आंखों में अपनापन और चेहरे पर मासूमियत थी। लोग पूछते, “क्यों करता है ये सब?” बच्चा बस मुस्कुरा कर कहता, “मेरा मन करता है, साहब।”

कार के मालिक संजीव राठौर थे, एक मशहूर बिजनेसमैन। एक हादसे में उनका पूरा परिवार उनसे छिन गया था। बंगला बड़ा था, लेकिन दीवारें अब किसी की हंसी नहीं सुनती थीं। संजीव को शुरू में लगा शायद कोई सफाईकर्मी उनकी गाड़ी रोज साफ कर देता है। लेकिन दो हफ्ते तक हर सुबह चमचमाती गाड़ी देखकर उन्हें हैरानी हुई, कौन है जो बिना किसी उम्मीद के ये सब करता है?

एक सुबह संजीव ने देखा, एक दुबला पतला लड़का उनकी गाड़ी को पोछ रहा था। संजीव ने पूछा, “तुम मेरी गाड़ी रोज साफ करते हो?” बच्चा डर गया, लेकिन बोला, “जी साहब। कोई नहीं कहता, बस मन करता है। ये गाड़ी मेरे पापा की गाड़ी जैसी है।” उसकी आवाज में यादों का दर्द था। उसने बताया, “मेरे पापा एक अमीर आदमी की गाड़ी चलाते थे। ऐसी ही काली गाड़ी थी। जब घर लाते थे तो मैं और वो दोनों मिलकर उसे साफ करते थे। अब वो इस दुनिया में नहीं हैं, मां भी चली गईं। अब मैं अकेला हूं।”

संजीव का दिल पसीज गया। अपने बेटे की हंसी, पत्नी की आवाज, सब यादें ताजा हो गईं। उस रात संजीव सो नहीं पाए। सुबह उठकर वे फिर बाहर आए। बच्चा आया, संजीव ने मुस्कुरा कर कहा, “आजा बेटा, आज फिर से गाड़ी चमकानी है ना।” बच्चे की आंखें भर आईं। संजीव ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” “सागर,” उसने जवाब दिया। “कहां रहते हो?” “जहां जगह मिल जाती है, वहीं सो जाता हूं साहब।”

संजीव ने पूछा, “पढ़ाई करते हो?” सागर ने सिर झुका लिया, “अब नहीं, पेट भर जाए वही बहुत है।” संजीव को अपनी टूटी जिंदगी याद आ गई, फर्क इतना था कि उनके पास दौलत थी, सागर के पास सिर्फ अधूरी यादें।

संजीव ने कहा, “अगर मैं कहूं कि तुम यहीं मेरे साथ रहो, इसी घर में, स्कूल भी जाओ, पढ़ाई करो, और गाड़ी साफ करना तो तुमसे बेहतर कोई कर ही नहीं सकता?” सागर ने चौंक कर देखा, “साहब, आप मजाक तो नहीं कर रहे?” संजीव का गला भर आया, “नहीं बेटा, मैं तुम्हें अपने घर में रखूंगा, तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठाऊंगा, और तुम मेरे साथ रहोगे हमेशा।”

सागर के हाथ कांपने लगे, “क्या मैं यहां सच में रह सकता हूं साहब?” संजीव ने उसे गले से लगा लिया, “हां बेटा, आज से ये घर तुम्हारा है।” दोनों रो रहे थे—एक जिसने सब कुछ खोया था, दूसरा जिसने सब कुछ होने के बावजूद अपनों को खो दिया था।

संजीव ने सागर को नए कपड़े पहनाए, जो कभी उसके बेटे के लिए रखे थे। सागर ने पूछा, “क्या मैं आपको पापा कह सकता हूं?” संजीव की आंखों से आंसू बह निकले, “हां बेटा, आज से तू मेरा बेटा है।”

सागर को बंगले में एक कमरा दिया गया, जिसमें पहले संजीव के बच्चों के खिलौने और फोटो थे। अब वह दीवारें फिर से किसी की सांसों से भर गई थीं। सागर के लिए सब कुछ नया था—नया बिस्तर, नए कपड़े, नया टूथब्रश, चमचमाती प्लेट। वह डर रहा था, कहीं गलती से कुछ तोड़ दिया तो कोई डांट देगा। लेकिन संजीव हर कदम पर उसे भरोसा दे रहे थे, “बेटा, ये सब तेरा है। अब तुझे सिर्फ प्यार मिलेगा।”

सागर के लिए वो रात सबसे सुकून भरी थी। अगली सुबह संजीव ने उसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया। “यह मेरा बेटा है,” उन्होंने प्रिंसिपल से कहा। सागर की आंखों में चमक आ गई। अब उसका नया जीवन शुरू हो गया था—हर सुबह स्कूल जाना, शाम को घर लौटना, रात में संजीव के साथ खाना खाना।

कई महीनों बाद संजीव ने सागर को कानूनी तौर पर गोद लेने की प्रक्रिया शुरू की। कोर्ट में कहा, “मैं इस बच्चे को सिर्फ घर नहीं, नाम भी देना चाहता हूं।” अब वह सागर राठौर था। कोर्ट की मंजूरी मिलते ही सागर ने संजीव को गले लगाया। वह रिश्ता अब सिर्फ नाम का नहीं, आत्मा का था।

समय बीतता गया। सागर अब 18 साल का हो चुका था, पढ़ाई में अव्वल, संस्कारों में गहरा, और अपने पापा को भगवान मानता था। घर के नौकर भी उसे अब छोटे मालिक नहीं, संजीव साहब का बेटा कहते थे। एक दिन संजीव थोड़े बीमार हो गए। सागर ने चाय का कप पकड़ाया, “पापा, अगर आप मुझे नहीं अपनाते तो मैं शायद किसी ढाबे पर बर्तन साफ कर रहा होता, या किसी नाली में पड़ा होता। आपने मुझे नाम, घर और वह दिया जो शायद मेरे खुद के मां-बाप भी नहीं दे पाते।”

संजीव की आंखों में नमी थी, “बेटा, मैंने तुझे नहीं अपनाया, तू खुद ही मेरी जिंदगी में रोशनी बनकर आया था। मैं तो सिर्फ अंधेरे में तुझसे टकरा गया था।” सागर ने उनका हाथ थाम लिया, “पापा, आपने मुझे फिर से जीना सिखाया। अब मेरी बारी है, अब आप आराम कीजिए, मैं सब संभालूंगा।”

कुछ दिन बाद सागर ने पूरा बिजनेस संभाल लिया। अब वह करोड़ों की कंपनी का मालिक था। लोग हैरान होते, “जो बच्चा कभी टूटी चप्पलों में गाड़ी पोछता था, वह आज कंपनी का मालिक कैसे बन गया?” सागर मुस्कुरा कर कहता, “कभी-कभी जिन रिश्तों को खून नहीं जोड़ता, उन्हें तकदीर जोड़ देती है।”

संजीव अब सुकून में थे। सागर अब सिर्फ उनका बेटा ही नहीं, उनका घर बन चुका था। कभी जिस गाड़ी को सागर सिर्फ इसलिए साफ करता था कि वह उसे अपने पापा की याद दिलाती थी, आज वही गाड़ी उसके नए ऑफिस की पार्किंग में खड़ी रहती है। लेकिन अब वह उसे चलाता है।

वक्त ने एक टूटी हुई जिंदगी को फिर से जोड़ दिया था। इस बार टूटने का डर नहीं था, क्योंकि अब रिश्ता खून का नहीं आत्मा का था।

दोस्तों, कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है जहां अपने छूट जाते हैं और अनजान भी अपनों से बढ़कर बन जाते हैं। क्या रिश्ते खून से बनते हैं या वो अपनापन ही असली रिश्ता बन जाता है? अगर आप संजीव होते तो क्या करते?

जय हिंद।

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