10 साल बाद बेटे से मिलने जा रहे बुजुर्ग का प्लेन क्रैश हुआ…लेकिन बैग में जो मिला, उसने
अधूरी स्वेटर – एक पिता और बेटे की कहानी
सुबह का वक्त था। अहमदाबाद एयरपोर्ट पर रोज़ की तरह चहल-पहल थी। लोग अपनी-अपनी मंजिल की ओर भाग रहे थे, अनाउंसमेंट्स की आवाजें गूंज रही थीं, और टर्मिनल के कांच के पार रनवे पर हलचल थी। उसी भीड़ में एक बुजुर्ग आदमी, सादे कपड़े पहने, भूरे-सफेद बाल, हल्का चश्मा लगाए, हाथ में एक पुराना कपड़े का थैला लिए खड़ा था। उसका नाम था राम प्रसाद वर्मा, उम्र लगभग 92 साल। चेहरे पर गहरी झुर्रियां थीं, लेकिन उनमें भी मासूम सी चमक थी – जैसे कोई बच्चा पहली बार स्कूल जा रहा हो।
राम प्रसाद के हाथ में एक पुरानी चिट्ठी थी, जिसे वह बार-बार निकालकर पढ़ता, फिर तह लगाकर सीने से लगा लेता। उस चिट्ठी ने उसकी ज़िंदगी बदल दी थी। पिछले दस सालों में उसके बेटे आरव ने कोई फोन नहीं किया था, न कोई संदेश, न चिट्ठी। राम प्रसाद को बस इतना पता था कि आरव अमेरिका में सेटल हो गया है, शादी कर ली है, और शायद सब कुछ भूल गया है। लेकिन इस चिट्ठी ने उम्मीद जगा दी थी।
एयरपोर्ट स्टाफ:
“सर, आपकी फ्लाइट बोर्डिंग शुरू हो चुकी है। आइए इधर।”
राम प्रसाद मुस्कुराए, “हां बेटा, चलो। बहुत साल हो गए उससे मिले।”
वह धीरे-धीरे चलते हुए गेट की ओर बढ़े। उनकी चाल थोड़ी डगमग थी, लेकिन आंखों में चमक थी। सिक्योरिटी चेक में थोड़ा वक्त लगा क्योंकि उनके थैले में एक छोटा फ्रेम, एक पुरानी स्वेटर और कुछ लिफाफों में बंद कागज मिले।
“यह मेरा बेटा है,” उन्होंने तस्वीर दिखाते हुए कहा, “जब छोटा था तब की तस्वीर है। और यह स्वेटर मैंने उसके लिए खुद बुनी है। हर साल थोड़ा-थोड़ा।”
सिक्योरिटी वाला चुप हो गया। राम प्रसाद ने खिड़की वाली सीट मांगी – आसमान में उड़ती दुनिया को देखना चाहते थे। शायद कल्पना कर रहे थे कि अगले कुछ घंटों में अपने बेटे से गले मिलेंगे। हर कुछ मिनटों में वह चिट्ठी दोबारा पढ़ते और अपनी गोदी में रखी स्वेटर की तह ठीक करते।
फ्लाइट उड़ चली। राम प्रसाद की आंखों में चमक थी। थोड़ी देर बाद उन्होंने अपना पुराना बटुआ निकाला, जिसमें एक कागज था –
“अगर मैं भूल जाऊं तो बेटे का पता यह है। वह अब भी मेरा इंतजार करता है। मैं जानता हूं।”
उन्हें शायद एहसास नहीं था कि किस्मत क्या मोड़ लेने वाली है।
फ्लाइट का हादसा
कुछ घंटे बाद समाचार चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ थी –
फ्लाइट आई 817 अहमदाबाद से न्यूयॉर्क जा रही थी, अटलांटिक के पास क्रैश हो गई है।
243 शव बरामद, पहचान की प्रक्रिया जारी। एयरपोर्ट के बाहर रोते-बिलखते परिजन, मोबाइल फोन की घंटियां, भीतर भागते अधिकारी – हर तरफ अफरातफरी थी। रेस्क्यू टीमें हेलीकॉप्टर से उतर रही थीं। पानी में तैरते बैग्स और टूटा सामान, और बीच में बहती एक छोटी सी तस्वीर।
एक जवान सैनिक ने झुककर उसे उठाया – एक पुराने फोटो फ्रेम का हिस्सा, जिसका कान टूटा था। उस फोटो में एक बाप और बेटा थे। बेटे की उम्र सात-आठ साल रही होगी।
रेस्क्यू ऑफिसर:
“इसे अलग रखो, किसी पैसेंजर की पहचान में मदद कर सकता है।”
उस फोटो के पास एक गीला सा कागज पड़ा था – एक अधूरा खत।
“मुझे नहीं पता तू क्यों दूर हो गया बेटा, लेकिन मेरा प्यार कभी कम नहीं हुआ। हर जन्म में मैं तुझे ही बेटा चाहूंगा। तुम्हारा पापा।”
न्यूयॉर्क एयरपोर्ट – बेटे का इंतजार
न्यूयॉर्क एयरपोर्ट पर आरव वहीं खड़ा था – वही बेटा जिसके लिए राम प्रसाद ने दस साल इंतजार किया था। उसके चेहरे पर घबराहट थी, हाथ थरथरा रहे थे। उसने मोबाइल में फ्लाइट ट्रैकिंग ऐप पर देखा –
फ्लाइट लॉस्ट कांटेक्ट, अप्रोक्स दो घंटे पहले।
आरव का दिल धड़कना बंद हो चुका था। भारत से फोन आया –
“आरव जी, बहुत अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है, फ्लाइट आई 817 क्रैश हो गई है। हमें एक बुजुर्ग यात्री के बैग में आपका नाम और नंबर मिला है। क्या आप उनके बेटे हैं?”
आरव की सांसें टूट गईं, मोबाइल हाथ से गिर गया।
क्रैश साइट – बेटे का सामना
सरकारी सहयोग से प्राइवेट हेलीकॉप्टर में आरव क्रैश साइट पर पहुंचा। एक अफसर ने पास ले जाकर कुछ दिखाया –
“यह आपके पिता का सामान है।”
थैले में वही चिट्ठी थी, जो आरव ने सालों बाद लिखी थी – अब भीगी हुई, किनारों से फटी। स्वेटर उसमें लिपटी थी – अधूरी, लेकिन साफ पता चलता था कि हाथ से बुनी गई है, नीले-सफेद रंग की लाइनें, और उस पर सिली हुई छोटी पट्टी – मेरे बेटे के लिए, पापा की आखिरी मेहनत।
आरव वो स्वेटर सीने से लगाकर फूट-फूट कर रोने लगा।
“पापा, आप आ रहे थे और मैं आ रहा था आपको लेने। बस एक बार कह देते, मैं सब छोड़ देता। अब मैं क्या करूं पापा? अब तो आप नहीं हो।”
भीड़ शांत थी। कैमरे चुप थे। अधिकारियों की आंखों में नमी थी।
उस दिन कोई कुछ नहीं बोला। बस एक तस्वीर थी, एक खत था और एक बाप जो आखिरी सफर पर अकेला चला गया।
एक महीना बाद – लखनऊ की सर्दी
सर्दियों की शुरुआत थी। आरव एक छोटी सी गाड़ी में बैठकर उसी पुराने मोहल्ले में पहुंचा, जहां उसके पिता ने अंतिम साल गुजारे थे। उसके पास वही बैग था – पापा का आखिरी बैग। पुराने कमरे में टेबल पर फैला सामान, अधूरी नीली स्वेटर, टूटी तस्वीर, खत का गीला पन्ना अब फ्रेम में रखा, और पापा की वह घड़ी जो सालों से बंद पड़ी थी।
आरव ने स्वेटर उठाई – उस पर एक अधूरी कलाई थी। शायद पापा उसी दिन पूरी करने वाले थे, जिस दिन उनकी फ्लाइट थी।
आरव धीरे से बोला –
“अब मैं इसे पूरा करूंगा पापा, ताकि कम से कम यह अधूरी चीज तो पूरी हो जाए।”
वह सिलाई मशीन के पास बैठा, मां की पुरानी किताब से स्वेटर बुनना सीख रहा था। ऊन की गांठ खोलता, कांपते हाथों से बुनता। हर धागा, हर फंदा जैसे एक अधूरी बात कह रहा हो।
कभी-कभी माफी शब्दों से नहीं, बल्कि कामों से दी जाती है।
अधूरी स्वेटर पूरी – नई शुरुआत
दो हफ्ते बाद, एक चुपचाप दोपहर में आरव ने वह स्वेटर पूरी कर ली। वह उसी चारपाई पर बैठा, जिस पर पापा बैठते थे, और स्वेटर को सीने से लगाकर आंखें बंद कर लीं –
“यह अब भी तुम्हारी महक से भरी है। पापा…”
आरव ने YouTube पर एक वीडियो पोस्ट किया –
शीर्षक:
“अगर आप किसी के बेटे हैं तो यह वीडियो जरूर देखें।”
वीडियो में वही स्वेटर, वही खत, वही कहानी थी।
वीडियो वायरल हो गया। लाखों कमेंट्स –
“मैंने आज अपने पापा को गले लगाया।”
“मुझे यह वीडियो देखने के बाद रोना आ गया।”
“काश मैंने भी समय रहते अपने पिता से बात की होती।”
एक नई पहल – वापसी केंद्र
वापसी केंद्र, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और एयरपोर्ट पर बूढ़े माता-पिता के लिए सहायता केंद्र खुले। बोर्ड पर लिखा है –
“अगर कोई बुजुर्ग अकेले दिखे तो पूछिए, क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं?”
घाट के किनारे – अंतिम विदाई
घाट के किनारे आरव पापा की अस्थियां लेकर आया। गंगा किनारे खड़ा, शांत और गंभीर। उसने एक चिट्ठी जलाई – वही अधूरी चिट्ठी जो पापा ने भेजी थी।
आरव धीरे से बुदबुदाया –
“अब शायद मेरी माफी तुम्हें मिले पापा। अगली बार अगर जन्म हुआ तो मैं तुम्हारा बेटा नहीं, तुम्हारा दोस्त बनकर आऊंगा, ताकि तुम्हें कभी अकेला न लगे।”
कुछ रिश्ते कभी खत्म नहीं होते।
बस एक अधूरी स्वेटर की तरह, वह हमें सिखा जाते हैं कि प्यार, पछतावा और माफी – सब कुछ वक्त रहते जताना चाहिए।
सीख:
कभी-कभी जो बातें अधूरी रह जाती हैं, वे ही हमें सबसे बड़ी सीख दे जाती हैं।
अगर आपके माता-पिता आपके पास हैं, तो उन्हें गले लगाइए, उनसे बात कीजिए – क्योंकि वक्त लौटकर नहीं आता।
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