DM की मां को अस्पताल में गरीब समझकर वर्जित किया, जब सच पता चला तो क्या हुआ…

जिले की सबसे प्रभावशाली अधिकारी डीएम अनीता शर्मा की कहानी – इंसानियत और अन्याय की जंग

सुबह का समय था। हल्की ठंडक और धुंध में जिलाधिकारी अनीता शर्मा अपने दफ्तर में बैठी थी। कागजों का ढेर, फाइलों की चुप्पी और जिम्मेदारियों के बोझ में डूबी अनीता को क्या पता था कि आज का दिन उनकी जिंदगी का सबसे कठिन इम्तिहान लेकर आने वाला है।

उनकी मां, जिनकी उम्र सत्तर पार कर चुकी थी, रोज की तरह सब्जी लेने के लिए बाजार निकली थीं। उम्र का असर अब शरीर पर दिखने लगा था। हर कदम धीमा, हर सांस भारी। बाजार की भीड़ में अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई। दिल का दौरा पड़ा और वह गर्म धूप में जमीन पर गिर पड़ीं। शरीर बेजान सा हो गया। आधा घंटा बीत गया, लोग आते-जाते रहे, ठेले वाले सामान बेचते रहे। कुछ ने रुक कर देखा, कुछ ने सिर हिलाया लेकिन कोई मदद को आगे नहीं बढ़ा। ना पानी दिया, ना उठाया, ना एंबुलेंस बुलाई। इंसानियत जैसे गायब हो गई थी और भीड़ सिर्फ तमाशबीन बनी रही।

उसी भीड़ में एक युवक रवि ने मोबाइल निकाला और वीडियो बनाने लगा। उसने वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया – “यह दादी आधे घंटे से बेहोश पड़ी है, किसी को रहम नहीं, ना पानी, ना अस्पताल। किसकी मां होंगी बेचारी।” वीडियो वायरल हुआ और अनीता के मोबाइल तक पहुंच गया।

वीडियो देखते ही अनीता का दिल बैठ गया। आंखें नम हो आईं। दर्द से भरी चीख के साथ उन्होंने कहा, “हे भगवान, यह तो मेरी मां है!” वह तुरंत कुर्सी से उठीं, इंस्पेक्टर से बस इतना कहा, “मैं जा रही हूं।” अपनी नीली जीप में बैठकर तेजी से बाजार की ओर दौड़ पड़ीं।

बाजार पहुंचकर अनीता ने अपनी मां को गोद में उठाया। बोतल से पानी पिलाया, चेहरे पर छींटे मारे। कुछ पल बाद मां की आंखें खुलीं। अनीता ने गुस्से से भीड़ को घूरा और बोली, “आप लोगों में इंसानियत बची भी है या नहीं? एक औरत धूप में बेहोश पड़ी रही और किसी ने दया नहीं दिखाई। बस तमाशा देखते रहे। आप सब इंसान के नाम पर धब्बा हैं।” भीड़ में सन्नाटा छा गया। सबके चेहरे शर्म से झुक गए।

अनीता मां को लेकर घर लौटी और बोली, “मां, मैं आपको तुरंत हॉस्पिटल ले जा रही हूं।” उन्होंने एंबुलेंस को फोन लगाया, वर्दी उतारकर साधारण सलवार-सूट पहना और मां को लेकर जिले के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल पहुंचीं।

हॉस्पिटल में बेइज्जती और अमानवीयता

हॉस्पिटल के गेट पर डॉक्टर, नर्स और स्टाफ ने उन्हें और उनकी कमजोर मां को गरीब और भिखारी समझ लिया। बेरहमी से धक्के देकर बाहर निकाल दिया गया। एक नर्स चीखी, “तुम जैसों के लिए यह हॉस्पिटल नहीं है। तुम्हारी औकात कहां है इलाज कराने की? कहीं और जाओ दिखाओ अगर पैसे हैं वरना रहने दो। इनकी उम्र तो निकल चुकी। अब फायदा क्या? जाओ यहां से। यह जगह तुम्हारे जैसे लोगों के लिए नहीं।”

अनीता स्तब्ध खड़ी थी। मां की सांसें भारी पड़ रही थीं और भीड़ उनकी बेबसी का गवाह बनी रही। अनीता ने डॉक्टर राजेश से गुहार लगाई – “डॉक्टर साहब, मेरी मां की हालत बहुत खराब है। कृपया तुरंत इलाज शुरू करें।” लेकिन डॉक्टर राजेश ने बिना देखे बेरुखी से कहा, “यहां इलाज नहीं हो पाएगा। इन्हें कहीं और ले जाओ। अच्छा होगा कोशिश करो।”

अनीता की आवाज दर्द और गुस्से से कांप रही थी, “डॉक्टर साहब, यह जिले का सबसे बड़ा हॉस्पिटल है। इसीलिए मैं यहां आई। मां की जान खतरे में है। पैसों की चिंता ना करें, जितना खर्च होगा दूंगी।” डॉक्टर ने ठंडी हंसी हंसी – “तुम दोगी? तुम्हारे पास इतने पैसे कहां से आएंगे कि यहां इलाज करवा सको। सुनो, अगर खुद को बेच दो, तब भी इनका इलाज नहीं होगा। तुम जैसे लोगों के पास तो खाने के पैसे भी नहीं होंगे।”

अनीता का खून खौल उठा। चेहरा लाल हो गया, लेकिन खुद को संभाला। गहरी सांस लेकर बोली, “मैं गरीब हूं या अमीर? इससे आपका क्या? आपका काम इलाज करना है। मैंने कहा ना, पैसों की फिक्र मत करें। बस मां का इलाज शुरू करें, वरना पछताएंगे।”

डॉक्टर ने तंज कसा, “अच्छा, अगर मैं ना करूं तो पछताऊंगा? मैं तुम्हारा क्या बंद हुआ हूं? बकवास बंद करो, घर जाओ।”

अनीता के हाथ कांपने लगे। वह खामोश खड़ी रही। आंखों में आंसू और चेहरे पर गुस्सा साफ था। फिर धीरे से पर्स खोला और सरकारी पहचान पत्र निकाल कर डॉक्टर के सामने रखा – “पहले यह देखो, फिर बोलो। टाइम नहीं है।”

कार्ड देखते ही डॉक्टर राजेश के पसीने छूट गए। चेहरा पीला पड़ गया। कांपती आवाज में बोला, “सॉरी मैडम, मुझसे बड़ी गलती हो गई। मुझे नहीं पता था आप डीएम अनीता शर्मा हैं। मैं तुरंत इलाज शुरू करवाता हूं। चिंता मत कीजिए।” डॉक्टर स्टाफ को दौड़ाने लगा। अनीता की मां को स्ट्रेचर पर ले जाया गया। नर्सें दवाइयां लाने दौड़ पड़ीं।

अनीता बाहर खड़ी थी। शांत दिख रही थी लेकिन अंदर गुस्सा भरा था। मन ही मन सोच रही थी – “यह लोग सरकारी हॉस्पिटल में गरीबों के साथ ऐसा करते हैं। सरकार इन्हें तनख्वाह इंसानियत के लिए देती है। मगर यह तो अमीरों की चापलूसी में लगे हैं।”

कुछ देर बाद नर्स आई – “मैडम, आपकी मां अब ठीक है लेकिन एक हफ्ता यहां रहना होगा।”

अनीता मां के पास गई। उनकी हालत बेहतर थी। मां को गले लगाकर दोनों फूट-फूट कर रो पड़ीं। अनीता के मन में आग जल रही थी। वह सोच रही थी, “अगर मैं डीएम ना होती तो मां शायद जिंदा ना रहती। गरीबों के साथ रोज ऐसा होता होगा। यह अन्याय नहीं चलेगा।”

इंसाफ की लड़ाई – सिस्टम को झकझोरना

अगले दो दिन और दो रातें अनीता ने मां के साथ हॉस्पिटल में बिताईं। तीसरे दिन थाने से कॉल आया – “मैडम, जरूरी मीटिंग है।” अनीता ने कहा, “ठीक है, लेकिन ज्यादा देर नहीं रुकूंगी। मां की तबीयत ठीक नहीं।” मीटिंग के बाद छह घंटे में वे वापस हॉस्पिटल लौटीं। एक हफ्ते बाद अनीता मां को लेकर घर लौटी। मां की हालत स्थिर थी। लेकिन अनीता का गुस्सा शांत नहीं हुआ।

कुछ दिनों बाद उन्होंने फैसला लिया। थाने गईं। इंस्पेक्टर और हवलदारों को साथ लेकर हॉस्पिटल पहुंचीं। सभी डॉक्टरों और स्टाफ को एक जगह बुलाकर बोलीं, “आप लोगों की वजह से ना जाने कितने गरीबों की जान गई होगी। सरकार आपको तनख्वाह इंसानियत के लिए देती है। मगर आप अमीरों की चापलूसी और गरीबों को अपमानित करते हैं।”

उनकी आवाज गूंज उठी – “एक हफ्ते पहले आपने मेरी मां के साथ जो किया, वो हर गरीब के साथ होता है। आपको किसने हक दिया कि आप औकात दिखाएं? किसी को बाहर निकालें? मैं ऐसी कार्रवाई करूंगी कि आप जिंदगी भर याद रखेंगे।”

डॉक्टरों के चेहरे डर से भर गए। सबसे बड़े डॉक्टर ने हाथ जोड़कर कहा, “मैडम, माफ करें। हमसे गलती हो गई। आगे से हर मरीज का इलाज करेंगे, चाहे पैसे हो या ना हो।”

अनीता का गुस्सा पिघलने का नाम ना ले रहा था। “आप कितनी भी माफी मांग लें, मैं नहीं मानूंगी। ना जाने कितने गरीबों ने यहां अपमान सहा, कितनी जाने गईं। मैं ऐसा फैसला लूंगी कि कोई मरीज अपमानित ना हो।”

डॉक्टर घबरा गए, हाथ जोड़कर बोले, “मैडम, हमें माफ करें। हम सुधर जाएंगे। हर मरीज को बराबर देखेंगे। एक मौका दीजिए।”

अनीता ने सोचते हुए कहा, “ठीक है, इस बार माफ करती हूं। लेकिन यह मेरी आखिरी चेतावनी है। अगर किसी गरीब की शिकायत आई, किसी के साथ बदतमीजी हुई या इलाज में लापरवाही हुई, तो कोई भी यहां काम नहीं करेगा। मैं सबको नौकरी से निकाल दूंगी।”

स्टाफ चुप हो गया। चेहरे शर्म और डर से झुक गए। अनीता ने इंस्पेक्टर को इशारा किया – “चलो।” और वहां से निकल गईं।

परिवर्तन की शुरुआत – इंसानियत की जीत

उस दिन के बाद हॉस्पिटल की तस्वीर बदल गई। डॉक्टरों ने समझ लिया कि जिंदगी हर इंसान के लिए बराबर कीमती है, चाहे अमीर हो या गरीब। उन्होंने रवैया बदला और हर मरीज को इंसानियत की नजर से देखना शुरू किया। गरीबों को सम्मान मिला, इलाज मिला, और अस्पताल में अब कोई भेदभाव नहीं होता था।

अनीता ने अपने अनुभव को पूरे जिले में साझा किया। जगह-जगह जागरूकता अभियान चलाए, सरकारी संस्थाओं में निगरानी बढ़ाई, और गरीबों के अधिकारों की रक्षा के लिए नए नियम लागू किए। उनका संदेश साफ था – “सरकारी सेवा का मतलब सिर्फ काम नहीं, बल्कि इंसानियत है।”

धीरे-धीरे जिले की तस्वीर बदलने लगी। हॉस्पिटल में अब हर मरीज को बराबर समझा जाता। गरीबों को सम्मान मिलता, उनकी सुनवाई होती। अनीता की मां स्वस्थ हो गईं, लेकिन इस घटना ने अनीता को जिंदगी भर के लिए बदल दिया। अब वे सिर्फ डीएम नहीं, बल्कि इंसानियत की मिसाल बन गईं।

सीख और संदेश

यह कहानी सिर्फ एक अधिकारी की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है जो सिस्टम की वजह से अपमानित होता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि पद, पैसा और पहचान से ज्यादा जरूरी है इंसानियत। और अगर एक व्यक्ति ठान ले तो व्यवस्था बदलना नामुमकिन नहीं।

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मिलते हैं अगले वीडियो में – नई कहानी, नई सीख और नई प्रेरणा के साथ।

समाप्त।