DM साहब किसान बन समोसा खा रहे थे,पुलिस ने जड़ दिया थप्पड,फिर जो हुआ उसने पूरे सिस्टम हिला दिया

लखनऊ की शाम: डीएम साहब की समोसे वाली कहानी

शाम ढलने लगी थी लखनऊ की गलियों में। पीली पड़ती धूप अब नीम अंधेरे में घुलने लगी थी और बाजार की रौनक धीरे-धीरे अपने शबाब पर आ रही थी। ठेले वालों की आवाजें, खोमचे वालों की पुकारें, गरम समोसे, चटपटी चाट – हर कोने से आवाजें उठ रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो शहर की धड़कनें किसी अदृश्य ताल पर थिरक रही हों।

इसी चहल-पहल में एक साधारण सा दिखने वाला आदमी एक समोसे के ठेले के पास ठिटका खड़ा था। उसने लाल रंग की लुंगी पहन रखी थी, सिर पर टॉवेल बंधा था, और चेहरा कुछ थका-सा। कोई भी देखता तो यही कहता – कोई ग्रामीण किसान होगा, शायद बीवी के लिए सब्जी लेने आया है। लेकिन किसी को क्या पता था कि यह आदमी कोई मामूली इंसान नहीं, बल्कि लखनऊ का नया जिलाधिकारी – आदित्य कुमार चौधरी है। वही डीएम जिसकी एक झलक पाने के लिए लोग घंटों इंतजार करते हैं। आमतौर पर काले शीशों वाली गाड़ी, सीटी बजाते काफिले के साथ, अफसरों की फौज, सायरन – लेकिन आज न कोई सरकारी गाड़ी, न अफसरों की भीड़, बस एक आम आदमी का चेहरा ओढ़कर वे उतर आए थे सड़कों पर। लोगों की तकलीफें समझने, उनकी जमीनी सच्चाइयों को महसूस करने। क्योंकि कभी-कभी एक अफसर को अपना पद उतारकर इंसान बनना पड़ता है ताकि वह देख सके, सुन सके जो अक्सर भीड़ में दब जाता है।

शाम की रोशनी अब सुनहरे से सिंदूरी रंग में ढल चुकी थी। लखनऊ की सड़कें महक रही थीं – गर्म समोसों, चटनी और मसालेदार पानी की खुशबू से। इन्हीं गलियों में लाल लुंगी पहने, सिर पर टॉवेल बांधे एक साधारण सा आदमी मुस्कुराते हुए समोसे के ठेले के पास रुका। “भैया, जरा गरम-गरम समोसा देना,” उसने अपनत्व भरे अंदाज में कहा। ठेले वाला खिलखिलाया, जैसे उसके दिन की थकान किसी ने हर ली हो। “अभी देता हूं जी, बड़ा जबरदस्त बना है आज।” कहते हुए उसने चिमटे से उठाकर ताजा गरम समोसा प्लेट में चटनी के साथ उनके हाथ में रख दिया। आदमी ने पहला कॉर लिया – बाहर से खस्ता, अंदर से चटपटा आलू। चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैर गई। वो स्वाद नहीं, मेहनत छक रहा था। इशारे से दूसरा समोसा मांगा, ठेले वाले ने और प्यार से थमा दिया।

पर वह आदमी वहां सिर्फ स्वाद लेने नहीं आया था। वह देख रहा था ठेले वाले की लगन, उसकी आंखों में रोजीरोटी की जद्दोजहद, उसकी आवाज में वह नम्रता जो हालात से टूटकर भी इंसानियत बचाए रखती है।

तभी हवा में जैसे कोई सख्तपन घुल गया। एक पुलिस गाड़ी चीखती हुई आई। उसमें बैठे थे पुलिस की वर्दियों में कुछ रबदार लोग, जिनके चेहरे पर कानून नहीं, सत्ता का गुरूर लिखा था। एक ने ठेले वाले को घूरते हुए गरजती आवाज में कहा, “अबे तेरा ठेला यहां फिर से लग गया। कितनी बार समझाया है, इस जगह ठेला मत लगा, लेकिन तू तो सुधरता ही नहीं।” भीड़ सहम गई। ठेले वाले का चेहरा पड़ गया। उसने कांपते हुए हाथ जोड़ लिए, “साहब, हम गरीब हैं। यही करके दो वक्त की रोटी जुटाते हैं।” पर इंसानियत तो उन वर्दियों की जेब में कहीं खो चुकी थी। एक ने गुस्से में ठेले पर लात मारी। ठेला डगमगाया, समोसे जमीन पर गिर पड़े। गर्म तेल से महकते कुरकुरे टुकड़े सड़क की धूल में लथपथ हो गए। भीड़ चुप थी। डर इतनी गहराई तक उतर चुका था कि आवाज गूंगी हो गई थी।

पर वो आदमी जिसे सब ने एक आम ग्राहक समझा था, उसकी आंखों में अब खामोश आग सुलग रही थी। वह धीरे से ठेले वाले के पास गया। शाम की हलचल अब कुछ थमने लगी थी। लेकिन बाजार के कोने में जैसे कोई तूफान पल रहा था। “यह क्या तरीका है?” लाल लुंगी और टॉवेल में खड़े उस शख्स ने एक कदम आगे बढ़ाकर सख्त आवाज में कहा, “एक गरीब की रोजीरोटी यूं उजाड़ देना, किस कानून में लिखा है यह?” पुलिस वाले ने उसकी ओर तिरछी नजर से देखा, ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर ठठा कर हंसा, “ओहो, देखो भाई लोग, समाज का नया नेता आ गया। ए मैडम, ओ माफ कीजिए बाबू साहब, अपने घर जाइए, अपने खेतबाड़ी के काम पर ध्यान दीजिए। यह पुलिस का मामला है चाचा।”

उस आदमी ने एक गहरी सांस ली। उसकी आंखों में तेज था और स्वर में दृढ़ता जो केवल सच्चाई के साथ चलने वाले में होती है। “गरीबों पर हाथ उठाना, उनकी जिंदगी रौंद देना किस कानून में लिखा है?” यह सवाल सीधा पुलिस की आत्मा पर चोट कर गया। लेकिन इंसानियत जिनके भीतर बची ही ना हो, उन्हें चोट क्या लगती? एक सिपाही का चेहरा तमतमा उठा और फिर बिना किसी चेतावनी के उसने झल्लाकर डीएम के गाल पर एक जोरदार तमाचा रसीद कर दिया। थप्पड़ की आवाज भीड़ में सन्नाटा भर गई। चेहरे पर लाल निशान उभर आया था। लोग स्तब्ध थे। एक आम आदमी पर पुलिस ने सरेआम हाथ उठा दिया। लेकिन पुलिस वालों के चेहरे पर जरा भी पश्चाताप नहीं था।

एक ने उनकी हाथ मरोड़ते हुए कहा, “बहुत हो गया तेरा कानून ज्ञान, चल थाने।” अब डीएम आदित्य को एहसास होने लगा कि मामला बढ़ चुका है। मन ही मन सोचा, अब पहचान बता दूं। पर अगले ही पल खुद को रोका – नहीं, मुझे देखना है आम जनता के साथ क्या होता है। अगर अभी ही पहचान बताई तो यह डर कर रुक जाएंगे। यह नाटक अभी जारी रहेगा। उन्होंने विरोध नहीं किया। हाथों में हथकड़ी डाल दी गई और उन्हें धक्के देते हुए पुलिस जीप में बैठा लिया गया।

जीप में बैठते ही पुलिस वालों के मुंह खुल गए। “अबे, यह औरत जैसी शक्ल वाला मर्द बहुत तेज है। कहीं किसी बड़े आदमी का नौकर तो नहीं? क्या पता किसी नेता की रखैल का बॉडीगार्ड हो। भाषण झाड़ रहा था जैसे डीएम हो खुद का।” डीएम आदित्य सुनते रहे। उनका चेहरा शांत था, पर भीतर एक तूफान मचल रहा था।

थाने पहुंचते ही उन्हें अंदर एक छोटे सड़े हुए लॉकअप में डाल दिया गया। कमरे में सीलन, बदबू और दीवारों पर पान की पीखें थीं। एक कोना तो ऐसा लग रहा था मानो वहां से अब तक कोई झाड़ू नहीं गुजरा हो। और वहां पहले से बंद थे कुछ पुरुष कैदी – बेबस, सहमे हुए, बिखरे बाल, गंदे कपड़े और आंखों में एक गहरी थकान। उनमें से एक ने धीमे स्वर में पूछा, “भाई, तुझे क्यों पकड़ा?” डीएम आदित्य ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “गरीब की मदद करने की गलती कर दी।” दूसरे कैदी ने लंबी सांस लेते हुए कहा, “हम गरीबों की यही किस्मत है। यहां पुलिस इंसान नहीं समझती। अगर तेरे पास पैसे या कोई बड़ा जानने वाला नहीं है, तो ये लोग तुझे नोच डालेंगे।”

डीएम ने ध्यान से सुना। अब तक जो सुना था, वह देख भी रहे थे। पुलिस की मनमानी, अत्याचार और सिसकती इंसानियत अब उनके सामने थी, बिना किसी पर्दे के।

कुछ देर बाद दरवाजा जोर से खुला। एक इंस्पेक्टर अंदर आया। तिरछी हंसी के साथ डीएम को देखा और बोला, “समाज सुधारक बना है, चल इस पर साइन कर। लिख कि तूने सरकारी काम में बाधा डाली है। नहीं तो आज की रात यहीं सड़।” डीएम ने उसकी आंखों में सीधी नजर डाली, “मैंने कोई गुनाह नहीं किया, साइन क्यों करूं?” इंस्पेक्टर भड़क उठा, टेबल पर जोर से हाथ मारा और चीखा, “तेरी हिम्मत तो देख। अबे सिपाही, इसे अंदर ले जा और समझा इसे।”

अब डीएम गहरी सोच में थे। क्या अब समय आ गया है कि वह अपने असली रूप में सामने आएं? या अभी भी यह नाटक चलता रहे ताकि वह देख सकें आम आदमी के हिस्से में यह सिस्टम कितना अन्याय रखता है। अभी फैसला लेना बाकी था। लेकिन यह साफ था – बदलाव की आंधी धीरे-धीरे उठने लगी थी। यह इंसाफ की लड़ाई थी। लेकिन अभी नाम उजागर करना ठीक नहीं था। डीएम साहब ने निश्चय किया था – जब तक हालात अपनी हदें पार नहीं कर लेते, वे एक आम नागरिक बनकर ही रहेंगे।

मगर अब वे उस हद तक पहुंच चुके थे। कुछ देर बाद वही इंस्पेक्टर, जिसने उन्हें धक्का देकर लॉकअप में फेंका था, दो सिपाहियों के साथ लौट आया। आंखों में तुच्छता और होठों पर तिरस्कार लिए। उसने कहा, “अब भी अकड़ बाकी है? चल, आगे कर हाथ और साइन कर इस बयान पर।” डीएम साहब ने स्थिर, शांत लेकिन दृढ़ स्वर में कहा, “मैंने कोई अपराध नहीं किया। मैं साइन नहीं करूंगा।” इंस्पेक्टर का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने सिपाही को इशारा किया। अगले ही पल एक सिपाही ने डीएम साहब के बालों को जोर से पीछे खींचा। “अब जबरदस्ती साइन करवाओ इससे। बहुत नेता बन रहा है।” इंस्पेक्टर की आवाज गूंज उठी। डीएम साहब दर्द में थे, लेकिन उनकी आंखों की आग बुझी नहीं। “यह अन्याय है,” उन्होंने करहते हुए कहा। सिपाही ठहाका मारते हुए बोला, “बड़ा आया न्याय की बात करने वाला। यहां हमारा कानून चलता है।”

उनकी उंगलियों को पकड़ कर जबरदस्ती अंगूठा लगवाने की कोशिश की गई। लेकिन डीएम साहब ने हाथ झटक दिया। “नहीं!” उनकी आवाज अब पूरे थाने में गूंज रही थी। इंस्पेक्टर ने गुस्से में चिल्लाकर कहा, “अकड़ निकालो इसकी। समझाओ इसे हमारे तरीके से।” डीएम साहब को एक कमरे में घसीटा गया। उन्हें जमीन पर फेंका गया। “अब बोल, मान जाएगा या तुझे और दिखाना पड़ेगा पुलिसिया अंदाज?” एक सिपाही गुर्राया।

डीएम साहब उसकी आंखों में आंखें डालकर बोले, “तुम जैसे कानून के रक्षक नहीं, भक्षक हो चुके हो।” तभी एक सिपाही ने छड़ी उठाई। व्यंग से बोला, “अब देख कितनी समाज सेवा करता है।”

तभी बाहर से तेज कदमों की आहट हुई। दरवाजा धड़ा कर खुला और एक वरिष्ठ पुलिस अफसर अंदर आया। “यहां क्या तमाशा चल रहा है?” उसने कड़क कर पूछा। इंस्पेक्टर हड़बड़ा गया, “सर, यह आदमी बहुत बदतमीज है, कानून का उल्लंघन कर रहा था।” वरिष्ठ अधिकारी ने पहले डीएम साहब की हालत देखी, फिर इंस्पेक्टर की ओर घूर कर कहा, “बिना सबूत के किसी को यूं पीट रहे हो?”

इंस्पेक्टर ने झिझकते हुए कहा, “सर, सड़क पर झगड़ा कर रहा था।” “इसे कुछ घंटों में छोड़ देना,” ऑफिसर ने आदेश दिया। डीएम साहब को फिर लॉकअप में डाल दिया गया। लेकिन इस बार और भी घटिया हालत में – बदबूदार कंबल, सड़ा गला खाना। लेकिन उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी। क्योंकि वे महसूस कर रहे थे – आम आदमी रोज किस नर्क से गुजरता है।

सुबह इंस्पेक्टर आया। व्यंग से कहा, “बड़ी किस्मत वाला है तू, जमानत हो गई।” “जमानत किसने दी?” डीएम साहब ने पूछा। “पता नहीं कौन मूर्ख आया है, कोई तो होता ही है तेरे जैसे लोगों के लिए,” इंस्पेक्टर हंसा। बाहर एक पत्रकार खड़ा था, जो सच की तलाश में आया था। “आपको किस आरोप में पकड़ा गया?” डीएम साहब मुस्कुराए, “इंसानियत दिखाने की सजा मिली है।”

तभी कुछ दूर एक बूढ़ी औरत अपने बेटे की गिरफ्तारी के लिए रो रही थी। “साहब, मेरी सुन लो।” लेकिन पुलिस ने उसे धकिया कर भगा दिया। अब डीएम साहब की आंखों में वह चिंगारी थी। वक्त आ गया था। उन्होंने मोबाइल निकाला और नंबर डायल किया। “जी साहब?” दूसरी ओर से आवाज आई। “पांच मिनट में पूरी टीम लेकर थाने पहुंचो।” अब पुलिस वालों के होश उड़ने लगे।

कुछ ही देर में थाने के बाहर सायरनों की गूंज हुई। सरकारी गाड़ियां थाने के बाहर रुकीं। अफसर उतरे और उनके बीच से वह व्यक्ति निकला जिसे अब तक सबने मामूली समझा था। “मैं इस जिले का जिलाधिकारी हूं।” डीएम साहब – सन्नाटा छा गया। पत्रकारों के कैमरे ऑन हो गए। पुलिस वालों के होश उड़ गए।

इंस्पेक्टर के पैर कांपने लगे। जिन हाथों ने कल उन्हें मारा था, आज वही हाथ जोड़े हुए माफी मांग रहे थे। डीएम साहब गरजे, “अगर मैं डीएम नहीं होता, तब भी क्या आप किसी नागरिक के साथ ऐसा ही करते?” उन्होंने कैमरे की ओर देखा, “आज मैंने खुद अपनी आंखों से देखा कि इस थाने में गरीबों, महिलाओं और आम जनता के साथ कैसा बर्ताव होता है। अब यह नहीं चलेगा।” उन्होंने फिर मोबाइल उठाया और आदेश दिया, “सभी दोषी पुलिसकर्मियों को निलंबित करो, तुरंत कार्रवाई शुरू हो।”

अब कोई बहाना नहीं बचा था। पत्रकारों की रिपोर्टिंग चालू थी। पूरा थाना थर-थर कांप रहा था। डीएम साहब ने जनता की ओर देखा और दृढ़ स्वर में बोले, “यह पुलिस सेवा नहीं, गुंडागर्दी थी, लेकिन अब नहीं चलेगी।”

थाने के बाहर कुछ महिलाएं खड़ी थीं। एक महिला रोते हुए सामने आई। जैसे ही वह युवती फूट-फूट कर रोई, मानो कोई तूफान बरस पड़ा हो। उसे देखकर कई और लोग आगे आए। किसी ने कहा, “हमें झूठे केस में फंसाया गया है।” दूसरे ने चीख कर कहा, “हमारी बहू-बेटियों को धमकाया जाता है।” और एक बूढ़ा कांपते हुए बोला, “हम गरीबों की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती साहब।”

अब तक चुपचाप खड़े डीएम साहब की आंखों में ज्वाला सी सुलग उठी थी। वह किसी प्रशासनिक अधिकारी की नहीं, एक इंसान की आंखें थीं, जो अन्याय देखकर तड़प उठी थीं। उन्होंने अपने साथ खड़े अधिकारियों को आदेश दिया, “इन सब की शिकायतें दर्ज की जाएं। अब इस जिले में कानून सिर्फ वर्दी के लिए नहीं, हर नागरिक के लिए होगा। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, कोई भी।”

फिर बिना एक पल गंवाए उन्होंने फोन उठाया, “मैं इस जिले का जिलाधिकारी बोल रहा हूं। मैंने खुद इस थाने में पुलिसिया अत्याचार झेला है। तुरंत जांच शुरू हो और दोषी अफसरों पर सख्त कार्रवाई की जाए।” कुछ ही देर में जिले के वरिष्ठ अधिकारी थाने पर मौजूद थे। वह सिर झुका कर बोले, “साहब, जो हुआ वह बेहद शर्मनाक है। हम वादा करते हैं, न्याय जरूर होगा।”

थाने में तैनात पुलिसकर्मियों के चेहरों पर अब डर और पछतावे की छाया थी। आज पहली बार उनके अपने ही थाने की दीवारों में न्याय की गूंज सुनाई दे रही थी। डीएम साहब ने चारों ओर देखा और गहरी सांस लेते हुए कहा, “इस थाने में हर कोने में सीसीटीवी कैमरे लगेंगे और मैं खुद इनकी जांच करूंगा, ताकि कोई भी मासूम कभी दोबारा प्रताड़ित ना हो।”

फिर उनकी नजर उस इंस्पेक्टर पर गई, जो अब कांप रहा था, जैसे उसकी वर्दी का बोझ अचानक बहुत भारी हो गया हो। “तुमने वर्दी नहीं पहनी थी, तुमने सत्ता का घमंड पहन रखा था। अब ना सिर्फ तुम्हारी नौकरी जाएगी, बल्कि जेल की हवा भी खानी पड़ेगी।” इंस्पेक्टर घुटनों के बल गिर पड़ा, “साहब, माफ कर दीजिए। मेरे बच्चे भूखे मर जाएंगे, मेरी मां बीमार है।” डीएम साहब की आवाज बर्फ जैसी ठंडी थी, “जब तुमने एक निर्दोष आदमी को पीटा था, तब तुम्हें अपने परिवार की याद क्यों नहीं आई थी?”

सन्नाटा। पूरे पुलिस स्टेशन में सिर्फ उस एक सवाल की गूंज रह गई।

इसके बाद डीएम साहब मीडिया की ओर मुड़े और बोले, “अगर पुलिस अपने कर्तव्य निभाएगी तो जनता सिर माथे बिठाएगी। लेकिन अगर वही पुलिस अत्याचार करेगी तो उसे जवाब भी देना होगा।” यह शब्द नहीं थे, क्रांति का बिगुल था। सोशल मीडिया पर वीडियो आग की तरह फैल गया। हर तरफ सिर्फ एक नाम गूंज रहा था – डीएम साहब। लोग कह रहे थे – आज भी कुछ अफसर ईमानदारी की मिसाल बन सकते हैं।

दोषी पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई शुरू हो चुकी थी। कई निलंबित हुए, कुछ बर्खास्त। उनकी जगह अब नए ईमानदार और संवेदनशील अफसरों की नियुक्ति हो रही थी। यह सिर्फ एक कार्यवाही नहीं थी, यह एक नई व्यवस्था की शुरुआत थी। एक ऐसा युग जहां डर नहीं, भरोसा शासन करता था।

कुछ दिनों बाद मीडिया के सामने खड़े होकर डीएम साहब ने कहा, “अब इस जिले में लोग पुलिस से नहीं, अपराध से डरते हैं और यही सबसे बड़ी जीत है। लेकिन हमारी जिम्मेदारी यहीं खत्म नहीं होती। हमें अपने अधिकार का इस्तेमाल सिर्फ राज करने के लिए नहीं, सेवा के लिए करना होगा।”

उनके शब्दों ने उस दिन पूरे जिले में नई उम्मीद भर दी। अब लोग पुलिस से नहीं कांपते, बल्कि उनसे सवाल पूछते हैं, क्योंकि अब उन्हें पता है – अगर वह सच बोलेंगे तो डीएम साहब जैसे अफसर उनके पीछे खड़े मिलेंगे।

वो इंस्पेक्टर, जो कभी अपनी वर्दी पर इतराता था, अब जेल की सलाखों के पीछे अपने फैसलों पर पछता रहा था। उसे समझ आ गया था – सत्ता का गलत इस्तेमाल ना सिर्फ करियर तबाह करता है, बल्कि इंसान की इज्जत भी मिट्टी में मिला देता है।

डीएम साहब की निडरता ने यह साबित कर दिया – अगर एक व्यक्ति अन्याय के खिलाफ खड़ा हो जाए तो पूरा सिस्टम हिल सकता है। इस घटना ने पूरे समाज को एक सीख दी – कानून से ऊपर कोई नहीं है, चाहे वह किसी भी कुर्सी पर क्यों ना बैठा हो।

डीएम साहब ने ना सिर्फ एक भ्रष्ट तंत्र को चुनौती दी, बल्कि उन हजारों गुमनाम चेहरों को आवाज दी जो बरसों से न्याय का इंतजार कर रहे थे। यह बदलाव किसी नीति से नहीं, एक सच्चे इरादे और ईमानदार कदम से आया था। और आज हर कोई जानता है – अगर अन्याय होगा तो डीएम साहब जरूर आएंगे।

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जय हिंद!

(पूरा उपन्यास जैसा विस्तार, भाव और संदेश के साथ आपकी वीडियो की कहानी को एक लंबी हिंदी कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अगर आपको और विस्तार या किसी पात्र का विशेष विवरण चाहिए तो बताएं।)