IPS अधिकारी भेष बदल कर साधु बनकर थाने पहुँचा मचा गया हड़कंप फिर जो हुआ…

अजय राणा की कहानी – वर्दी, साधु और सिस्टम की क्रांति

शहर की पुलिस लाइन में उस सुबह का माहौल कुछ अजीब था। आसमान हल्का सा धुंध से ढका हुआ था और हर किसी की आंखों में बेचैनी थी। आमतौर पर सुबह 9 बजे तक चाय की खुशबू और हंसी-ठिठोली की आवाजें गूंजती थीं, लेकिन आज हर एक चेहरे पर खामोशी की परत थी। सभी अधिकारियों के मोबाइल बज रहे थे। कोई WhatsApp पर खबर पढ़ रहा था तो कोई किसी से फोन पर पुष्टि कर रहा था। खबर सिर्फ एक ही थी – एसपी अजय राणा का शव गंगापुर जिले की सीमा के पास एक नदी किनारे मिला है।

यह वाक्य किसी विस्फोट से कम नहीं था। अजय राणा जिले के सबसे तेज, ईमानदार और साहसी पुलिस अधिकारी थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में न जाने कितने भ्रष्ट अधिकारियों को निलंबित कराया था, न जाने कितनों की दुकानें बंद करवाई थी। वह ना किसी मंत्री के आगे झुके, ना किसी माफिया के सामने। जनता उन्हें भगवान की तरह पूजती थी। लेकिन अब वह नहीं रहे। यह सोचना ही असंभव था।

पुलिस हेडक्वार्टर में डीआईजी साहब ने आपात बैठक बुलाई। सभी डीएसपी, एएसपी और थानेदारों को बुलाया गया। हॉल में सन्नाटा था। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। हर कोई यह जानना चाहता था कि यह कैसे हुआ। फॉरेंसिक रिपोर्ट अभी आई नहीं थी। लेकिन जो तस्वीरें आई थीं, उनमें एक शव दिखाई दे रहा था – गेरुआ कपड़ों में लिपटा हुआ, चेहरे पर दाढ़ी, माथे पर चंदन और आंखें बंद। शरीर की बनावट, ऊंचाई, उम्र सब कुछ एसपी साहब से मेल खा रहा था। एक पुरानी अंगूठी भी मिली थी जो अक्सर अजय राणा पहनते थे।

डीआईजी साहब ने माइक उठाया लेकिन उनकी आवाज कांप रही थी। उन्होंने कहा, “हमें अब तक की सबसे दुखद खबर मिली है। अजय राणा अब हमारे बीच नहीं रहे। यह हमारे विभाग की सबसे बड़ी क्षति है।” वहां बैठे एएसपी निधि चौहान की आंखें नम थीं। वह अजय राणा के सबसे करीबी अधिकारियों में थीं। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि अजय जैसा मजबूत, सतर्क और शातिर अफसर इस तरह अचानक मर सकता है। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “सर, यह हो ही नहीं सकता। कुछ तो गड़बड़ है।” लेकिन इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था।

अखबारों में अगले दिन हेडलाइन थी – “ईमानदार अफसर की रहस्यमई मौत। न्याय की लौ बुझ गई।” सोशल मीडिया पर हजारों पोस्ट होने लगे। किसी ने लिखा कि उन्हें माफिया ने मरवाया। किसी ने लिखा कि यह एक आत्महत्या है और कुछ तो कहने लगे कि सिस्टम ही एसपी राणा को खा गया।

इधर गंगापुर के उस गांव में जहां यह शव मिला था, पुलिस ने इलाके को सील कर दिया। शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया। क्योंकि शव की हालत इतनी खराब थी कि डीएनए टेस्ट के लिए समय नहीं था और परिवार ने पुष्टि कर दी थी कि वह वहीं है। लेकिन किसी को नहीं पता था कि उस चिता की आग में जो शव जला वह एसपी अजय राणा का नहीं था। और सबसे हैरानी की बात यह थी कि अजय राणा जिंदा थे।

दरअसल एक महीने पहले ही उन्होंने एक ऐसा ऑपरेशन प्लान किया था जिसे वे सिर्फ अपने दिल और अपनी डायरी में ही जानते थे। कोई और नहीं। उन्होंने तय किया था कि अब भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का एकमात्र तरीका यही है – खुद को मरा हुआ घोषित कर देना। वे जानते थे कि जब तक वे वर्दी में रहेंगे, लोग उनसे डरते रहेंगे, सच छुपाते रहेंगे।
इसलिए उन्होंने अपने ही जैसा दिखने वाला एक भिखारी, जिसकी मौत कुछ दिनों पहले हो गई थी, उसके शव को गेरुआ वस्त्र पहनाकर नदी किनारे रखा, सबूतों के साथ, और खुद गायब हो गए।

अब अजय राणा साधु बन चुके थे। बाल बढ़े हुए, दाढ़ी लंबी और गेरुए कपड़े। वह अब बाबा अमरगिरी थे। उनके इस नए अवतार को कोई नहीं जानता था। वे अब ट्रेन में बैठकर, पैदल चलकर, गांव-गांव जाकर, थाने-थाने घूमकर उस काली हकीकत को उजागर करने निकले थे जिसे उनकी वर्दी नहीं देख पा रही थी।

उधर पुलिस विभाग में श्रद्धांजलि सभा हो रही थी। अधिकारी मोमबत्तियां जला रहे थे। किसी को नहीं पता था कि वही एएसपी साहब अब किसी थाने के सामने दरी पर बैठे हैं। एक थके-हारे साधु की तरह। उनके चेहरे पर कोई घबराहट नहीं थी, बस एक दृढ़ निश्चय था।
अब देखना यह है, उन्होंने मन में कहा, कि क्या मेरी मौत से यह सिस्टम जागेगा या मुझे साधु बनकर लाठियां खाकर ही सच्चाई निकालनी होगी।

सूरज की हल्की किरणें उस सुबह जमीन पर उतर रही थीं। लेकिन अजय राणा के जीवन में अब कोई उजाला नहीं बचा था। या यूं कहो, उन्होंने खुद ही अंधेरा चुन लिया था ताकि भ्रष्टाचार की जड़ तक पहुंच सके। अब वे साधु के वेश में थे। बाल उलझे हुए, आंखों में थकान, कपड़े मैले और हाथों में एक पुरानी सी कमंडल।
कोई नहीं पहचान सकता था कि यह वही अजय राणा हैं जिनकी तस्वीरें आजकल अखबारों के पहले पन्ने पर श्रद्धांजलि के साथ छप रही थीं।

गांव के लोग उन्हें बाबा कहकर बुलाने लगे थे। कभी उन्हें रोटियां देते, तो कभी मंदिर के पास बैठने की इजाजत मिल जाती। लेकिन यह साधु कहीं रुकता नहीं था। हर रोज नए रास्ते, नया गांव और सबसे जरूरी – नया थाना।

भीखनपुर थाना – भ्रष्टाचार का गढ़

आज वह जिस कस्बे में पहुंचे थे, उसका नाम था भीखनपुर। यहां का थाना पूरे जिले में बदनाम था। लोग कहते थे कि बिना रिश्वत के एफआईआर तक नहीं लिखी जाती। गरीबों को झूठे केस में फंसा दिया जाता और थाने का दरोगा एक स्थानीय गुंडे के लिए वसूली का काम करता था।
अजय राणा ने इस थाने का नाम पहले भी सुना था। लेकिन वर्दी में रहकर कभी वहां जाने की हिम्मत नहीं कर पाए थे, क्योंकि शिकायत करने वाले लोग खुद ही डर जाते थे।
लेकिन अब वह साधु थे। एक ऐसा रूप जिसे कोई खतरा नहीं समझता, न कोई सवाल करता।

थाने के बाहर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गए। उनके हाथ में भीख का कटोरा था, पर आंखें चारों ओर घूम रही थीं। उन्होंने देखा कि एक महिला रोती हुई थाने से बाहर निकली। उसके कपड़े फटे हुए थे और चेहरे पर लाल निशान थे, जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो। उसके पीछे एक कांस्टेबल खड़ा मुस्कुरा रहा था।
बाबा अजय राणा ने सिर झुका कर देखा। यह वही दृश्य था जिसके खिलाफ उन्होंने कभी भाषण दिए थे, मीटिंगों में अधिकारियों को चेताया था। लेकिन अब वह सिर्फ एक गवाह थे। निसहाय, चुप और निरीक्षक।

कुछ देर बाद एक जीप थाने के बाहर रुकी। उसमें से एक लड़का उतरा जिसकी उम्र मुश्किल से 20-22 रही होगी। उसके कपड़े फैशनेबल थे और चाल में घमंड। उसके पीछे दो कांस्टेबल थे जो उसे “राजू भैया” कहकर झुक-झुक कर सलाम कर रहे थे।
राजू उस इलाके के बाहुबली नेता का बेटा था। वह सीधे थाने के अंदर गया और 10 मिनट में बाहर निकलते हुए बोला, “दरोगा जी को बोलना माल का इंतजाम ठीक से हो। बाबा को हटवा देना यहां से। मन खराब कर रहा है।”

बाबा चुपचाप वहीं बैठे रहे। एक सिपाही आया और बोला, “ओ बाबा, निकलो यहां से। यह थाना है, कोई धर्मशाला नहीं।”
अजय राणा ने सिर झुकाया, कमंडल उठाया और धीरे-धीरे चलने लगे। लेकिन वह दूर नहीं गए। उन्होंने सामने की दुकान से ₹2 में एक चाय ली और वहीं थाने के गेट के पास बैठकर चाय पीने लगे।
वह सब कुछ देख रहे थे – थाने में कौन आया, कौन गया, किसने पैसे दिए, किसने मार खाई और किसे गाली सुननी पड़ी?

शाम होते-होते उन्हें पता लग चुका था कि यहां का दरोगा सुरेश यादव एक पूरा गिरोह चला रहा है। नशे के कारोबार से लेकर जमीन कब्जाने तक सब कुछ इस थाने से ऑपरेट होता था। और जो भी मुंह खोलता था, उसे या तो झूठे केस में अंदर कर दिया जाता या थर्ड डिग्री दी जाती।

रात को जब थाने के गेट बंद होने लगे, बाबा वहीं बरामदे में बैठ गए। तभी दो सिपाही आए। एक ने बोला, “क्यों बाबा, यही डेरा जमा लिए हो? चलो, कहीं और जाओ।”
बाबा ने जवाब नहीं दिया। उन्होंने आंखें बंद कर ली जैसे ध्यान में जा रहे हों।
यह थाने के सिपाहियों को गवारा नहीं हुआ। एक ने लाठी उठाई और बाबा के पैर में हल्की चोट मारी।
सुनाई नहीं देता क्या?
अजय राणा ने अब भी कुछ नहीं कहा। उन्होंने सिर्फ धीरे से आंखें खोली और उस सिपाही को देखा। वो नजरें इतनी गहरी थी कि सिपाही एक पल को कांप गया। लेकिन फिर झुंझलाकर बोला, “बड़ी आंखें दिखा रहे हो बाबा, लगता है कुछ पुराना हिसाब है। चलो अंदर, दरोगा जी से मिलाते हैं।”

बाबा को अंदर ले जाया गया।
थाने के भीतर वही माहौल था – गालियों की आवाजें, पंखे की टूटती चटचट और दीवार पर टंगे नेता की तस्वीर।
दरोगा सुरेश यादव अपने कुर्सी पर बैठा घुटखा चबा रहा था।
सिपाही ने कहा, “सर, यह बाबा बाहर अड़े पड़े थे, हट नहीं रहे थे, कहा कि यहीं रुकेंगे।”
सुरेश ने बाबा को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर बोला, “बाबा हो या बवाली, थाना कोई धर्मशाला नहीं है। छोड़ो इसे कहीं जंगल में।”

बाबा चुपचाप खड़े रहे। तभी सुरेश ने गाली दी और बोला, “क्यों रे, मुंह सिल लिया है? कहीं भगवा पहनकर किसी गिरोह के आदमी तो नहीं हो?”
अचानक सुरेश ने एक तमाचा जड़ दिया। बाबा थोड़ा लड़खड़ाए लेकिन गिरे नहीं। सिपाहियों ने मिलकर धक्का दिया और वह पीछे गिर पड़े। फिर एक ने लाठी से वार किया।
यह पहली बार था जब एसपी अजय राणा को किसी ने यूं पीटा। लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। ना कोई चीख, ना कोई आह।
उनका मिशन शुरू हो चुका था।

अगले दिन की सुबह भीखनपुर के थाने में सबको लग रहा था कि एक बाबा को सबक सिखा दिया गया। लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि वही बाबा बहुत जल्द एक तूफान बनकर लौटेगा वर्दी के साथ और उन सबका हिसाब साथ लेकर।

लॉकअप की रात – बेगुनाहों की पुकार

रात का सन्नाटा उस थाने में कुछ अलग सा था। कभी-कभी गश्त पर निकले सिपाही की साइकिल की घंटी सुनाई देती, तो कभी अंदर कैद किसी बंदी की हल्की कराह।
लेकिन उस रात की खास बात यह थी कि पहली बार एक बाबा को भी लॉकअप में डाला गया था। वह भी बिना किसी मुकदमे के, बिना किसी लिखित आरोप के। केवल इसलिए क्योंकि वह बिना रिश्वत दिए थाने के बाहर बैठा था।

बाबा अजय राणा अब थाने के अंदर थे। छोटे से एक कोने में, जहां तीन लोहे की सलाखें थीं, मिट्टी का फर्श था और छत से टपकती बूंदे लगातार एक पुराने टीन के बर्तन पर गिर रही थी। उन्होंने वहीं एक कोने में अपनी चादर फैलाई। सिर दीवार से टिकाया और आंखें बंद कर ली।

बाहर बैठे दरोगा सुरेश यादव और उसके सिपाही हंसी-ठिठोली कर रहे थे। एक सिपाही ने कहा, “कसम से सर, यह बाबा बड़ा अजीब है। ना चीखा, ना चिल्लाया, ना गिड़गिड़ाया। ऐसे देखता है जैसे अंदर कुछ और ही चल रहा हो उसके दिमाग में।”
सुरेश ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “अरे यह सब नाटक है। हो सकता है किसी एनजीओ से जुड़ा हो या किसी पत्रकार का एजेंट हो। वैसे भी आजकल यह बाबे बहुत होशियार हो गए हैं। हमें भी अब थोड़ी अक्ल लगानी पड़ेगी।”

लेकिन वे नहीं जानते थे कि जो बाबा उनके लॉकअप में है, वह किसी एजेंट या साधारण व्यक्ति का नाम नहीं था। वह एक सिस्टम की आंख था जो अब अंधेपन का सच उजागर करने निकला था।

रात जैसे-जैसे गहरी होती गई, अंदर की खामोशी बढ़ती गई। बाबा अजय राणा की आंखें अब खुली थीं। वह धीरे-धीरे अपने इर्दगिर्द नजर दौड़ा रहे थे।
साथ वाली कोठरी में एक दुबला-पतला युवक पड़ा था जिसकी पीठ पर ताजा पट्टियां बंधी थीं। उसका चेहरा पीला था, होंठ सूखे और आंखों में डर।

बाबा ने धीमे से पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?”
युवक ने थोड़ी देर चुप रहकर कहा, “रमेश।”
“क्यों लाया गया तुम्हें?” बाबा ने फिर पूछा।
रमेश ने बहुत ही धीमी आवाज में कहा, “बहन को लेकर थाने आया था छेड़छाड़ की रिपोर्ट लिखवाने। तो इन्होंने मुझ पर ही हाथ उठा दिया। बोले, लड़की झूठ बोल रही है। तू धमकी देने आया है। फिर मुझे पकड़ के अंदर डाल दिया। रात को बहन भी नहीं दिखी। ना घर वालों से बात करने दी।”

बाबा की आंखों में एक हल्की चमक उभरी। लेकिन चेहरा बिल्कुल शांत रहा। उन्होंने बस सिर हिलाया और बोले, “कोई डर नहीं। एक दिन यह दीवारें खुद बोलेंगी।”

रात और आगे बढ़ी। सुबह हुई, सूरज की किरणें सलाखों से अंदर आने लगीं। सिपाही आए और बोले, “बाबा, चलो बाहर आओ। दरोगा जी ने बुलाया है।”
बाबा को हवालात से बाहर लाया गया। सुरेश यादव कुर्सी पर बैठा चाय पी रहा था और उसके साथ उसके खास लोग। एक ने कहा, “काफी रात से सोच रहे हैं बाबा कि तुम्हारा असली मकसद क्या है? कहां से आए हो? किसके कहने पर घूम रहे हो?”

बाबा मुस्कुराए नहीं। बोले, “जिस दिन सच्चाई को पकड़ लिया, उस दिन खुद को नहीं पहचान पाओगे।”
सुरेश को यह बात बहुत चूभी। उसने चाय का कप पटक दिया और गुस्से में बोला, “बहुत समझदार बनते हो। देखता हूं, दो दिन और हवालात में डालो। फिर निकलती है तुम्हारी आवाज या नहीं।”

बाबा को फिर से अंदर डाल दिया गया।
इस बार उनके साथ हवालात में दो और लोग थे – एक बूढ़ा आदमी जो जमीन विवाद में झूठे केस में अंदर था और दूसरा एक लड़का जिसे गांव के दबंगों ने चोरी का इल्जाम लगाकर फंसा दिया था।
बाबा ने उनकी कहानियां सुनीं। हर किसी की जुबान पर एक ही दर्द था – इंसाफ के लिए दरवाजा खटखटाया, मगर जवाब में डंडा मिला, गाली मिली और अंत में जेल।

बाबा सब सुनते जा रहे थे। उनके भीतर का खून खौलता जा रहा था। लेकिन चेहरे पर वहीं शांति थी। क्योंकि अब वे अफसर नहीं थे। वे बस एक गवाह थे – इस सड़े सिस्टम के गवाह।

तीसरे दिन बाबा को छोड़ने का आदेश आया। थाने के बाहर कुछ ग्रामीणों ने पंचायत के दबाव में दरोगा से सिफारिश की थी कि बाबा को छोड़ दिया जाए। वह तो साधु है, नासमझ है।
सुरेश यादव को भी लगा कि यह बंदा उसे कोई खतरा नहीं देगा।

जब बाबा बाहर निकले तो सूरज की रोशनी उनके चेहरे पर सीधी पड़ रही थी। उन्होंने गहरी सांस ली, बाहर की हवा अंदर खींची और मन ही मन बोला – “अब अगला थाना, अगला चेहरा और अगला पर्दाफाश।”

राजापुर थाना – सच्चाई की नई लड़ाई

राजधानी के पुलिस मुख्यालय में अजय राणा के नाम पर दी गई श्रद्धांजलि की माला अब सूखने लगी थी। लेकिन असली अजय राणा अब चालू हो चुका था।
सड़क धूल से भरी थी और धूप बेहिसाब तेज। गर्मी ने हवा तक को थका दिया था। बाबा अमरगिरी अपनी चप्पलें घसीटते हुए आगे-आगे बढ़ रहे थे। चेहरे पर अब पहले से ज्यादा थकावट दिखने लगी थी, पर आंखों में चमक कम नहीं हुई थी।

यह तीसरा थाना था, जहां उन्हें पहुंचना था – राजापुर थाना, जो बदनाम था अपने एनकाउंटर के लिए, जो कभी होते नहीं थे, लेकिन कागज पर दर्ज रहते थे।
राजापुर थाना शहर से दूर एक सुनसान इलाके में बना था। जहां पहुंचने के लिए 2 किलोमीटर तक कोई सवारी नहीं मिलती थी।
बाबा वहीं पैदल चलते हुए पहुंचे और थाने के बाहर पेड़ के नीचे बैठ गए। उनकी चाल अब धीमी हो गई थी। शरीर पर चोटों के निशान थे, जो भीखनपुर थाने की लाठियों ने छोड़े थे। लेकिन दिल में अब और ज्यादा आग थी।

थाने के सामने दो गाड़ियां आकर रुकीं। उनमें से तीन युवक उतरे – सिर्फ बनियान और जींस में, मुंह पर गमछा लपेटे हुए।
अंदर गए और थोड़ी देर में दरवाजा बंद हो गया।
बाबा अब वहां बैठे नहीं रहे। उन्होंने गेरुआ चादर उठाई और सीधे थाने के अंदर चले गए।

“अबे ओ बाबा, कहां चले आ रहे हो? यह कोई मंदिर है क्या?”
अंदर बैठे सिपाही ने चीख कर कहा।
बाबा ने झुक कर उत्तर दिया, “बाबा हूं बेटा। प्यास लगी थी, एक लोटा पानी मिल जाए तो।”
सिपाही ने पहले तो गुस्से से देखा, फिर धीरे से कहा, “रुको, लाता हूं।” और अंदर चला गया।

बाबा वहीं थाने के दीवार के पास खड़े हो गए। दीवार के पार से एक धीमी सी चीख सुनाई दी। फिर किसी के गिरने की आवाज, फिर एक गाली और फिर एक खामोशी।
बाबा समझ चुके थे कि अंदर क्या हो रहा है।
सिपाही पानी लेकर आया तो बाबा ने पूछा, “बेटा, यह किसकी आवाज थी अंदर?”
सिपाही ने हंसते हुए कहा, “अरे बाबा, तुम अपने काम से काम रखो। कुछ लोग हैं जो सरकार के खिलाफ हवा बना रहे हैं। उनसे थोड़ी पूछताछ हो रही है। अब तू जा बाहर बैठ, यहां नहीं रुकना है।”

बाबा ने गिलास नीचे रखा और बाहर आ गए।
लेकिन वह बाहर नहीं गए, बल्कि थाना परिसर के पीछे जाकर बैठ गए। वहीं दीवार के दूसरी तरफ से फिर वही आवाजें आने लगीं।

अचानक एक सिपाही, जिसे बाबा ने अब तक नहीं देखा था, उनके पास आया और बोला, “बाबा, यह जगह ठीक नहीं है। चलिए, आपको मैं स्टेशन के बाहर छोड़ देता हूं।”
बाबा ने उसकी आंखों में झांका और बोला, “बेटा, तू डर रहा है ना? क्या तू जानता है कि अंदर जो चीख रहे हैं वे कौन हैं?”
सिपाही ने कुछ नहीं कहा, बस निगाहें झुका लीं।
बाबा ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा और बोले, “कभी-कभी इंसान का डर भी उसके भीतर का न्याय जगाता है। तू सिर्फ इतना बता दे कि वह लोग कौन हैं।”

सिपाही ने थोड़ा हिचकिचा कर बताया, “तीन युवक हैं बाबा, जो कल आंदोलन में शामिल थे। सरकार के खिलाफ सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था। दरोगा साहब ने उन्हें कल रात उठा लिया बिना केस के और तब से मारपीट जारी है। उनके घर वालों को भी पता नहीं।”

बाबा की सांस थोड़ी गहरी हो गई। उन्होंने सिर हिलाया और बोले, “धन्यवाद बेटा। अब तू अपना रास्ता पकड़ और यह मत सोच कि तूने गलती की।”

रात को जब सब सो गए, बाबा थाने के पीछे वाली दीवार की ओर फिर आए। वहां एक टूटी हुई ईंट की जगह थी जिससे अंदर झांका जा सकता था। उन्होंने देखा – तीन युवक लोहे की चैनों से बंधे हुए थे। एक की पीठ से खून बह रहा था, दूसरे की आंखों पर पट्टी थी और तीसरा चुपचाप एक कोने में पड़ा था।
कमरे में बल्ब टिमटिमा रहा था। दीवार पर दरोगा सुरेंद्र सिंह का फोटो टंगा था, जो इस थाने का प्रभारी था।

बाबा ने वह दृश्य देखा और भीतर से कांप गए। यह वही दृश्य था जो उन्होंने सालों पहले रिपोर्टों में पढ़ा था, जिसकी कभी पुष्टि नहीं हो पाई थी। लेकिन आज उन्होंने खुद अपनी आंखों से देखा।

सुबह बाबा मंदिर के सामने जाकर बैठ गए। वहीं से उन्होंने एक पत्र निकाला। वह पत्र उसी पुलिस मुख्यालय को संबोधित था, जहां आज भी उनकी तस्वीर पर माला छड़ी थी।
उसमें तीन पन्नों में पूरी घटना का ब्यौरा था – दिन, समय, पीड़ितों के नाम, चोटों की प्रकृति और थाने का नाम।
लेकिन उन्होंने पत्र नहीं भेजा। उन्होंने उसे अपने झोले में रखा और बोले, “अब वक्त है कि अगला कदम उठाया जाए। अब तक मैं देख रहा था, अब वक्त है सामने आने का।”

राजापुर थाना, जिसने न जाने कितने बेगुनाहों को जेल में डाला था, अब खुद किसी फंदे में फंसने वाला था।
बाबा अमरगिरी अब साधु नहीं, एक जलते हुए इंसाफ का प्रतीक बन चुके थे। उनकी आंखों में रात की चीखें अब तक गूंज रही थीं।

क्रांति की तैयारी – सबूतों की ताकत

राजापुर थाना छोड़ने के बाद बाबा अमरगिरी ने चलना कम और देखना ज्यादा शुरू किया। अब वे ना सिर्फ पीड़ितों की बातें सुनते थे, बल्कि उन्हें नोट भी करने लगे थे।
उनका थैला अब गेरुआ कपड़ों से नहीं, बल्कि सैकड़ों कहानियों से भर गया था – वो कहानियां जो सिस्टम ने दबा दी थीं, जो अदालतों तक कभी पहुंची ही नहीं और जो चुपचाप किसी के जीवन की सांसें निगल गई थीं।

हर रात वह उन कागजों को पढ़ते जिनमें कुछ लोगों के आंसू सूख चुके थे और कुछ अब भी ताजे थे।
उन्होंने एक अलग ही योजना तैयार कर ली थी। अब वे केवल निरीक्षण नहीं कर रहे थे, बल्कि वह सबूत इकट्ठा कर रहे थे – वीडियो, ऑडियो, बयान और गवाह।

उन्होंने कुछ भले मानुष लोगों की मदद ली, जिन पर उन्हें भरोसा था। गांव के कुछ शिक्षकों, पोस्ट मास्टरों और एक बुजुर्ग वकील ने उन्हें गुप्त तौर पर सहयोग देना शुरू किया।
कोई मोबाइल देता, कोई फाइलें रखता, कोई सबूतों की सुरक्षा करता।

तीन महीने बीत चुके थे। पूरे राज्य को विश्वास था कि एएसपी अजय राणा मर चुके हैं। लेकिन अब उनका दूसरा जन्म हो चुका था – एक ऐसा जन्म जिसमें उनका चेहरा नहीं दिखता था, पर उनका असर साफ महसूस होने लगा था।

जिन थानों में वह गए थे, वहां धीरे-धीरे शिकायतें उठने लगी थीं। उच्च अधिकारियों को अनाम पत्र मिलने लगे थे, जिनमें सबूत होते थे और सच्चाई भी।
कुछ अधिकारी डर गए, कुछ ने नजरअंदाज किया और कुछ ने जांच के आदेश दिए। लेकिन नाम तो किसी का नहीं होता था।

बाबा अब एक रहस्य बन चुके थे – एक चलती-फिरती अदालत। जहां वे जाते, वहां की जमीन कांपती थी।
दरोगा और कांस्टेबलों को लगने लगा था कि कोई है जो हर गलत बात देख रहा है।
पहले वह साधु समझकर नजरअंदाज कर देते थे, अब उनकी आंखों में बाबा के लिए भय था।

सिस्टम का जागना – असली अफसर की वापसी

इसी बीच राजधानी में नए डीजीपी की नियुक्ति हुई और वही दिन था जब बाबा ने पहली बार खुद को उनके सामने उजागर करने की ठानी।
उन्होंने गुप्त रूप से डीजीपी के निवास के बाहर एक लिफाफा पहुंचवाया।
उस लिफाफे में कोई नाम नहीं था, बस लिखा था – “मैं जिंदा हूं। अब लौट रहा हूं। पर इस बार बिना खामोशी के।”
उसके साथ एक पेनड्राइव थी जिसमें तीन थानों के भीतर की रिकॉर्डिंग्स, पीड़ितों के बयान और गवाहों की आवाजें थीं।

डीजीपी पूरी रात वह पेनड्राइव देखते रहे। जो उन्होंने देखा, उससे उनका चेहरा पीला पड़ गया।
उन्हें यकीन नहीं हुआ कि इतना सुनियोजित ऑपरेशन बिना किसी सरकारी शक्ति के कैसे संभव हुआ।

उन्होंने अगली सुबह अपने भरोसेमंद अधिकारियों को बुलाया और बंद कमरे में मीटिंग की।
उस मीटिंग में सिर्फ एक बात हुई – “इस व्यक्ति को ढूंढो। वह जो कहता है कि वह मरा नहीं है। अगर यह अजय राणा है तो अब हमारे पास मौका है इस सिस्टम को साफ करने का।”

इधर बाबा अमरगिरी गंगा किनारे एक छोटे से गांव में पहुंचे थे। वहां के चौकी में सिर्फ एक बूढ़ा सिपाही था जो उन्हें पहचान गया।
वह कांपते हुए उनके पैरों में गिर गया और बोला, “साहब, मैं जान गया था। आपकी आंखें वहीं हैं। पर मैंने किसी को कुछ नहीं बताया। आप इंसाफ के लिए निकले हैं तो मैं आपके साथ हूं।”

बाबा ने उसे उठाया और बोले, “नाम मत ले बेटा। मैं अब सिर्फ एक साधु हूं। जब तक तू अपने मन से आवाज नहीं उठाएगा तब तक मैं कुछ नहीं कर सकता। तुझे तय करना है कि तू सिर्फ एक वर्दी है या इंसाफ का साथी।”

उस बूढ़े सिपाही ने उसी रात गांव के मंदिर में सभा बुलाई।
वहां उसने सबके सामने खड़े होकर कहा कि अब वक्त आ गया है कि लोग खामोश रहना छोड़ें।
बाबा वहीं मौजूद थे, पर किसी ने नहीं पहचाना। लेकिन उनकी आंखें भीग गई थीं।
अब उन्हें यकीन हो चला था कि तूफान आ रहा है – और वह तूफान जल्द ही आया।

अंतिम न्याय – सिस्टम की सर्जरी

एक हफ्ते बाद राजधानी के मुख्य थाने पर छापा पड़ा। राज्य सरकार के आदेश पर सीबीआई ने रेड डाली।
वहीं थानेदार, जो बाबा को लात मारा करता था, अब हाथ जोड़कर माफी मांग रहा था।
जिन्हें लगता था कि उनकी कुर्सी अटल है, अब उनके नाम चार्जशीट में थे।
तीन और थानों में जांच शुरू हुई। दो दरोगा निलंबित हुए, चार सिपाही गिरफ्तार हुए और छह पीड़ित परिवारों को न्याय मिला।

अखबारों में फिर से हेडलाइन आई – “कौन है यह साधु?”
एक के बाद एक भ्रष्ट थानों में उजागर हो रहे घोटाले, टीवी पर बहस चल रही थी – “क्या यह बाबा ही एसपी अजय राणा हैं?”
और पुलिस मुख्यालय में अब लोग फुसफुसाने लगे थे – “शायद वह मरकर लौटे हैं। शायद उन्होंने खुद को जलाया नहीं, छिपा लिया था। शायद अब सच्चाई की चिता में जलेंगे वह सब जिन्होंने इस सिस्टम को बदनाम किया।”

बाबा अब कहीं भी जाते, गांव के लोग सिर झुका कर रास्ता देते।
वह साधु नहीं, उम्मीद बन चुके थे – एक कफन में लिपटी आग, जो अब तिल-तिल कर हर झूठ को भस्म कर रही थी।

शहर के बीचोंबीच बनी वह इमारत, जहां राज्य पुलिस का मुख्यालय था, आज कुछ अलग ही तरह की चहल-पहल से भरा हुआ था।
अधिकारी तेजी से इधर-उधर भाग रहे थे।
कॉन्फ्रेंस रूम में बार-बार फोन बज रहे थे और सभी की निगाहें एक ही दरवाजे की ओर टिक गई थीं।
वहां आज एक विशेष मुलाकात तय थी – एक ऐसे व्यक्ति से जिसे सब ने मरा हुआ समझ लिया था।

दरवाजा खुला और वहां कोई साधु नहीं, बल्कि फिर से वर्दी में लौटे अजय राणा खड़े थे।
उनके चेहरे पर अब वह शांत मुस्कान नहीं थी जो एक साधु के चेहरे पर होती है, बल्कि वह कठोर दृढ़ता थी जो सिर्फ एक सच्चे अफसर की आंखों में होती है।
कंधों पर चमकते हुए सितारे फिर से लौट आए थे, लेकिन इस बार उनका वजन कुछ और ही था – अंदर झेली गई वे सारी रातें, वे तमाचे, वह सलाखें और वह बेगुनाहों की चीखें जो अब उनके खून में दौड़ रही थीं।

कमरे में बैठे डीजीपी उठे और एक क्षण के लिए उन्हें गले लगा लिया।
कोई कुछ नहीं बोला। सब बस देख रहे थे।
वह साधु अब अफसर था, लेकिन अब वह वही अफसर नहीं था जो तीन महीने पहले तक था।
अब वह अजय राणा नहीं, एक जिंदा मिसाल था।

“मुझे कोई अवार्ड नहीं चाहिए, कोई माला नहीं,” अजय राणा ने धीमे स्वर में कहा,
“मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि अब हम बंद दरवाजों से बाहर निकलें। जनता को वह इंसाफ मिले जो आज तक कागजों में बंद रहा।”

अगले कुछ दिनों में उन सभी थानों में सीधी कार्रवाई हुई जिनके खिलाफ उन्होंने सबूत जमा किए थे।
राजापुर, भीखनपुर और तीन और थानों के दरोगा सस्पेंड किए गए।
उन बेगुनाहों को मुआवजा मिला, जिनकी आवाज कोई नहीं सुन रहा था।
मीडिया अब उन्हें “इंसाफ का फकीर” कहने लगी थी।

एक शाम अजय राणा उसी पेड़ के नीचे फिर से बैठ गए, जहां उन्होंने साधु बनकर पहली बार थाने के बाहर इंतजार किया था।
लेकिन इस बार उनके हाथ में भीख का कटोरा नहीं, बल्कि एक रिपोर्ट थी उस सफर की जिसने उन्हें मारकर दोबारा जन्म दिया।

पास ही एक बच्चा खड़ा होकर उन्हें देख रहा था।
वो धीरे से आया और पूछा, “आप वह बाबा हैं ना, जो अब पुलिस वाले बन गए?”
अजय राणा मुस्कुराए। बच्चे के सिर पर हाथ रखा और बोले, “ना बेटा, मैं बस वह आदमी हूं जिसने चुप रहना छोड़ दिया।”

वर्दी लौट आई थी, मगर अब उसमें सिर्फ ताकत नहीं, तपस्या भी थी।
और इसी के साथ खत्म हुआ एक सफर और शुरू हुई एक नई क्रांति।

सीख:
सच्चा बदलाव तभी आता है जब कोई इंसान अपनी पहचान, आराम और सुरक्षा छोड़कर सिस्टम की जड़ हिलाने निकलता है।
अजय राणा की कहानी बताती है – क्रांति के लिए कभी-कभी खुद को मिटाना पड़ता है, मगर लौटना भी उसी ताकत के साथ चाहिए, ताकि हर बेगुनाह को इंसाफ मिले।

अगर आपको यह कहानी प्रेरणादायक लगी हो, तो इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर शेयर करें। ऐसी ही कहानियां पढ़ने के लिए चैनल को सब्सक्राइब करें, और अपने सुझाव कमेंट में बताएं। जय हिंद!