Is Buhry Shakhsh ny Poora Banking System Hi Hila Dala – Sabaq Amoz Waqia

 असलम खान का सफर

गांव की कच्ची गलियों से चलते हुए जब वह बुजुर्ग शख्स, असलम खान, शहर की पक्की सड़कों तक पहुंचा तो कई निगाहें उस पर उठीं। मगर उन निगाहों में ना तो इज्जत थी, ना अपनापन, बस अजनबियत, गुरूर और तिरस्कार। असलम खान एक किसान था, जो जिंदगी के आखिरी पड़ाव में था। लेकिन दिल में एक ख्वाब जिंदा था—हज की अदायगी। इसके लिए उसने पूरी जिंदगी मेहनत की, फसलें बेचीं, एक-एक रुपया बचाया। कभी मौसम ने साथ दिया, तो ज्यादा बचत हुई; कभी नहीं दिया, तो कर्ज में डूब गया। लेकिन एक बात तय थी—हज पर जरूर जाना है, अल्लाह के दरबार में सर झुकाना है। यही ख्वाब हर सुबह उसकी आंखें खोलता और हर रात दिल में उम्मीद का चिराग रोशन कर देता।

उस रोज फज्र की नमाज के बाद असलम रवाना हुआ। बेटे ने कहा, “अब्बा, मैं हज प्लस पैकेज का बंदोबस्त कर दूं, आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।” मगर असलम ने हाथ उठाकर मना कर दिया, “बेटा, यह हज मैं अपनी मेहनत, अपनी नियत और अपनी कुर्बानी से करना चाहता हूं।”

असलम ने अपना पुराना बस्ता उठाया, जिसमें तीन जोड़ी कपड़े, एक पुराना कुरान शरीफ, जरूरी कागजात और सारी जिंदगी की जमा पूंजी थी। बस्ते में कई जगह पैबंद लगे थे, जिप कमजोर थी, मगर उसमें सिर्फ सामान नहीं, एक ख्वाब की नरम परछाईं थी। जिस हज ऑफिस का पता मिला था, वह शहर के आलीशान इलाके में था। बड़े-बड़े बैनर, शीशे के दरवाजे, एसी हॉल, सफेद यूनिफार्म में स्टाफ—यह सब असलम के लिए नया नहीं था, मगर गैर मानूस जरूर था। उसे इल्म था कि शहर वाले किसानों को तवज्जो नहीं देते, मगर हज जैसे मुकद्दस अमल में भी लोग कपड़े, चाल या बस्ते देखकर तौलेंगे, यह अंदाजा नहीं था।

ऑफिस के सामने पहुंचा, तो कुछ पल ठहर गया। अंदर जाने से पहले हाथ उठाए, “या अल्लाह, तू जानता है कि मैं तेरे दर पर आ रहा हूं। अगर कोई रुकावट आए, तो सब्र अता कर, और अगर इज्जत मिले, तो शुक्र।” फिर दरवाजा धकेला और ठंडी हवा के साथ एक नए इम्तिहान का आगाज हो गया।

जैसे ही अंदर दाखिल हुआ, खुशबूदार माहौल, कीमती फर्नीचर, मुस्कानें—मगर वह खुद उस तस्वीर का हिस्सा नहीं लगता था। सफेद कुर्ता, मेला सा पायजामा, चप्पलें जो कई बार मरम्मत हो चुकी थीं—यही उसका जाहिरी हुलिया था। मगर असल पहचान उसकी नियत में थी। अफसोस, वहां बैठे लोग उस नियत तक पहुंचने की सलाहियत नहीं रखते थे। रिसेप्शन पर बैठी लड़कियां एक दूसरे को देख मुस्कुराईं, जैसे कोई मजाक सामने आ गया हो। एक औरत ने अपने बच्चे को पास खींच लिया, “बेटा, इन बाबा जी से दूर रहना, ये तो कोई फकीर लगते हैं।” एक अफसर ने असलम को ऊपर से नीचे देखा और मुंह बना लिया, जैसे यह हज ऑफिस नहीं, फाइव स्टार होटल का वेटिंग एरिया हो।

असलम खान सब महसूस कर रहा था, मगर बाहर से खामोश और पुरसुकून था। धीरे-धीरे रिसेप्शन की तरफ बढ़ा। लड़की ने चेहरा सख्त कर लिया, जैसे उसकी खुशबूदार दुनिया में किसी ने बदबू छोड़ दी हो। असलम ने नरम आवाज में कहा, “बेटी, मैं हज रजिस्ट्रेशन के लिए आया हूं,” और अपना शिनाख्ती कार्ड मेज पर रख दिया। लड़की ने कार्ड को हाथ भी ना लगाया, बस तुर्श लहजे में बोली, “बाबा जी, यह खैरात का दफ्तर नहीं है। हज बहुत महंगा होता है, खासतौर पर हमारा प्लस पैकेज लाखों में है। आप अपना वक्त बर्बाद ना करें। अगर मदद चाहिए, तो बलदिया ऑफिस जाइए।”

सिक्योरिटी गार्ड आगे आया, “बाबा जी, यहां कोई हंगामा बर्दाश्त नहीं होगा। अगर रजिस्ट्रेशन नहीं कर सकते, तो बाहर जाएं। यह जगह मुअज्जिज लोगों के लिए है।” असलम ने सब की तरफ देखा, हैरान नहीं था। उसे मालूम था कि शहर में इज्जत कपड़ों, बैंक बैलेंस और मोबाइल के ब्रांड से मिलती है। मगर यह जगह तो अलग होनी चाहिए थी। यहां नियत देखी जाती, इबादत समझी जाती, इंसानियत सराही जाती। मगर यहां भी तराजू वही था।

रिसेप्शन के पीछे दीवार पर एक आयत लिखी थी—”अल्लाह नियतों को जानता है।” असलम ने आयत देखी और हल्के से मुस्कुरा दिया। फिर अपना पुराना बस्ता खोला, जिसमें ता उम्र की मेहनत छुपी थी। मगर जैसे ही झिप खोली, कुछ लोग हंसने लगे, “बच के रहना, कहीं बाबा जी के बैग में मरा हुआ चूहा ना निकल आए।” ठहाकों की लहर फैल गई।

असलम खान ने नजरें झुका ली, दिल में कहा, “या अल्लाह, अब सब्र तेरा इम्तिहान है।” रिसेप्शन पर गूंजती हंसी, तंजिया जुमले, बेहिस निगाहें—असलम खान ना जवाब दे रहा था, ना शिकवा। बस अपने दोनों हाथों से कपड़े का बस्ता थाम रखा था, जैसे कोई मासूम बच्चा जुल्म देख रहा हो, मगर चुप है, क्योंकि उसे यकीन है कि सच बोलने के लिए वक्त खुद आवाज बन जाता है।

तभी एक अफसर बढ़ा, “बाबा जी, हज की नियत नेक है, लेकिन ख्वाबों को हकीकत में बदलने के लिए पैसा चाहिए। हमारे यहां प्लस पैकेज लाखों में है। आप जैसे लोग स्पॉनसरशिप ढूंढते हैं, मगर हमारे यहां ऐसी कोई स्कीम नहीं है।” फिर हंसी का बवंडर उठा। एक साहब बोले, “बेगम, तुमने सुना, बाबा जी बिना पैसों के हज जाना चाहते हैं।” खातून ने नाक सिकोड़ते हुए कहा, “हद हो गई, अब फकीर भी खाना-ए-काबा के ख्वाब देखने लगे हैं।”

असलम खान सीधा खड़ा था, वकार और इज्जत के साथ। हाथ में शिनाख्ती कार्ड था, मगर किसी ने छुआ तक नहीं। तभी एक और स्टाफ मेंबर आगे आया, “अगर रजिस्ट्रेशन करानी है, तो फीस जमा कराइए। दुआ, नियत या गरीबी से हज नहीं होता।”

असलम खान ने बस्ता जमीन पर रखा, चुपचाप झिप खोलने लगा। सबको यकीन था, उसमें सिर्फ पुराने कपड़े या किसी सरकारी स्कीम की अर्जी होगी। रिसेप्शनिस्ट ने हंसते हुए कहा, “कहीं यह प्राइस बॉन्ड ना निकाल दें, या पैसे के बदले चिल्लर।” सिक्योरिटी गार्ड बोला, “अगर बैग में कुछ गड़बड़ निकली, तो पुलिस बुला लेंगे।”

मगर असलम खान ने सब आवाजें नजरअंदाज कर दीं। बस्ता खुलता गया, कमरे की हंसी थमती गई। अब हर निगाह उसके हाथों की हरकत पर थी। वह धीरे से निकालने लगा—प्लास्टिक में लिपटे साफ-सुथरे नोटों के बंडल। एक नहीं, दो नहीं, पूरी गड्डियां। हर गड्डी ₹2000 के ताजा नोटों से भरी हुई। कमरे में जैसे खामोशी का धमाका हुआ। एक लम्हे के लिए सब कुछ थम गया। जो शख्स अब तक मजाक था, अब सवाल बन गया था।

रिसेप्शन पर बैठी लड़की घबराकर पानी का गिलास गिरा बैठी। वही अफसर जो कॉफी कप लिए तंज कर रहा था, अब नजरें चुराता शर्मिंदगी से जड़ हो चुका था। असलम खान ने गड्डियां काउंटर पर रखते हुए कहा, “30 साल की मेहनत है। एक-एक दाना बेचकर जमा किया है। किसान हूं, फकीर नहीं। बेटा मेरा अफसर है, मगर हज मैं अपनी कमाई से करने आया हूं।”

कमरे में हर सांस रुक सी गई। जिसे कुछ पल पहले तमाशा, भिखारी और फकीर कहा जा रहा था, अब वह सबका आईना बन गया था। उस आईने में सबको अपनी बदसूरती दिखाई दे रही थी—अखलाक की बदसूरती, रवयों की गंदगी, दिलों की तंगदिली।

असलम खान ने नरम लहजे में कहा, “30 साल लगे यह जमा करने में। जमीन जोती, धूप में झुलसा, बारिश में भीगा। मगर एक दिन भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। यह सब मैंने अल्लाह के घर के लिए जमा किया है, अपने खून-पसीने से।”

कमरे में मौजूद हर शख्स अब शर्म से झुका हुआ था। ना उसके हाथ कांप रहे थे, ना आवाज में कोई लरजिश थी। चेहरे पर ना गुस्सा था, ना शिकवा, बस वकार और सब्र था। तभी ऑफिस के अंदरूनी कमरे से एक सीनियर अफसर निकला, “सर, अगर आप पहले ही बता देते कि आपके पास इतनी रकम है, तो हम तो वीआईपी सर्विस दे देते।”

असलम ने उसकी तरफ देखा, “और अगर मेरे पास ना होती तो?” खामोशी। कहानी की सबसे ऊंची चीख अब एक धीमे सवाल में बदल चुकी थी। फिर असलम खान ने वह जुमला कहा जो वहां मौजूद हर रूह तक उतर गया, “यह पैसे दिखाने के लिए नहीं लाया, हज की नियत से लाया हूं। मगर तुम सब ने मेरे बस्ते, कपड़े और चाल को देखकर मुझे भिखारी समझ लिया। क्या तुम्हें मालूम नहीं? अल्लाह के घर का रास्ता दिल से शुरू होता है, बैंक बैलेंस से नहीं।”

कमरे की फिजा घुटी-घुटी सी हो गई थी। लोग सिर्फ असलम खान को नहीं देख रहे थे, वो अब अपने जमीर का आईना देख रहे थे। काउंटर पर रखा बस्ता अब सामान नहीं था, वह सबके लिए खुली किताब बन चुका था।

असलम ने फिर कहा, “और हां, एक बात और—मेरा बेटा इरफान खान इस वक्त जिला मजिस्ट्रेट है। मगर मैं उसके नाम या ओहदे से नहीं आया, मैं अपनी कमाई से हज करने आया हूं। खुद्दार हूं, खैरात नहीं लेता।”

यह सुनना था कि जैसे हर चेहरे का रंग ही बदल गया। जो लोग अब तक उसे हिकारत से देख रहे थे, उनकी आंखों में अब खौफ, अफसोस और शर्मिंदगी के साए थे। कोई नहीं जानता था कि यह वही असलम खान है, जिसे वो फकीर समझ बैठे थे। दरअसल, एक ताकतवर अफसर का वालिद था और उससे भी बढ़कर एक गैरतमंद, सच्चा इंसान।

ऑफिस का माहौल जो कुछ पल पहले तंज, हंसी और तकब्बुर से गूंज रहा था, अब एक खौफजदा सन्नाटे में तब्दील हो चुका था। एक नौजवान स्टाफ मेंबर तुरंत मोबाइल पर इरफान खान का नाम सर्च करने लगा। कुछ ही सेकंड में हकीकत सामने थी। इरफान खान जिला मजिस्ट्रेट, सख्त लेकिन ईमानदार अफसर। एक वीडियो खुली जिसमें इरफान कह रहा था, “मेरा बाप एक किसान है। उसने मुझे खुद्दारी सिखाई, इज्जत कमाना सिखाया और किसी के आगे हाथ ना फैलाने का हौसला दिया।”

रिसेप्शन पर बैठी लड़की के हाथ से फाइल गिर गई। पूरे ऑफिस में अब बस एक जुमला तैर रहा था, “वो फकीर नहीं था, डीएम का बाप था।” सिक्योरिटी गार्ड अब पसीने में तर-बतर खामोश खड़ा था। वही अफसर जो तंज कस रहा था, अब कुर्सी छोड़कर दौड़ा आया, “सर, हमें माफ कर दीजिए। हमें नहीं पता था आप कौन हैं। हम सब शर्मिंदा हैं।”

असलम खान ने अपनी झुर्रियों भरी आंखों से देखा, “अगर मैं किसी अफसर का बाप ना होता, अगर मेरे पास पैसे ना होते, तो क्या तब भी तुम्हारा रवैया यही होता?” कोई जवाब नहीं था। वो कमरा जो कुछ पल पहले हंसी, बेहूदगी और तौहीन से गूंज रहा था, अब गुनाह, शर्म और तौबा की खामोशी में डूबा था।

एक स्टाफ मेंबर ने हाथ जोड़कर कहा, “सर, हम आपका वीआईपी रजिस्ट्रेशन मुफ्त में कर देते हैं।” मगर असलम खान की आंखों में अब सुकून नहीं, सदमा था। उसने शिनाख्ती कार्ड उठाया, बस्ता कंधे पर लटकाया और धीमे कदमों से पीछे हटने लगा। उसका चेहरा कह रहा था—अब यहां रुकने का कोई फायदा नहीं। यह वो जगह नहीं जहां नियत को इज्जत मिलती है। यहां तो नाम, कपड़े और ओहदा देखकर फैसले होते हैं।

दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए एक रिसेप्शनिस्ट आगे आई, कांपती आवाज में बोली, “बाबा जी, प्लीज माफ कर दीजिए। हमें नहीं पता था…” असलम ने नरमी से हाथ उठाकर कहा, “बेटी, गलती यह नहीं थी कि तुम मेरे बेटे का ओहदा नहीं जानती थी, असल गलती यह थी कि तुम्हें मेरा इंसान होना नजर नहीं आया।” यह कहकर वह बाहर निकल गया।

अब वह किसी कांच की इमारत या एसी ऑफिस की दहलीज पर नहीं पहुंचा। गालियों से गुजरते हुए एक पुराने मोहल्ले में आया। यहां कोई चमक नहीं थी, ना सजी रिसेप्शनिस्ट, ना सिक्योरिटी गार्ड। मगर असलम की आंखों में सुकून था। मोहल्ले के आखिर में लकड़ी का बोर्ड दिखा—”अमीन हज उमरा कंसलटेंसी, सादा सेवा, सच्ची नियत।”

असलम ने दरवाजा खोला। दो नौजवान मेज के पास फॉर्म देख रहे थे। एक लड़का तुरंत खड़ा हुआ, “आइए बाबा जी, तशरीफ लाइए, पानी लाऊं?” असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं बेटा, मैं हज रजिस्ट्रेशन के लिए आया हूं।” लड़के ने कागज समेटे, “बाबा जी, हमारे यहां फॉर्म भरना बहुत आसान है। आप बस फॉर्म भर दीजिए, बाकी सब हम देख लेंगे। पैसे बाद में भी आ जाएं तो कोई बात नहीं। हमें आपकी नियत पर भरोसा है।”

यह जुमला जैसे असलम के दिल के जख्म पर मरहम बन गया। ना शक, ना सवाल, सिर्फ भरोसा। असलम ने अपना बस्ता रखा। झिप खोलने ही वाला था कि लड़का बोला, “बाबा जी, पहले फॉर्म भरिए, बस्ता बाद में खोलिए। आप हमारी बरकत हैं। आपकी मौजूदगी ही हमारे लिए इज्जत है।”

असलम की आंखें भीग गईं, मगर चेहरे पर रोशनी थी। उसने कलम उठाया और फॉर्म भरने लगा। हर लफ्ज के साथ उसे लग रहा था जैसे उसकी हर दुआ कबूल हो रही है। उसने ना दौलत का जिक्र किया, ना बेटे के ओहदे का। क्योंकि यहां उसे वह सब मिल रहा था जो शहर की ऊंची दीवारों के पीछे तलाश रहा था—इंसानियत, वकार और बेलॉस व्यवहार।

रजिस्ट्रेशन पूरा हुआ। लड़के ने धीरे से कहा, “बाबा जी, जब फुर्सत हो तब फीस जमा कर दीजिएगा। हम पहले आपको इंसान समझते हैं, ग्राहक बाद में।” यह जुमला असलम खान की जिंदगी की सारी मेहनत पर एक खूबसूरत मोहर था। उसने बस्ते से पैसे निकाले, “बेटा, यह 30 साल की मेहनत है। आज लगता है सही जगह लाया हूं।” लड़के ने पैसे को हाथ तक ना लगाया, “हमारी सेवा भी हज का हिस्सा है। अल्लाह आपकी नियत कबूल करे।”

बाहर निकलते वक्त असलम के कदम हल्के हो चुके थे। कुछ बच्चे खेलते हुए आए, “दादा जी, कहां जा रहे हैं?” असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “बच्चों, मैं अल्लाह के घर जा रहा हूं, मगर तुम्हारी दुआओं के साथ।” पास से सब्जी वाली बोली, “अल्लाह आपको सलामत रखे चाचा, आप हमारे मोहल्ले की बरकत हैं।”

असलम को अब वह मिला जो शहर के शीश महलों में खो गया था—इंसानियत। अब वह जान गया था, असली इज्जत ना यूनिफार्म में है, ना टेबल के पीछे की आवाज में, बल्कि उन सादा लहजों, खरी निगाहों, और सच्चे दिलों में है, जो कपड़ों से नहीं, किरदार से पहचानते हैं।

अब हज की तैयारी शुरू थी। असलम अपने गांव लौटा। ना उसने किसी से तौहीन का जिक्र किया, ना बेटे के ओहदे की डींग मारी। बस इतना कहा, “अल्लाह ने मेरा हज कबूल कर लिया है। अब तालीम का वक्त है।” करीब की जामा मस्जिद में हर जुम्मे के बाद हज की तालीम होती थी। दीवारें पुरानी थीं, फर्श टूटा हुआ, पंखे धीरे-धीरे चलते थे, मगर दिल पाक थे, नियतें साफ, जज्बे खालिस।

असलम सबसे पहले आता, सफें सीधी करता, मस्जिद की सफाई करता, अगली सफर में बैठता। उसके पास कोई बड़ी हज गाइड नहीं थी, ना महंगा बैग। मगर एक पुरानी नोटबुक और स्याही वाला कलम था, जिसमें वह हर हिदायत को नोट करता, हर बात को समझता। इमाम साहब ने भी महसूस किया, “चाचा असलम, आप तो हर बात बड़ी संजीदगी से नोट करते हैं।” असलम ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “मौलवी साहब, मैं 30 साल से इस लम्हे का इंतजार कर रहा हूं। यह मेरा ख्वाब नहीं, मेरी दुआ है जो कबूल हुई है।”

गांव के लोग अब उन्हें सिर्फ किसान या बुजुर्ग नहीं, बल्कि एक बावखार शख्सियत मानने लगे थे। किसी को यह इल्म ना था कि शहर में उनके साथ क्या गुजरी। ना वह बताते, ना किसी से शिकवा करते। एक दिन मस्जिद में एक नौजवान आया, जो हाल ही में शहर से लौटा था। उसने मोबाइल निकाला, एक वीडियो दिखाते हुए कहा, “चाचा, यह आप ही हैं ना जो हज ऑफिस में सबको आईना दिखा आए।”

असलम खान ने वीडियो देखी, चेहरे पर हल्की मुस्कान उभरी, “बेटा, यह वीडियोस लम्हाती होते हैं, कल नहीं आ जाएंगी। मगर जो सबक सिखा दें, वह उम्र भर के लिए होता है। मैं बदला लेने नहीं गया था, सिर्फ हज की नियत से निकला था। बाकी सब अल्लाह ने खुद करवा दिया।”

अब वह सिर्फ असलम खान नहीं थे, वह थे हज पर जाने वाले चाचा असलम, जिन्होंने दुनिया को खामोशी से शर्मिंदा कर दिया। मोहल्ले की औरतों ने उनके लिए एहराम का सफेद कपड़ा धोया। मस्जिद के बच्चों ने उनके बस्ते को साफ करके सुखाया। मौलवी साहब ने ऐलान किया, “चाचा असलम की रवानगी के दिन मस्जिद में खास दुआ होगी।”

वो गांव जो कभी सिर्फ धान, गेहूं और मिट्टी से पहचाना जाता था, अब फक्र से कहता था, “हमारे यहां से एक ऐसा हाजी जा रहा है, जो सब्र, नियत और खुद्दारी का पुतला है।”

आखिरकार वो दिन आ गया, जिसका असलम खान ने बरसों से इंतजार किया था। हज की रवानगी के लिए गांव में हलचल थी। मस्जिद में दुआ का खास इंतजाम हुआ। सफेद एहराम में मलबूस असलम खान जब सादगी से मस्जिद के दरवाजे पर पहुंचे, तो पूरा मजमा अदब से खड़ा हो गया। मौलवी साहब ने उनके हाथ चूमे, “आप सिर्फ हाजी नहीं, हमारे गांव की इज्जत हैं।” बच्चों ने वही पुराना बस्ता, प्यार से साफ करके लौटाया। मोहल्ले की औरतों ने दुआओं के साथ खजूरें और पानी की बोतल रखी।

बस स्टैंड तक असलम खान को दर्जनों लोग छोड़ने आए। जैसे ही बस आई, वो धीमे-धीमे सीढ़ियां चढ़ने लगे। पीछे से आवाज आई, “बाबा जी, एक तस्वीर तो खिंचवा लीजिए।” असलम ने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं बेटा, हज की नियत तस्वीर से नहीं, दिल से होती है।”

बस के शीशे से झांकते हुए उनकी आंखों में सुकून था। उन्हें अब यह समझ आ गया था—अल्लाह ने उन्हें सिर्फ हज के लिए नहीं, दुनिया को आईना दिखाने के लिए भी चुना था।

शहर का हज ऑफिस अब सोशल मीडिया की वायरल वीडियो की वजह से जनता के गुस्से की गिरफ्त में था। न्यूज़ चैनल्स पर हेडलाइंस चल रही थीं—”डीएम के वालिद की तौहीन, हज ऑफिस का शर्मनाक रवैया, लिबास नहीं नियत अहम है।” ऑफिस के कई मुलाजिम सस्पेंड कर दिए गए। मैनेजर ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “हमें इस वाक्य पर शर्म है।” मगर असलम खान को इस सब से कोई फर्क नहीं पड़ा। ना किसी की माफी का इंतजार, ना किसी हेडलाइन की खुशी, ना किसी मुआवजे की उम्मीद। उनके लिए असल मकसद हज था—अल्लाह का बुलावा।

हज के दौरान वह सादगी से हर मंसक अदा करते रहे। हर कदम पर अल्लाह का शुक्र अदा करते। हरम के सहन में बच्चों को पानी पिलाते, हाजियों के जूते सीधा करते। अराफात की दोपहर, सबसे अलग एक कोने में बैठे और दुआ मांगी, “या अल्लाह, जिन्होंने मेरा दिल दुखाया, उन्हें माफ कर दे। जिन्होंने मेरे दिल को समझा, उन्हें अपने करीब कर ले। तूने जो इज्जत दी, उसे अमानत समझकर वापस ले आया हूं।”

हज से लौटने पर गांव में फिर से जश्न था। मस्जिद में लोग उनसे गले मिले, दुआएं लीं, “आप हमें सिर्फ खाना-ए-काबा की जियारत नहीं दिखाकर लाए, इंसानियत का रास्ता दिखा आए।”

आखिर में इरफान खान ने एक सादा सी सोशल मीडिया पोस्ट लिखी, “मेरा बाप कभी किसी कुर्सी पर नहीं बैठा, ना किसी बड़े ऑफिस का मालिक था, ना सूट पहनता था। मगर उसने मुझे सिखाया कि असली अजमत लिबास में नहीं, नियत में होती है। अगर कोई फकीर लगे, तो पहले दिल देखो। शायद वह अल्लाह के सबसे करीब हो।”

नीचे बस एक लफ्जी तहरीर थी—”हज पर वही जाता है जिसे अल्लाह बुलाता है, ना कि जिसे इंसान इजाजत देता है।”

आज भी असलम खान वही पुरानी चप्पल पहनते हैं, वही कपड़े, वही बस्ता। मगर अब उनकी कहानी लाखों दिलों में जिंदा है, एक सबक बनकर, एक चिराग बनकर, जो आज के अंधेरे दौर में रोशनी बांट रहा है।

समाप्त