व्यापारी दिवालिया हो चुका था, जब उसके पुराने कर्मचारी ने उसे देखा तो उसने कुछ ऐसा किया जिसने इतिहास बना दिया।

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कहानी: वफादारी का अनमोल उपहार

किस्मत का खेल कभी-कभी इतना बेरहम होता है कि वह अर्श पर बैठे शहंशाह को एक ही झटके में फर्श पर लाकर खड़ा कर देती है। यह कहानी है सेठ रामचंद्र गुप्ता की, एक ऐसे स्वाभिमानी व्यवसायी की जिनका नाम कभी दिल्ली के कारोबारी जगत में सूरज की तरह चमकता था। यह कहानी उस बेरहम वक्त की है जिसने उस सूरज को एक गहरे ग्रहण में छिपा दिया और यह कहानी है समीर की, एक ऐसे वफादार कर्मचारी की जो अपने सेठ को सिर्फ एक मालिक नहीं बल्कि एक गुरु और पिता मानता था।

सेठ रामचंद्र गुप्ता की पहचान उनके व्यवसाय से नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व से थी। वह एक सेल्फ मेड इंसान थे, जिन्होंने अपनी जिंदगी की शुरुआत दिल्ली के चांदनी चौक की गलियों में एक छोटी सी कपड़े की फेरी लगाकर की थी। अपनी मेहनत, पारखी नजर और अटूट ईमानदारी के दम पर उन्होंने 40 सालों में गुप्ता टेक्सटाइल्स का साम्राज्य खड़ा किया। उनके चार मंजिला सफेद संगमरमर की इमारत में रंग-बिरंगे कीमती कपड़ों के थान ऐसे चमकते थे जैसे किसी राजा का खजाना सजा हो।

सेठ जी के लिए उनका कारोबार सिर्फ एक बिजनेस नहीं बल्कि एक इबादतगाह था। उनके सैकड़ों कर्मचारी उनके लिए सिर्फ मुलाजिम नहीं थे, बल्कि उनका परिवार थे। वह कहते थे, “यह मशीनें, यह कपड़े, यह सब तो बेजान हैं। मेरी असली दौलत तो मेरे ये लोग हैं जो मेरे साथ अपना खून पसीना बहाते हैं।” उन्होंने हमेशा अपने कर्मचारियों के जीवन में सुधार लाने की कोशिश की। किसी कर्मचारी की बेटी की शादी हो या किसी के बच्चे की पढ़ाई, सेठ जी का हाथ हमेशा मदद के लिए आगे रहता।

इसी परिवार में एक हीरा था समीर। समीर बिहार के एक छोटे से सूखे पड़े गांव से अपनी आंखों में बड़े सपने और जेब में चंद रुपए लेकर दिल्ली आया था। वह गरीब था, लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी आग थी। कई दिनों तक दर-दर भटकने के बाद जब हर जगह से उसे निराशा ही हाथ लगी, तो किसी ने उसे गुप्ता टेक्सटाइल्स का पता दिया।

जब समीर डरा-सहमसा सेठ रामचंद्र के आलीशान ऑफिस में दाखिल हुआ, तो सेठ जी ने एक ही नजर में उस दुबले-पतले पर होनहार लड़के के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। “क्या कर लेते हो?” सेठ जी ने अपनी भारी आवाज में पूछा। “साहब, जो भी काम देंगे, पूरी लगन से करूंगा,” समीर की आवाज में एक सच्चाई थी। सेठ जी ने उसे अपनी दुकान में एक छोटे से हेल्पर के काम पर रख लिया और फिर समीर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

समीर ने उस दुकान को अपना मंदिर मान लिया। वह दिन में 18-18 घंटे काम करता। कपड़ों के थान ढोता, दुकान की सफाई करता और जब भी मौका मिलता, सेठ जी को कारोबार की बारीकियां सीखते हुए गौर से देखता। सेठ जी भी उसकी इस लगन और ईमानदारी से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने समीर को अपने बेटे की तरह माना।

समीर ने अगले 10 सालों में एक हेल्पर से उस कंपनी का जनरल मैनेजर बन गया। सेठ जी अब आंखें बंद करके उस पर भरोसा करते थे। समीर ने भी उस भरोसे को लाज रखी। उसने अपनी मेहनत और नई सोच से गुप्ता टेक्सटाइल्स को नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। सेठ जी ने समीर की छोटी बहन की शादी में एक बाप की तरह सारा खर्चा उठाया। उन्होंने समीर को दिल्ली में एक छोटा सा घर खरीदने में भी मदद की।

पत्नी के साथ सेठ जी की जिंदगी में खुशियां थीं, लेकिन धीरे-धीरे समय ने अपना रुख बदलना शुरू किया। सेठ रामचंद्र की उम्र बढ़ रही थी और उनका इकलौता बेटा जो अमेरिका में रहता था, उनके पारंपरिक कारोबार में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था। सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी अपने ही एक पुराने मुनीम के बेटे राकेश से कर दी थी। राकेश बेहद चतुर, चापलूस और लालची किस्म का इंसान था। उसने अपनी मीठी-मीठी बातों से सेठ जी का विश्वास जीत लिया।

सेठ जी ने धीरे-धीरे कारोबार की सारी बागडोर अपने दामाद राकेश के हाथों में सौंप दी। समीर को राकेश की नीयत पर हमेशा से शक था। उसने कई बार सेठ जी को आगाह करने की कोशिश भी की, लेकिन सेठ जी अपनी बेटी के प्यार में और अपने दामाद के अंधे विश्वास में कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे।

फिर एक दिन राकेश ने अपना असली रंग दिखाना शुरू किया। उसने समीर को, जो उसकी राह का सबसे बड़ा कांटा था, झूठे इल्जामों में फंसाकर नौकरी से निकलवा दिया। समीर के लिए यह एक बहुत बड़ा सदमा था। पर उसे अपनी बेगुनाही साबित करने का कोई मौका नहीं दिया गया।

समीर के जाने के बाद राकेश ने गुप्ता टेक्सटाइल्स को दीमक की तरह अंदर ही अंदर खोखला करना शुरू कर दिया। उसने झूठी कंपनियां बनाई। कंपनी के पैसे उन कंपनियों में ट्रांसफर किए और धीरे-धीरे सारा माल ओनेपौने दाम में अपने ही लोगों को बेचना शुरू कर दिया।

सेठ रामचंद्र, जो अब ज्यादातर घर पर ही रहते थे, को इन सब की भनक तक नहीं लगी। और फिर एक दिन जब तक उन्हें कुछ समझ आता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गुप्ता टेक्सटाइल्स, दिल्ली का वह विशाल साम्राज्य, अब दिवालिया हो चुका था। बैंकों का करोड़ों का कर्ज सिर पर था और राकेश कंपनी का सारा बचा खुचा पैसा लेकर रातोंरात विदेश भाग गया।

सेठ रामचंद्र पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। उनके चार मंजिला दुकान नीलाम हो गई। उनका आलीशान बंगला बिक गया। उनकी जिंदगी भर की कमाई, उनकी इज्जत, उनका सब कुछ एक पल में मिट्टी में मिल गया। इस सदमे को उनकी पत्नी बर्दाश्त नहीं कर पाईं और कुछ ही महीनों में वह भी चल बसीं।

सेठ रामचंद्र, जो कल तक दिल्ली के शहंशाह थे, आज सड़क पर आ गए। उनकी अपनी बेटी ने भी उनसे मुंह फेर लिया। 5 साल बीत गए। इन 5 सालों में दिल्ली बहुत बदल चुकी थी। समीर ने गुप्ता टेक्सटाइल्स से निकलने के बाद हार नहीं मानी। उसने सेठ जी के दिए हुए हुनर और उसूलों को अपनी ताकत बनाया।

उसने एक छोटी सी कपड़े की ट्रेडिंग कंपनी शुरू की। अपनी मेहनत और ईमानदारी के दम पर आज उसकी कंपनी समीर अपेरल्स दिल्ली की सबसे तेजी से उभरती हुई गारमेंट कंपनियों में से एक थी। वह आज खुद एक करोड़पति था। वह एक आलीशान घर में रहता था और महंगी गाड़ियों में घूमता था।

लेकिन इस सारी कामयाबी के बावजूद उसके दिल में एक टीस हमेशा रहती थी—अपने सेठ जी की। उसने पिछले 5 सालों में उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की, पर उनका कुछ पता नहीं चला।

फिर एक बरसात की शाम किस्मत ने इन दो बिछड़ी हुई आत्माओं को फिर से मिला दिया। समीर अपनी नई मर्सिडीज से किसी मीटिंग से घर लौट रहा था। निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन के पास ट्रैफिक जाम में उसकी गाड़ी फंस गई। बारिश हो रही थी। वह अपनी गाड़ी के बंद शीशों से बाहर की भीगती हुई भागती हुई दुनिया को देख रहा था।

तभी उसकी नजर फुटपाथ पर एक फ्लाईओवर के नीचे सिकुड़कर बैठे एक बूढ़े आदमी पर पड़ी। बारिश के ठंडे पानी में वह बुरी तरह से कांप रहा था। उसके कपड़े फटे हुए थे और शरीर हड्डियों का एक ढांचा मात्र। समीर का दिल उस लाचार बुजुर्ग को देखकर पसीज गया।

उसने अपने ड्राइवर को कुछ पैसे देकर उस बुजुर्ग को देने के लिए कहा। पर तभी उस बुजुर्ग ने ठंड से बचने के लिए अपना चेहरा अपनी फटी हुई शॉल में छिपा लिया। और एक पल के लिए जब उसने अपना चेहरा उठाया तो समीर को जैसे हजारों वोल्ट का बिजली का झटका लगा। वही आंखें, वही चेहरा। बस अब उन आंखों में वह पुरानी रौबदार चमक नहीं थी। उन आंखों में अब सिर्फ बेबसी, लाचारी और टूटा हुआ स्वाभिमान था।

वह सेठ रामचंद्र थे। समीर को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह जो कभी हजारों लोगों को रोजी रोटी देते थे, आज खुद एक भिखारी की हालत में सड़क पर बैठे थे। समीर अपनी करोड़ों की गाड़ी, अपना सारा काम सब कुछ भूलकर दरवाजा खोलकर उस बारिश में बाहर भागा। वह दौड़ता हुआ उनके पास पहुंचा।

सेठ जी उस आवाज को सुनकर रामचंद्र जी ने धीरे से सिर उठाया। उन्होंने अपने सामने खड़े उस अमीर सूट-बूट पहने नौजवान को देखा। वह उन्हें पहचान नहीं पाए। “कौन हो बेटा? क्या चाहिए?” उनकी आवाज एक कमजोर सिसकी की तरह निकली।

“सेठ जी, मैं समीर हूं। आपका समीर,” समीर ने कहा। समीर का नाम सुनते ही रामचंद्र जी की सुनी पथराई हुई आंखों में एक पहचान की हल्की सी लहर दौड़ी। समीर! और फिर जैसे ही उन्हें सब कुछ याद आया, उन्होंने अपनी शर्मिंदगी और अपमान से अपना चेहरा अपने दोनों हाथों में छिपा लिया।

वह अपने उस कर्मचारी के सामने, जिसे उन्होंने अपने बेटे की तरह पाला था, इस हालत में नहीं दिखना चाहते थे। समीर रोता हुआ उनके पैरों पर गिर पड़ा। “ये ये क्या हालत बना ली है आपने सेठ जी? और मैं, मैं आपको इन पांच सालों में ढूंढ भी नहीं सका।”

उस दिन उस बारिश की शाम दिल्ली के उस व्यस्त फ्लाईओवर के नीचे एक गुरु और शिष्य, एक मालिक और कर्मचारी, एक बाप और बेटा सालों बाद एक-दूसरे से लिपट कर फूट-फूट कर रो रहे थे।

समीर ने सेठ रामचंद्र को अपने साथ अपने आलीशान घर ले आया। उसने उन्हें नहलाया, उन्हें नए कपड़े दिए। पर रामचंद्र जी एक जिंदा लाश की तरह चुपचाप सब कुछ करवाते रहे। उनकी आत्मा मर चुकी थी। समीर जानता था कि उनके सेठ जी को सिर्फ पैसों या एक छत की जरूरत नहीं है। उन्हें जरूरत है उनके खोए हुए स्वाभिमान की।

फिर समीर ने वह फैसला किया जिसने इतिहास रच दिया। उसने अपनी कंपनी के सारे डायरेक्टर्स की एक इमरजेंसी मीटिंग बुलाई। “मैं गुप्ता टेक्सटाइल्स को दोबारा शुरू करना चाहता हूं।” यह सुनकर सब हैरान रह गए।

“पर सर, वो कंपनी तो दिवालिया हो चुकी है। उसका नाम बाजार में खराब हो चुका है।”

“मुझे पता है,” समीर की आवाज में एक फौलादी इरादा था। “पर वो सिर्फ एक कंपनी नहीं है। वो मेरे गुरु की, मेरे पिता की विरासत है। और मैं उसे गुमनामी के अंधेरे में मरने नहीं दूंगा।”

उस दिन समीर ने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा और सबसे मुश्किल सौदा किया। उसने अपनी कंपनी समीर अपेरल्स का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेच दिया। उसने बैंकों से भारी कर्ज लिया। उसने अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगा दी। और उसने गुप्ता टेक्सटाइल्स के सारे कर्ज चुकाकर उस ब्रांड को वापस खरीद लिया।

उसने चांदनी चौक में उसी जगह पर, जहां पुरानी दुकान हुआ करती थी, उससे भी बड़ी और उससे भी शानदार एक नई सात मंजिला इमारत का निर्माण शुरू करवाया। उसने गुप्ता टेक्सटाइल्स के उन पुराने वफादार कर्मचारियों को एक-एक करके ढूंढ निकाला, जो राकेश के आने के बाद या तो निकाल दिए गए थे या खुद छोड़कर चले गए थे।

उसने उन सबको उनकी पुरानी तनख्वाह से दो गुनी तनख्वाह पर वापस काम पर रखा। यह सब वह चुपचाप कर रहा था। उसने सेठ रामचंद्र को इसकी भनक तक नहीं लगने दी।

और फिर 6 महीने बाद, जब वह नई शानदार इमारत बनकर तैयार हो गई, तो समीर सेठ जी के पास गया। “सेठ जी, आपको मेरे साथ एक जगह चलना है।” वह उन्हें लेकर चांदनी चौक की उसी गली में पहुंचा। जब रामचंद्र जी ने अपनी पुरानी दुकान की जगह एक नई आसमान को छूती गुप्ता टेक्सटाइल्स की इमारत को देखा, तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ।

समीर उन्हें अंदर ले गया। अंदर उनके सारे पुराने कर्मचारी हाथ जोड़े, अपनी नम आंखों से अपने मालिक का इंतजार कर रहे थे। समीर ने एक मखमली डिब्बे से उस ऑफिस की चाबियां निकाली और उन्हें सेठ रामचंद्र के कांपते हुए हाथों में रख दी।

“सेठ जी, आपकी सल्तनत आपका इंतजार कर रही है। चलिए, अपनी कुर्सी संभालिए।” रामचंद्र जी कुछ बोल नहीं पाए। उनकी आंखों से आंसुओं की एक गर्म धारा बह निकली। उन्होंने अपने उस बेटे को, अपने उस शिष्य को अपने सीने से लगा लिया, जो आज उनके लिए एक फरिश्ता बनकर आया था।

उस दिन गुप्ता टेक्सटाइल्स का एक नया और पहले से भी ज्यादा सुनहरा अध्याय शुरू हुआ। सेठ रामचंद्र अब फिर से उस साम्राज्य के बादशाह थे। पर अब उनकी आंखों में घमंड नहीं, बल्कि एक गहरा और शांत अनुभव था। उनके साथ उनके जनरल मैनेजर के रूप में उनका सबसे वफादार सिपाही समीर खड़ा था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि वफादारी और कृतज्ञता दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। और जब हम किसी की निस्वार्थ भाव से की गई नेकी का कर्ज चुकाते हैं, तो हम सिर्फ एक इंसान को ही नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत को और भी अमीर बना देते हैं।

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