बारिश में बेसहारा महिला ने सिर्फ एक रात की पनाह मांगी थी, उस फिर उस रात जो हुआ… इंसानियत रो पड़ी
बरसात की एक ठंडी शाम थी। आसमान में काले बादल छाए हुए थे और तेज़ हवाएँ हर तरफ़ फैली वीरानी का एहसास करा रही थीं। पहाड़ी कस्बे के छोटे-से बस स्टैंड पर कुछ लोग अपने-अपने घर जाने की जल्दी में खड़े थे। उसी भीड़ के बीच में एक औरत अपने छोटे से बच्चे को गोद में लिए खड़ी थी। उसके चेहरे पर थकान और आँखों में गहरी बेचैनी साफ झलक रही थी।
उसका नाम था सुनीता। उम्र मुश्किल से अट्ठाईस साल। गोद में तीन साल का बेटा “आरव” था। बारिश लगातार हो रही थी और दोनों पूरी तरह भीग चुके थे। बस स्टैंड पर बैठे लोग उन्हें देखकर तरह-तरह की बातें कर रहे थे, लेकिन किसी ने पास आकर मदद नहीं की।
सुनीता की ज़िंदगी आसान नहीं थी। वह साधारण परिवार की बेटी थी। मां बचपन में ही गुजर गई थी और पिता शराब के आदी थे। शादी हुई तो सोचा था कि जीवन बेहतर हो जाएगा, लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंज़ूर था। पति रवि दिहाड़ी मजदूर था। शराब पीने की आदत ने उसे धीरे-धीरे अंदर से खोखला कर दिया। शादी के चार साल बाद ही बीमारी के कारण उसकी मौत हो गई।
रवि के गुजरने के बाद ससुराल वालों ने सुनीता को ताने देने शुरू कर दिए। “तेरी ही अशुभ छाया ने हमारे बेटे को निगल लिया। अब तू और तेरा बच्चा हमारे घर में नहीं रह सकते।” यह सुनकर सुनीता ने बहुत विनती की, लेकिन किसी का दिल नहीं पसीजा। एक दिन सबके सामने उसके कपड़े बाहर फेंक दिए गए और उसे घर से निकाल दिया गया।
अब उसके पास न मायका था, न ससुराल। हाथ में थोड़े बहुत गहने थे, जिन्हें बेचकर कुछ महीने गुज़ारे। कभी मंदिर के बाहर भिखारियों के साथ बैठना पड़ा, कभी छोटे-मोटे काम करके किसी तरह पेट भरना पड़ा। लेकिन जीवन की लड़ाई रोज़ और कठिन होती जा रही थी।
उस रात भी हालात बदतर हो गए थे। सुबह से न तो उसने कुछ खाया था और न ही आरव ने। बारिश ने सारी परेशानी और बढ़ा दी। बच्चा भूख और ठंड से कांप रहा था। सुनीता का दिल बैठा जा रहा था कि अगर आज रात उसे कहीं सहारा न मिला तो उसका बेटा बीमार पड़ जाएगा।
भारी मन से वह बस स्टैंड से उठकर पास के एक बड़े मकान की ओर बढ़ी। वह मकान कस्बे का सबसे पुराना और सबसे चर्चित घर था। लोग कहते थे वहां का मालिक बहुत अमीर है लेकिन बहुत अकेला रहता है। सुनीता ने कांपते हाथों से दरवाज़ा खटखटाया।
कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। सामने खड़े थे अजय वर्मा। चालीस साल का लंबा-चौड़ा इंसान, चेहरा गंभीर मगर आँखों में गहरी उदासी थी। उन्होंने देखा कि दरवाज़े पर एक औरत भीगी हुई खड़ी है और उसकी गोद में बच्चा ठंड से कांप रहा है।
सुनीता ने हाथ जोड़ते हुए कहा,
“साहब, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए। लेकिन मेरा बच्चा… इसे बचा लीजिए। बस आज रात हमें आसरा दे दीजिए। मैं बाहर भीग लूंगी पर मेरा बेटा बीमार पड़ जाएगा।”
अजय कुछ देर चुप रहे। उनकी नज़र बच्चे पर ठहर गई। मासूम चेहरा, नीली-सी आंखें, और होंठ ठंड से कांप रहे थे। अजय का दिल पसीज गया। उन्होंने धीरे से कहा, “अंदर आ जाओ।”
सुनीता हिचकिचाई लेकिन मजबूरी बड़ी थी। वह बच्चे को सीने से लगाकर अंदर आ गई। घर बहुत बड़ा था पर चारों तरफ़ सन्नाटा था। जैसे बरसों से किसी ने उसमें हंसी की आवाज़ न सुनी हो।
अजय ने कहा, “तुम लोग बैठो, मैं कुछ खाने को लाता हूँ।”
कुछ देर बाद वह दो रोटियां और दाल लेकर आए। बच्चे ने पहले झिझकते हुए देखा, फिर भूख से हारकर जल्दी-जल्दी खाना शुरू कर दिया। सुनीता की आँखें भर आईं। उसने धीमी आवाज़ में कहा, “साहब, कल से इसने कुछ नहीं खाया था। आपने हमारे बच्चे की जान बचा ली।”
अजय ने कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप खड़े रहे। उनकी आँखों में भी नमी थी। असल में अजय की अपनी पत्नी कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में गुजर गई थी। तब से वह अकेलेपन की जिंदगी जी रहे थे। अमीरी सब कुछ थी, पर घर में खुशियां नहीं थीं।
उस रात अजय ने सुनीता और आरव को एक कमरे में ठहरने दिया। पहली बार लंबे समय बाद उस हवेली में किसी मासूम की हंसी सुनाई दी।
अगली सुबह जब अजय बाहर आए तो उन्होंने देखा कि आंगन साफ-सुथरा है। रसोई में बर्तन सजे हुए हैं। सुनीता काम कर रही थी और आरव कोने में खेल रहा था। अजय ने हैरानी से पूछा,
“तुम ये सब क्यों कर रही हो?”
सुनीता ने हाथ जोड़कर कहा,
“साहब, आपने हमें आसरा दिया। मैं आपका कर्ज़ कभी नहीं चुका सकती, लेकिन कम से कम घर संभालकर अपना फर्ज़ तो निभा सकती हूं।”
उनके शब्द सुनकर अजय का दिल भर आया। वही शब्द कभी उनकी पत्नी भी कहा करती थी।
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। सुनीता घर का काम संभालने लगी और आरव भी अजय से घुलने-मिलने लगा। हवेली की वीरानी अब हंसी और सुकून से भरने लगी। लेकिन कस्बे में बातें शुरू हो गईं। लोग कहने लगे, “अरे, अजय ने एक जवान औरत को घर में रख लिया है। इसके पीछे जरूर कुछ राज़ होगा।”
सुनीता यह बातें सुनती तो उदास हो जाती। उसे लगता कि कहीं उसकी वजह से अजय की बदनामी न हो जाए। एक दिन उसने हिम्मत करके कहा,
“साहब, गांव वाले ठीक कह रहे हैं। मेरी वजह से आपकी इज्जत पर दाग लग रहा है। अब मुझे और आरव को यहां से जाना चाहिए।”
अजय ने गुस्से में कहा,
“चुप रहो! तुमने कोई गलत काम नहीं किया। तुम्हें यहां से जाने की जरूरत नहीं है। लोग हमेशा बातें करते हैं। लेकिन मुझे सच्चाई पता है। तुम और तुम्हारा बेटा अब इस घर का हिस्सा हो।”
यह सुनकर सुनीता की आँखों से आंसू बह निकले।
कुछ दिन बाद कस्बे के बुजुर्ग लोग अजय के घर आए और बोले,
“अजय, यह सब ठीक नहीं है। जवान औरत को अपने घर रखना गांव की मर्यादा के खिलाफ है। या तो इसे बाहर करो, वरना तुम्हें गांव से निकाल दिया जाएगा।”
अजय कुछ पल चुप रहे। फिर अंदर गए और पूजा घर से सिंदूर की डिब्बी लाकर सबके सामने सुनीता की मांग भर दी। पूरे गांव में सन्नाटा छा गया।
अजय ने ऊंची आवाज़ में कहा,
“अब यह मेरी पत्नी है। किसी को आपत्ति है तो सामने आए।”
किसी ने कुछ नहीं कहा। सब धीरे-धीरे लौट गए।
सुनीता स्तब्ध खड़ी थी। उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे। लेकिन इस बार दुख के नहीं, बल्कि आभार और विश्वास के। उसने सोचा भी नहीं था कि कोई उसकी इज्जत इस तरह बचाएगा।
समय बीतने लगा। अब गांव वाले भी चुप हो गए। उन्होंने देखा कि अजय और सुनीता एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। आरव भी अजय को पिता मानने लगा। वह खेतों में उनके साथ जाता, कंधों पर बैठकर हंसता और कहता, “बाबा, आप सबसे अच्छे हो।”
धीरे-धीरे हवेली की वीरानी टूट गई। वहां अब हंसी, प्यार और अपनापन था।
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