वृद्धाश्रम भेजने निकले थे मां को…रास्ते में DM ने गाड़ी रुकवा दी | Emotional story | Hindi kahani
वृद्धाश्रम का रास्ता और DM की गाड़ी
बरामदे में बैठी 90 वर्षीया गंगा देवी की आंखों से आंसू अब सूख चुके थे। कांपते हाथों से दूध का कटोरा ज़रा सा छलक गया और घर भर में बहू ऋतु की कड़कती आवाज़ गूंज उठी—
“अब फिर दूध गिरा दिया ना तुमने? बुज़ुर्ग हो गए हो लेकिन काम तुमसे संभलता ही नहीं।”
कोने में बैठी गंगा देवी चुपचाप यह सब सुनती रहीं। उसी पल उनका बेटा राजन अखबार से नज़र हटाए बिना बोला—
“अब मां से ये सब नहीं होगा। इन्हें किसी वृद्धाश्रम भेज दो या अलग कोठरी में रखो। मेरा दिमाग खराब मत किया करो।”
यह सुनते ही गंगा देवी का दिल बिखर गया। जिस बेटे को उन्होंने अपनी छाती से चिपकाकर पाला, पढ़ाया, भूखी रहकर फीस भरी… वही आज उन्हें बोझ समझने लगा था। बहू के ताने, पोतों की उपेक्षा और बेटे की बेरुख़ी — यही अब उनकी नियति बन चुकी थी।
हर रात वह भगवान से एक ही प्रार्थना करतीं — “हे भगवान, अब तो मुझे अपने पास बुला लो। यह जीवन नहीं, सजा है।”
पुरानी तस्वीर, अधूरी उम्मीद
एक दिन कमरे के कोने में उन्हें एक पुराना एलबम दिखाई दिया। उसमें उनके स्कूल के दिनों की तस्वीरें थीं। छात्र, हंसी, और यादें… उन्हीं तस्वीरों में एक चेहरा ठहर गया — संदीप, वही शरारती लड़का जिसे गंगा देवी ने कभी सिर्फ छात्र नहीं, बेटा समझकर डांटा-पढ़ाया था।
आंखें भर आईं — “पता नहीं कहां होगा तू, संदीप। एक बार देख लेता तो शायद मुझे इंसान समझ लेता।”
उन्हें क्या मालूम था कि किस्मत संदीप को फिर उसी मोहल्ले तक खींच लाएगी, लेकिन इस बार इतनी ऊंचाई पर कि पूरा शहर उसके नाम से कांपता है।
जिले का नया कलेक्टर
बक्सर जिले में नए जिलाधिकारी (DM) के रूप में पदभार संभाल रहे थे वही संदीप वर्मा। तेज़ सलामी, सरकारी फाइलों की गंध और बड़ी कुर्सी पर बैठा संदीप… लेकिन उसकी आंखों में आज भी बचपन की चमक और अपने अतीत की खोज बाकी थी।
पुराने दोस्त रमेश से मुलाकात में उसने पूछा—
“यार, वो टीचर याद है? जिनकी छड़ी से डरते थे लेकिन जिनके प्यार ने हमें जिंदगी सिखाई थी… गंगा मैडम।”
रमेश झिझका और बोला—
“वो तो आज भी यहीं रहती हैं, लेकिन… उनका बेटा उन्हें बोझ समझता है। बहू भी हर वक्त ताने देती है। बहुत बुरा हाल है उनका।”
संदीप की मुस्कुराहट बुझ गई। उसने तुरंत सरकारी गाड़ी तैयार करवाई और कहा—
“चल रमेश, आज एक जरूरी काम है। जहां मेरी असली पढ़ाई हुई थी, वहीं चलना है।”
गाड़ी के रुकने से पहले
रास्ते में उसने एक पेड़ से सूखी लकड़ी तोड़ी। आंखों में आंसू लिए बोला—
“मैडम कहती थीं कि सजा से ही बच्चे सुधरते हैं। आज मैं छड़ी लेकर जा रहा हूं… ताकि वह मुझे फिर से सजा दे सकें। इस बार देर से मिलने की।”
रमेश की आंखें भीग गईं।
मोहल्ले में गूंज
सफेद सरकारी गाड़ी मोहल्ले में आकर रुकी। सायरन, पुलिस और अफसर का रुतबा देखकर सब इकट्ठा हो गए। फुसफुसाहट होने लगी—
“कलेक्टर साहब यहां किसके घर आए हैं? कहीं छापा तो नहीं?”
लेकिन संदीप की आंखें सीधी उस पुराने दरवाजे पर टिकी थीं, जिसके बाहर टूटा हुआ डोरमैट पड़ा था।
मां-बेटे का सामना
दरवाजा खोलते ही घबराया हुआ राजन सामने आया। माथे पर पसीना, आवाज़ में डर—
“जी, आप… आप यहां?”
संदीप ने कठोर स्वर में कहा—
“गंगा देवी घर में हैं?”
राजन ने कांपते हाथों से कमरे की ओर इशारा किया। संदीप अंदर पहुंचा। वहां खाट पर बैठी थीं गंगा देवी, झुकी पीठ और धुंधली नजरें।
उनकी नज़र संदीप के हाथ की छड़ी पर गई। वे कांप उठीं।
“ये छड़ी…?”
संदीप घुटनों के बल बैठ गया—
“मैडम, आपने कहा था सजा से बच्चे सुधरते हैं। लीजिए, मैं आ गया हूं… सजा लेने।”
गंगा देवी कुछ पल उन्हें पहचान न पाईं। फिर हल्की मुस्कान और कांपता हाथ उनके गाल पर रखा।
“तू… संदीप?”
“हां मैडम, वही शरारती बच्चा। आज DM बन गया हूं, लेकिन अब भी आपका बेटा हूं।”
शर्म से झुके सिर
दरवाजे पर खड़ा राजन सब देख रहा था। जब गंगा देवी रोते हुए बोलीं—
“मुझे लगा मेरा बेटा तो है, लेकिन अब मैं बोझ हूं। पर तू आ गया…”
तो राजन और ऋतु दोनों ज़मीन पर बैठकर सिर झुका लिए।
संदीप ने उनकी तरफ देखा—
“तुम्हें क्या लगा? मां बूढ़ी हो गईं तो फेंक दो? जब हमारे पास खाने को नहीं था, तब इन मैडम ने अपना खाना छोड़कर हमें स्कूल ट्रिप पर भेजा था। हमें ज़िंदगी दिखाई थी।”
राजन फूट पड़ा—
“माफ कर दो मां, मैं बहुत छोटा निकला।”
गंगा देवी ने बस अपने झुर्रीदार हाथ से बेटे का सिर सहलाया।
संदीप ने कहा—
“अगर तुम नहीं करोगे तो मैं करूंगा। मैं इन्हें अपने साथ रखूंगा।”
राजन घबरा गया—
“नहीं साहब, अब नहीं। अब मैं ही अपनी मां की सेवा करूंगा।”
जन्मदिन का चमत्कार
संदीप मुस्कुराया—
“तो आज इनका जन्मदिन है। इसे ऐसे मनाओ, जैसा कभी नहीं मनाया।”
शाम होते-होते वही घर जो कल तक तानों और सन्नाटे से भरा था, रोशनी और मिठास से चमक उठा। गंगा देवी लाल साड़ी, माथे पर बिंदी और आंखों में हल्का काजल लगाए बैठी थीं। उनके चेहरे पर मासूम मुस्कान थी, लेकिन आंखों के कोने गीले थे।
तभी संदीप केक लेकर आया। उस पर लिखा था— “हैप्पी 90 बर्थडे मां।”
गंगा देवी ठिठक गईं। आंखें भर आईं—
“बेटा, यह तो मेरी ज़िंदगी में पहली बार हो रहा है।”
संदीप बोला—
“और जब तक मैं जिंदा हूं, आखिरी बार नहीं होने दूंगा।”
पूरे मोहल्ले के लोग इकट्ठा हो गए। तालियां बजीं, मोमबत्तियां बुझीं और जब संदीप ने उन्हें पहला टुकड़ा खिलाया, तो गंगा देवी का दिल रो पड़ा। लेकिन यह आंसू तिरस्कार के नहीं, सम्मान और संतोष के थे।
सम्मान की मिसाल
बाद में गंगा देवी ने सबके सामने कहा—
“बुढ़ापा एक सच्चाई है। लेकिन अगर कोई इसे बोझ समझे, तो वही सबसे गरीब है।”
राजन मां के पैरों पर सिर रखकर बोला—
“अब तक जो हुआ, वह मेरा अंधापन था। अब मैं आपकी छाया में जीना चाहता हूं।”
कुछ दिनों बाद संदीप उन्हें अपने सरकारी आवास ले गया। वहां घर मंदिर बन गया। पुराने दोस्त रमेश भी आता, और सब मिलकर किस्से सुनते।
फिर शहर के महिला सम्मान समारोह में संदीप ने गंगा देवी को “जीवन गौरव पुरस्कार” से सम्मानित किया। पूरा हॉल खड़ा होकर तालियां बजाने लगा।
गंगा देवी अब सिर्फ एक मां नहीं रहीं। वे उस पीढ़ी की मिसाल बन गईं, जो देती रही… बिना किसी उम्मीद के।
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