इंसानियत की मिसाल: सुमन की कहानी
मुंबई शहर की चमचमाती सड़कों पर तेज़ रफ्तार से लग्जरी गाड़ियाँ दौड़ती हैं। लेकिन उन्हीं सड़कों के किनारे कुछ मासूम आँखें जिंदगी की जंग लड़ती हैं। उन्हीं में से एक थी दस साल की सुमन, जो फटे पुराने कपड़ों में, नंगे पैर, बिखरे बालों और भूख से डबडबाई आँखों के साथ हर गाड़ी के पास जाकर कहती, “कुछ खाने को दे दो, भूख लगी है।”
लोग खिड़कियाँ बंद कर लेते, नजरें फेर लेते। उनके लिए सुमन बस एक और भिखारी बच्ची थी। लेकिन उस दिन मरीन ड्राइव के सिग्नल पर कुछ अलग हुआ। ट्रैफिक जाम था, चारों ओर हॉर्न की आवाज़, धुएँ का गुबार और लोगों की बेचैनी। उसी भीड़ में एक चमकदार नीली BMW खड़ी थी, जिसमें मुंबई के मशहूर उद्योगपति रविंद्र सेठी और उनकी पत्नी अनुराधा बैठे थे।
रविंद्र ने हल्की झुंझलाहट में कहा, “अनुराधा, ये बच्चे तो हर जगह दिखते हैं। इनका तो काम ही भीख मांगना है।” लेकिन अनुराधा का दिल पसीज गया। उन्होंने कहा, “रविंद्र, ये आदत नहीं, मजबूरी है। इस बच्ची की आँखों में देखो, ये भूख नहीं, रोती हुई मासूमियत है।”
सिग्नल हरा हुआ। गाड़ियाँ आगे बढ़ने लगीं। ड्राइवर ने भी गाड़ी बढ़ानी शुरू की। लेकिन अनुराधा ने तुरंत कहा, “रुको, गाड़ी साइड में लगाओ।” गाड़ी रुकी, अनुराधा उतरीं और सुमन के पास जाकर धीरे से पूछा, “बेटी, तुम्हारा नाम क्या है?”
सुमन ने कांपते होठों से जवाब दिया, “सुमन।”
अनुराधा ने फिर पूछा, “सुमन, तुम स्कूल क्यों नहीं जाती?”
सुमन ने नजरें झुका कर कहा, “अम्मा कहती है, पहले पेट भरो, पढ़ाई बाद में।”
यह सुनकर अनुराधा की आँखें नम हो गईं। पीछे से उतरे रविंद्र ने सुमन को सिर से पाँव तक देखा और अनुराधा से बोले, “देखो, मदद करनी है तो सोच समझ कर करो, वरना ये बच्ची जिंदगी भर भीख मांगती रहेगी।”
सड़क पर खड़े लोग यह दृश्य देख रहे थे। सबके मन में यही सवाल था कि यह करोड़पति दंपती क्या करेंगे? क्या वे भी औरों की तरह नजरें फेर कर चले जाएंगे? लेकिन सुमन की मासूम आँखें उम्मीद से उनकी ओर देख रही थीं। उसे लगा शायद ये लोग भी कुछ सिक्के देकर चले जाएंगे। लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ।
अनुराधा सुमन के पास बैठी और धीरे से बोली, “बेटी, अगर तुम्हें आज से भीख मांगना बंद करना पड़े, तो क्या तुम तैयार हो?”
सुमन ने कांपते होठों से पूछा, “फिर खाऊंगी क्या? अम्मा कहती है, भीख नहीं मांगूंगी तो भूखी मर जाऊंगी।”
इस जवाब ने अनुराधा का दिल तोड़ दिया। रविंद्र ने एक गहरी सांस ली और पास की दुकान की ओर इशारा करते हुए बोले, “चलो, देखते हैं कुछ कर सकते हैं।”
दोनों पास की स्टेशनरी दुकान पर गए और एक थैला भरकर कॉपियाँ, पेन और पेंसिल खरीद लाए। अनुराधा ने वह थैला सुमन को थमाते हुए कहा, “आज से तुम्हें भीख नहीं मांगनी। यह सामान बेचो। जो मुनाफा होगा, वह तुम्हारा। लेकिन एक वादा करो, कभी भीख नहीं मांगोगी।”
सुमन ने घबराते हुए थैला पकड़ा। उसके छोटे-छोटे हाथ थैले का वजन संभाल नहीं पा रहे थे। उसने डरते हुए कहा, “अगर किसी ने नहीं खरीदा तो? अगर लोग मज़ाक उड़ाएँ तो?”
रविंद्र ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और सुमन की हथेली पर रखते हुए कहा, “डरना मत। कोई परेशान करे तो इस नंबर पर फोन करवाना। और याद रखना, अब तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है।”
सड़क पर खड़े लोग यह नजारा देखकर हैरान थे। कुछ लोग बुदबुदाए, “काश! हर कोई ऐसा करता तो कितने बच्चों की जिंदगी बदल जाती।”
सुमन की आँखों में पहली बार उम्मीद की चमक दिखी। उसने एक पेन कसकर पकड़ा। मानो वो उसकी नई जिंदगी की चाबी हो।
उस रात जब वह अपनी झुग्गी में लौटी, तो उसकी माँ ने पूछा, “आज कितने पैसे लाई?”
सुमन ने थैला दिखाते हुए कहा, “अम्मा, अब मैं भीख नहीं मांगूंगी। अब यह बेचूंगी।”
पहले तो माँ गुस्सा हुई। लेकिन जब सुमन ने हिम्मत से कहा, “भूख से मरने से बेहतर है मेहनत से जीना,” तो माँ की आँखें भी नम हो गईं।
अगले दिन सुमन उसी सिग्नल पर पेन और कॉपियाँ लेकर पहुँची। लोग पहले हंसे। “अरे, यह भीख नहीं मांग रही, पेन बेच रही है।” लेकिन धीरे-धीरे कई लोगों ने उसका हौसला बढ़ाने के लिए सामान खरीदा। दिन ढलते-ढलते उसका सारा सामान बिक गया। उसकी जेब में कुछ पैसे खनक रहे थे, जो उसने मेहनत से कमाए थे।
उस रात उसने माँ के सामने पैसे रखे और बोली, “देखा अम्मा, अब हमें किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं।”
दिन-ब-दिन सुमन का हौसला बढ़ता गया। उसने ना सिर्फ खुद के लिए बल्कि झुग्गी के दूसरे बच्चों को भी अपने साथ जोड़ लिया। जो बच्चे पहले भीख मांगते थे, वे सुमन से पूछने लगे, “तू पेन कहाँ से लाती है? लोग तुझे डांटते नहीं?”
सुमन मुस्कुरा कर कहती, “भीख मांगने से बेहतर है कुछ बेचना। लोग डांटते कम हैं, तारीफ ज्यादा करते हैं।”
धीरे-धीरे कुछ बच्चे उसके साथ जुड़ गए। सुमन ने अपनी कमाई से एक छोटा सा ठेला खरीदा और उस पर पेन, कॉपियाँ और छोटे खिलौने सजाने लगी। अब लोग सीधे उसके ठेले की ओर जाते। लोग कहने लगे, “देखो, यही है असली हिम्मत। जो कल भीख मांगती थी, आज पढ़ाई का सामान बेच रही है।”
रास्ता आसान नहीं था। कई बार पुलिस ने उसका ठेला हटवाया। बड़े दुकानदारों ने ताने मारे, “यह सड़क तेरे कारोबार के लिए नहीं।” हर बार सुमन का मन टूटता, लेकिन उसे रविंद्र के शब्द याद आते, “डरना मत, तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है।” यही बात उसकी ताकत बनती।
समय के साथ उसका ठेला एक छोटा कारोबार बन गया। उसने झुग्गी के और बच्चों को अपने साथ काम पर रखा। जिन हाथों में कभी कटोरा होता था, अब उनमें पेन और किताबें थीं। धीरे-धीरे पचास से ज्यादा बच्चे उससे जुड़ गए। कोई स्कूल की फीस के लिए काम करता, कोई अपनी बीमार माँ की दवाइयों के लिए। सुमन अब सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के सपनों का सहारा बन गई थी।
जब भी रविंद्र और अनुराधा उस रास्ते से गुजरते, अनुराधा दूर से सुमन को देखकर मुस्कुराती और हाथ हिलाती। सुमन समझ जाती कि उसकी माँ जैसी कोई छाया उस पर नजर रख रही है।
रविंद्र अपने ड्राइवर से कहते, “ध्यान रखना, अगर कोई उस बच्ची को तंग करे तो तुरंत मदद करना। वो अब हमारी जिम्मेदारी है।”
साल बीतते गए। सुमन ने मेहनत और समझदारी से छोटे-छोटे समूह बनाए। अब वो सिर्फ ठेले तक सीमित नहीं थी। उसने किराए पर एक छोटी दुकान ले ली। लोग उसे झुग्गी की बच्ची नहीं, बल्कि एक छोटी उद्यमी कहने लगे। अखबारों ने उसकी कहानी छापी। जिस बच्ची ने भीख छोड़ी, उसने पचास बच्चों की जिंदगी बदल दी।
जब रविंद्र और अनुराधा ने यह खबर पढ़ी, तो उनकी आँखें भर आईं। अनुराधा ने कहा, “देखा, एक छोटी सी मदद ने उसकी दुनिया बदल दी। अगर हर कोई ऐसा सोचे कि भीख नहीं, काम दो, तो समाज बदल जाएगा।”
रविंद्र ने एक गहरी सांस लेकर कहा, “आज लगता है कि असली दौलत यही है। हमने सिर्फ पैसा नहीं, इंसानियत बाँटी है।”
लेकिन जिंदगी हमेशा एक जैसी नहीं रहती। रविंद्र सेठी की उम्र ढलने लगी। उनका शरीर अब पहले जैसा मजबूत नहीं था। जहाँ पहले वे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स पर साइन करते थे, अब उनके हाथ काँपने लगे। अनुराधा हर पल उनके साथ रहती, दवाइयाँ देती। लेकिन सबसे ज्यादा दुख उन्हें अपने बच्चों के बदलते व्यवहार से मिलने लगा।
उनके चार बेटे थे। सबके पास अपनी नौकरियाँ, परिवार और बंगले। वे उसी दौलत पर पले-बढ़े थे, जो रविंद्र ने मेहनत से कमाई थी। लेकिन अब वही बेटे माता-पिता को अपने पास रखने से कतराने लगे।
एक दिन रविंद्र ने सबको घर बुलाया और थके स्वर में कहा, “बेटा, अब हम बूढ़े हो चले हैं। अकेले संभालना मुश्किल है। सोच रहे थे, बारी-बारी तुम्हारे साथ रहें।”
बड़ा बेटा बोला, “पिताजी, मेरे ऑफिस का काम इतना है कि मैं नहीं संभाल पाऊँगा।” दूसरे ने कहा, “हमारा घर छोटा है। बच्चों को जगह चाहिए।” तीसरे ने साफ कहा, “नौकर रख लीजिए। आप बोझ क्यों बन रहे हैं?” सबसे छोटे बेटे की पत्नी ने तो हद कर दी, “हम क्यों रखें? हमारे भी खर्चे हैं। बुढ़ापे का बोझ हम क्यों उठाएँ?”
रविंद्र और अनुराधा एक-दूसरे को देखने लगे। आँखों में आँसू थे, लेकिन शब्द गायब। जिनके लिए पूरी जिंदगी खपाई, वही बच्चे अब उन्हें बोझ समझ रहे थे।
महफिल में बैठे कुछ रिश्तेदारों ने कहा, “जब संपत्ति बाँटने का वक्त था, तब सब ने बराबर लिया। अब सेवा का समय है तो पीछे क्यों हट रहे हो?” लेकिन बहू ने साफ कहा, “पैसे की बात अलग है। बुढ़ापे की जिम्मेदारी हम नहीं लेंगे।”
आखिरकार किसी ने सलाह दी, “अगर कोई इन्हें रखने को तैयार नहीं, तो खर्चा बाँट लो और इन्हें वृद्धाश्रम भेज दो।”
यह सुनकर अनुराधा का दिल टूट गया। उन्होंने काँपती आवाज में कहा, “नहीं, इतना अपमान हमें नहीं चाहिए। जब तक सांस है, हम खुद जिएंगे। अपने बच्चों से दया की भीख नहीं माँगेंगे।”
रविंद्र चुपचाप सब सुनते रहे। उनके गालों पर आँसू लुढ़क गए। जिस आदमी ने हजारों लोगों को रोजगार दिया, वह अपने ही घर में पराया हो गया।
अगले दिन दोनों ने सामान बाँधा और घर से निकल पड़े। दरवाजे पर खड़े बच्चे बिना कुछ कहे भीतर चले गए। सड़क पर चलते हुए अनुराधा ने रविंद्र का हाथ कसकर पकड़ा। दोनों बेमंजिल से लग रहे थे।
तभी सामने से एक गाड़ी रुकी। उसमें से एक पच्चीस-छब्बीस साल की युवती उतरी। उसकी आँखों में हैरानी और चेहरे पर चिंता थी। उसने दोनों को रोक कर कहा, “बाबूजी, अम्मा जी, आप इस हाल में कहाँ जा रहे हैं?”
रविंद्र ने थकी आवाज में कहा, “बेटी, अब हमें कहीं नहीं जाना। बच्चे हमारे नहीं रहे। हम वृद्धाश्रम चले जाएँगे।”
युवती की आँखें नम हो गईं। उसने कहा, “नहीं, ऐसा मत कहिए। अगर आपके अपने आपको छोड़ सकते हैं, तो मान लीजिए भगवान ने मुझे आपके लिए भेजा है। मेरे साथ चलिए।”
रविंद्र ने उसे गौर से देखा। अनुराधा ने आँसुओं में मुस्कुराकर कहा, “बेटी, तू हमें क्यों अपनाना चाहती है, तेरा हमसे क्या रिश्ता?”
युवती ने धीरे से कहा, “आप भूल गए होंगे, मैं वही सुमन हूँ, जिसे आपने सालों पहले भीख मांगने से रोक, पेन बेचने की राह दिखाई थी। अगर उस दिन आपने मुझे सहारा ना दिया होता, तो शायद मैं आज जिंदा भी ना होती।”
रविंद्र और अनुराधा स्तब्ध रह गए। उनकी आँखों से आँसू बह निकले। उस पल उन्हें लगा कि इंसानियत में ही असली रिश्ते छिपे हैं।
अनुराधा ने रोते हुए कहा, “बेटी, अगर उस दिन हमने वह छोटा सा कदम ना उठाया होता, तो आज हमें यह सहारा ना मिलता।”
सुमन ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, “नहीं अम्मा जी, यह आपका नहीं, मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा उपकार था। आज जो कुछ हूँ, आपकी वजह से हूँ। अब आपको अकेला नहीं छोड़ूँगी।”
सुमन उन्हें अपने घर ले गई। बड़ा सा बंगला, चारों ओर हरियाली, नौकर-चाकर, लेकिन सबसे खास था वहाँ का अपनापन। सुमन और उसके पति ने उन्हें अपने माता-पिता की तरह अपनाया। उनके लिए कमरा सजाया गया, दवाइयों का इंतजाम हुआ और हर दिन उनके साथ बैठकर बातें होने लगीं।
रविंद्र और अनुराधा का दर्द धीरे-धीरे कम होने लगा। उन्हें लगा जैसे जिंदगी ने फिर से जीने का मकसद दे दिया। अनुराधा अक्सर कहती, “सुमन, तू हमारी बेटी से भी बढ़कर है।” रविंद्र आसमान की ओर देखकर भगवान को धन्यवाद देते।
इधर सेठी परिवार के चारों बेटे अपनी दुनिया में खोए थे। लेकिन जब शहर में यह खबर फैली कि रविंद्र और अनुराधा को उनके बच्चों ने घर से निकाला, और अब वही लड़की उन्हें पाल रही है, जिसे उन्होंने सड़क से उठाया था, लोग दंग रह गए। अखबारों और सोशल मीडिया में यह कहानी छा गई। लोग कहने लगे, “असली संतान वही है जो बुजुर्गों का सहारा बने।”
इस खबर ने सेठी के बेटों की जिंदगी बदल दी। क्लाइंट्स ने उनकी कंपनियों से काम लेना बंद कर दिया। पुराने दोस्त किनारा करने लगे। उनका व्यापार डूब गया। जो कभी ऐशो-आराम में डूबे थे, उन्हें छोटी-छोटी नौकरियों के लिए भटकना पड़ा। बहुएँ शिकायत करतीं, “तुम्हारी वजह से लोग हमें ताने मारते हैं।”
लेकिन अब पछतावे के सिवा उनके पास कुछ नहीं था। एक दिन चारों बेटे सुमन के घर पहुँचे। दरवाजे पर खड़े होकर बोले, “पिताजी, माफ कर दीजिए। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई।”
रविंद्र ने उनकी ओर देखा। चेहरे पर गुस्सा नहीं, सिर्फ दर्द था। उन्होंने शांत स्वर में कहा, “बेटा, माफ करना आसान है, लेकिन भरोसा टूट जाए तो लौटता नहीं। हमने तुम्हें सब कुछ दिया, लेकिन बुढ़ापे में तुमने हमें ठुकरा दिया। आज हमें बेटी का सहारा मिल गया है, अब हमें और किसी की जरूरत नहीं।”
बेटों के गले में शब्द अटक गए। उन्होंने हाथ जोड़े, लेकिन रविंद्र और अनुराधा कमरे में लौट गए। बेटे और बहुएँ बाहर खड़े आँसू पोंछते रह गए।
उस रात अनुराधा ने रविंद्र से कहा, “देखा, जब अपने छोड़ देते हैं, तब भगवान अनजाने रिश्तों को संतान बना देता है।”
रविंद्र ने उनकी हथेली थाम कर कहा, “हाँ, इंसानियत ही असली रिश्ता है, और सुमन ने इसे साबित कर दिया।”
यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। समाज ने इससे बड़ा सबक सीखा। लोगों ने समझा कि संपत्ति बाँटना आसान है, लेकिन बुजुर्गों का सम्मान और सेवा करना ही असली कर्तव्य है।
अब सवाल आपसे है:
अगर आप रविंद्र और अनुराधा की जगह होते, तो क्या उस बच्ची को भीख की जगह काम देकर उसका भविष्य संवारने का साहस दिखाते?
और अगर आप सुमन की जगह होते, तो क्या उन अनजान बुजुर्गों को सहारा देते जिन्होंने आपको नई जिंदगी दी?
अपनी राय जरूर साझा करें।
जय हिंद!
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