जिस पिता को बेटा-बहू बोझ समझते थे… वही निकला करोड़ों का मालिक, फिर जो हुआ | Hindi story
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जिस पिता को बेटा-बहू बोझ समझते थे… वही निकला करोड़ों का मालिक, फिर जो हुआ
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले का एक साधारण किसान परिवार था। उस परिवार के मुखिया रामनाथ प्रसाद थे, जो उम्र के आखिरी पड़ाव पर थे। सफेद बाल, झुर्रियों से भरा चेहरा और पैरों में एक पुराना घाव, जो उनकी जिंदगी को दर्द से भर चुका था। यह घाव महीनों से था, लेकिन इलाज न मिलने के कारण नासूर बन चुका था। चलने-फिरने में उन्हें बहुत तकलीफ होती थी। लेकिन बेटे अजय और बहू रीमा के लिए यह सिर्फ एक परेशानी थी, चिंता नहीं।
एक दोपहर की बात है। रामनाथ जी आंगन के दरवाजे तक आए क्योंकि उनके कमरे में रखा मिट्टी का घड़ा खाली हो चुका था। उन्होंने बहू रीमा को आवाज दी, “बहू, जरा पानी दे दो। सूखी रोटियां बिना पानी के गले से नहीं उतर रही।” रीमा, जो कमरे में बैठी थी, झटके से उठी और चिल्लाकर बोली, “कितनी बार कहा है कि बाहर मत निकला करो। खुद बीमार हो, हमें भी बीमारी दे दोगे क्या? जाओ अंदर, अभी पानी लाती हूं।”
रामनाथ जी हाथ जोड़कर बोले, “बिटिया, अगर घड़े में पानी रहता तो मैं बाहर नहीं आता। बिना पानी के ये सूखी रोटियां कैसे खाऊं?” इतने में उनका बेटा अजय भी कमरे से निकला। उसने गुस्से में अपनी प्लेट से बची सब्जी उठाई और कहा, “रीमा, तुम हर रोज ज्यादा सब्जी बना देती हो। हिसाब से बनाया करो, खाना बर्बाद क्यों करते हो?”
रीमा व्यंग्य से हंसते हुए बोली, “अरे बर्बादी क्यों होगी? ये बूढ़ा है ना? इसके हिस्से में डाल दो।” इतना कहकर वह आंगन में रखी टूटी नारियल की कटोरी उठाई, जिसमें बरसात का बासी और बदबूदार पानी जमा था। उसने बची हुई सब्जी उस कटोरी में डालकर रामनाथ जी की तरफ बढ़ा दी और कहा, “लीजिए, आज आपकी किस्मत अच्छी है, रोटी के साथ सब्जी भी मिल गई।”
रामनाथ जी कांपते हाथों से कटोरी ली। लेकिन उस बदबू ने उनका मन मिचला दिया। उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने धीमी आवाज में कहा, “बहू, यह तो गंदी कटोरी है, बदबू आ रही है। मुझे मोहन की थाली ही दे दो।” रीमा तमतमाते हुए बोली, “क्या कहा? थाली दे दूं? अपने पैर का घाव देखो, सड़ रहा है। मेरे बस चले तो तुम्हें जमीन पर खाना परोस दूं।” इतना कहकर वह अंदर चली गई।
रामनाथ जी कटोरी को ताकते रहे। भूख से पेट कराह रहा था, लेकिन उस बदबूदार कटोरी की सब्जी गले से नहीं उतर रही थी। आखिरकार उन्होंने सूखी रोटियों से ही पेट भर लिया। रात को जब घाव का दर्द बढ़ा तो उन्होंने बेटे को आवाज दी, “अजय बेटा, जरा देख तो ले, बड़ा दर्द हो रहा है।”
अजय करवट बदलते हुए बोला, “ओहो, यह बूढ़ा चैन से जीने भी नहीं देता।” रीमा ने चिड़चिड़ाते हुए कहा, “क्यों मैं देखूं? इनके लिए रात की नींद खराब करनी है क्या? चिल्लाने दो, खुद ही चुप हो जाएंगे।”
रामनाथ जी दर्द से कराहते रहे। आखिरकार वे उठकर रसोई में गए, हल्दी निकाली और बर्फ का टुकड़ा घाव पर रखा। थोड़ी देर बाद दर्द कम हुआ, लेकिन खून और पस अब भी बह रहा था। सुबह जब रीमा रसोई में पहुंची और हल्दी की डिब्बी व बर्फ का ट्रे देखा तो आग बबूला हो गई। वह रामनाथ जी के कमरे में पहुंची और चिल्लाई, “ओ बूढ़े, तेरी इतनी हिम्मत कि रसोई का सामान छू लिया। अब तो कोई फैसला करना पड़ेगा।” और फिर उसने कमरे को बाहर से ताले से बंद कर दिया।
कमरे के बाहर ताला लग जाने के बाद रामनाथ जी खाट पर पड़े सोचते रहे। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे, पर किसी से शिकायत करने की हिम्मत नहीं थी। वही बेटा, जिसके लिए उन्होंने सारी जिंदगी खेतों में मेहनत की, खून-पसीना बहाया, आज वही बेटा उन्हें बोझ समझ रहा था।
करीब दो घंटे तक वे कमरे में कैद रहे। प्यास से गला सूख रहा था, लेकिन दरवाजा बंद था। तभी बाहर से आवाज आई, “चलो चलो जल्दी उठाओ इन्हें।” रामनाथ जी घबरा कर बोले, “अरे यह क्या कर रहे हो बेटा? कहां ले जा रहे हो मुझे?” लेकिन अजय ने कठोर स्वर में कहा, “घबराओ मत। तुम्हारी अर्थी नहीं निकाल रहा हूं। बस तुम्हारे लिए नया इंतजाम किया है। अब तुम घर में नहीं रहोगे।”
इतना कहते ही कुछ मजदूर अंदर आए और उनकी खाट समेत उन्हें उठा कर बाहर ले गए। रामनाथ जी चीखते रहे, “बेटा गिर जाऊंगा, नीचे उतारो, मत ले जाओ मुझे।” लेकिन अजय का चेहरा पत्थर बना हुआ था। उन्हें ले जाकर पुराने तबेले में डाल दिया गया, जहां कभी गाय बंधी रहती थी। धूल, मिट्टी और गोबर की गंध से भरा वो तबेला अब रामनाथ जी का घर बन गया।
अजय ने सख्ती से कहा, “अब से तुम यहीं रहोगे और खबरदार जो घर में घुसने की कोशिश की।” कहकर वह बाहर चला गया। रामनाथ जी ठंड से कांपते रहे, ऊपर से पैर का घाव और भी दर्द कर रहा था।
अगले दिन सुबह उन्होंने बहू रीमा को आवाज दी, “बहू, जरा कुछ खाने को दे दो, बहुत भूख लगी है।” रीमा बाहर आई और नाक पर आंचल रखते हुए बोली, “तुम्हारी वजह से तो जीना हराम हो गया है। ना खाते थकते हो, ना चिल्लाना बंद करते हो। लो खा लो।” वह थाली को ऐसे सरका कर रख गई जैसे किसी अजनबी कुत्ते को खाना फेंक रही हो। कई बार तो वह खाना भी नहीं देती थी।
रामनाथ जी शर्म और अपमान से तड़प उठते, लेकिन पड़ोसियों से खाना मांगना उन्हें मंजूर नहीं था। एक दिन भूख से बेहाल होकर वे बाजार तक पहुंच गए। दुकानों पर जाकर बोले, “बेटा, जरा कुछ खाने को दे दो, कई दिन से पेट भरकर नहीं खाया।” किसी ने तरस खाकर आधी रोटी दी, तो किसी ने पानी पिला दिया। पर कई बार पूरा दिन बिना खाए ही गुजर जाता।
इधर घर पर रीमा अजय से शिकायत करने लगी, “सुनते हो? तुम्हारे बाप अब बाजार में जाकर भीख मांगते हैं। सोचो कितना शर्मनाक है। पड़ोसी बातें बना रहे हैं। मन तो करता है इनके खाने में जहर डाल दूं।” अजय गुस्से में बोला, “बस रीमा, और बर्दाश्त नहीं होगा। आज से अगर यह घर के पास भी आए तो धक्के मारकर बाहर निकाल दूंगा।”
एक शाम रामनाथ जी हिम्मत करके घर लौटे। दरवाजे पर खड़े होकर अजय से बोले, “बेटा, अब से मैं बाहर नहीं जाऊंगा। बहुत ठंड है। मुझे माफ कर दो, मैं यहीं रह लूंगा।” लेकिन अजय का दिल पत्थर हो चुका था। उसने पिता को जोर से धक्का देकर कहा, “जाओ जहां तुम्हें खाना मिलता है, वहीं रहने का इंतजाम भी कर लो। अब यहां आने की कोई जरूरत नहीं।”
रामनाथ जी गिड़गिड़ाते रहे, “बेटा, मैं कहां जाऊंगा इस उम्र में? रहम कर मुझ पर, मैं तेरा पिता हूं।” लेकिन अजय ने उनकी एक न सुनी। पिता का कांपता शरीर सड़क पर गिर पड़ा।
अगली सुबह धूप की हल्की किरण देखकर रामनाथ जी बाजार में एक पौधे बेचने वाले की दुकान के पास बैठ गए। आंखों में आंसू थे और दिल में टूटन। तभी एक ग्राहक पौधे वाले से बोला, “भैया, यह पौधा गमले में लगेगा क्या? कोई खास तरीका है?” पौधे वाला बोला, “अरे नहीं, कहीं भी लगा सकते हो, बस मिट्टी में थोड़ा गोबर मिला देना।”
यह सुनकर रामनाथ जी बोले, “बेटा, यह पौधा धूप बहुत पसंद करता है, इसे धूप में रखना वरना मुरझा जाएगा।” ग्राहक चौंक कर बोला, “अरे काका, आपको तो पेड़ पौधों की अच्छी जानकारी है, आप क्या करते हैं?” रामनाथ जी ने आंसू पोंछते हुए कहा, “मैं किसान था बेटा, लेकिन अब तो सड़क की धूल चाट रहा हूं।”
ग्राहक का नाम था संजय, एक संवेदनशील इंसान। उसने पूछा, “काका, मेरे दोस्त को एक माली चाहिए, आप करोगे क्या?” रामनाथ जी ने कड़वाहट भरी हंसी के साथ कहा, “जब बेटे ने ही मुझे नहीं रखा तो दूसरा कौन रखेगा? देखो एक घाव, इसी की वजह से सबने मुंह मोड़ लिया।”
संजय ने गंभीरता से कहा, “तो चलिए मेरे साथ, पहले आपको डॉक्टर दिखाता हूं। यह घाव भरना जरूरी है, उसके बाद काम करोगे, लेकिन बोझ बनकर नहीं।”
आत्मसम्मान से रामनाथ जी की आंखों में पहली बार उम्मीद की किरण जगी। संजय ने रामनाथ जी को क्लीनिक पहुंचाया। डॉक्टर ने घाव देखा और कहा, “अगर सही इलाज और दवाइयां समय पर मिलतीं तो यह इतना बिगड़ता नहीं।” उन्होंने मरहम पट्टी और दवाइयां लिख दीं। संजय ने तुरंत सारी दवाइयां खरीदकर दीं और आश्वस्त किया, “काका, अब आप अकेले नहीं हैं, मैं आपके साथ हूं।”
रामनाथ जी की आंखें भर आईं। कांपते स्वर में बोले, “बेटा, मैं तो भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि मुझे अपने पास बुला ले, पर लगता है भगवान ने मुझे तुम्हारे रूप में सहारा भेजा है।”
कुछ दिनों की दवा और देखभाल से घाव भरने लगा। शरीर भी धीरे-धीरे मजबूत होने लगा। फिर संजय उन्हें अपने दोस्त प्रमोद के पास ले गया, जिसके पास बड़ा बंगला और बगीचा था। प्रमोद ने संजय से पूछा, “यही बुजुर्ग हैं जिनकी आप बात कर रहे थे?” संजय मुस्कुराते हुए बोला, “हां, इन्हीं से बेहतर माली आपको नहीं मिलेगा। खेत-खलिहान में जीवन बिताया है, पौधे-पौधों को पहचानते हैं।”
प्रमोद थोड़ा संदेह में था, उसने पूछा, “काका, आपको बागवानी आती है ना? मेरा बगीचा बंजर हो चुका है, जो भी आता है बस आलस करता है।” रामनाथ जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “बेटा, मैं किसान रहा हूं, मिट्टी, बीज, पौधे ही मेरी जिंदगी हैं। मौका दो तो इस बगीचे को फिर से लहरा दूंगा।”
प्रमोद ने हामी भर दी, “ठीक है काका, यह जिम्मेदारी आपकी।” रामनाथ जी ने बगीचे की कमान संभाली। सुबह सूरज निकलते ही मिट्टी उलटते, पौधों को पानी देते, नई कलमें लगाते। धीरे-धीरे मेहनत रंग लाने लगी। पूरा बगीचा हरा-भरा हो गया, रंग-बिरंगे फूल खिले, पेड़ों पर फल झूमने लगे।
एक साल बाद प्रमोद विदेश से लौटा। बंगले में कदम रखते ही उसकी आंखें खुली की खुली रह गईं। बगीचा हरियाली से लहलहा रहा था। रंग-बिरंगे फूल खिले थे। प्रमोद भावुक होकर बोला, “क्या यकीन होता है कि यह वही बगीचा है जो कभी बंजर था। आपने कमाल कर दिया।”
उसका बेटा सैडी दौड़कर आया और हंसते हुए बोला, “दादू, आप तो जादूगर निकले। बताइए यह सब कैसे किया?” रामनाथ जी ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, यह कोई जादू नहीं, बस मिट्टी से प्यार होना चाहिए। पौधे भी इंसान की तरह हैं, अगर देखभाल और स्नेह मिले तो लहलहा उठते हैं।”
सैडी ने कहा, “दादू, अगर लोग आपके वीडियो देखें तो आप बहुत मशहूर हो जाएंगे। मैं आपके लिए चैनल बनाऊंगा।” रामनाथ जी हंस पड़े, “मुझे कहां आता है यह सब, मैं तो बस मिट्टी और पौधों को जानता हूं।” लेकिन सैडी जिद पर अड़ा रहा। उसने रामनाथ जी का एक छोटा वीडियो बनाया जिसमें वह पौधों की देखभाल का तरीका बता रहे थे।
धीरे-धीरे उनके वीडियो लोगों तक पहुंचने लगे। लोग दंग रह गए कि एक साधारण किसान इतनी गहरी बातें पौधों के बारे में बता सकता है। देश-विदेश से लोग उनसे सलाह लेने लगे। रामनाथ जी अब सिर्फ माली नहीं, बल्कि गार्डनिंग गुरु बन गए। उनकी पहचान हर घर तक पहुंच गई। उनके पास नाम भी था और पैसा भी। लेकिन सबसे बड़ी बात, उन्हें आत्मसम्मान वापस मिल चुका था, जो उनका बेटा अजय छीन चुका था।
उनकी नर्सरी भी मशहूर हो गई थी। लोग सिर्फ पौधे खरीदने ही नहीं, उनसे मिलने और फोटो खिंचवाने आते थे। वही बुजुर्ग पिता, जो सड़क पर अपमानित होकर खाना तलाशते थे, आज सम्मान के साथ सबकी जुबान पर थे।
इसी दौरान प्रमोद ने एक दिन रामनाथ जी से कहा, “काका, सच बताओ तो मैं इस बंगले को बेचना चाहता था, पर अब लगता है यह बंगला सही हाथों में है। मैं इसे आपको देना चाहता हूं।” रामनाथ जी चौंक कर बोले, “इतना बड़ा बंगला, करोड़ों का होगा, मैं कैसे ले सकता हूं?” प्रमोद मुस्कुराए और बोले, “जिन्होंने बिना मालिक बने इस बंगले का इतना ध्यान रखा, वो मालिक बनकर इसे और संभालेंगे। मुझे आपसे कोई बाजार का दाम नहीं चाहिए, जितना आपके बस में हो उतना दीजिए।”
रामनाथ जी की आंखें भर आईं। उन्होंने कहा, “जब मैं कठिनाई में था तब तुमने मुझे सहारा दिया। अब भगवान ने मुझे इस काबिल बनाया है कि मैं इसका हकदार बन सकूं। मैं पूरी ईमानदारी से इसकी कीमत दूंगा।” इस तरह रामनाथ जी उस बंगले के मालिक बन गए, जहां कभी वे मजदूर की तरह रहते थे।
समय का पहिया घूम चुका था।
एक दिन उसी बंगले के बाहर गाड़ी आकर रुकी। दरवाजा खुला और बाहर निकले अजय और रीमा। दोनों के चेहरे थके हुए थे, कपड़े अस्त-व्यस्त और आंखों में डर, तंगाली और परेशानी साफ झलक रही थी। उन्हें पता चल चुका था कि उनके पिता इस बंगले में माली का काम करते हैं और बंगले का मालिक उन्हीं की जान से चाहता है। शायद पिता के कहने पर मालिक कुछ मदद कर दे।
जैसे ही उन्होंने बंगले का विशाल दरवाजा और भीतर का हराभरा बगीचा देखा, दोनों स्तब्ध रह गए। रीमा कांपते स्वर में बोली, “सुनते हो अजय? यह वही बूढ़ा है जिसे हमने तबेले में डाल दिया था।” अजय के होंठ कांपने लगे, “हां रीमा, वही है, पर आज देखो कहां पहुंच गए।”
दोनों कांपते कदमों से अंदर आए। रामनाथ जी बगीचे में पौधों को पानी दे रहे थे। उनकी सफेद दाढ़ी में गरिमा थी और चेहरे पर आत्मसम्मान की चमक। अजय तुरंत उनके पैरों पर गिर पड़ा और रोते हुए बोला, “पापा, हमें माफ कर दीजिए। गलती तो बच्चों से ही होती है। हमें घर से मत निकालिए।”
रीमा भी उनके साथ गिड़गिड़ाने लगी, “बाबूजी, हमसे भूल हो गई, अब हमें माफ कर दीजिए।” रामनाथ जी ने पानी की बाल्टी रखी और दोनों की ओर देखा। उनकी आंखों में सख्ती भी थी और दर्द भी। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “गलती की माफी होती है बेटा, लेकिन गुनाह की नहीं।”
अजय रोते हुए बोला, “पापा, अब हमें अपनाइए, वरना हम दर-दर की ठोकरे खाएंगे।” रामनाथ जी का चेहरा लाल हो गया। उन्होंने गुस्से में कहा, “जब मैं दर-दर भटक रहा था, तब तुम्हें मेरी तकलीफ नजर नहीं आई। तब तुमने मुझे घर से धक्का देकर निकाला। अब मैं तुम्हें अपने दिल में जगह नहीं दे सकता।”
उन्होंने अजय को जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। अजय वहीं जमीन पर गिर पड़ा। उसी समय पुलिस की गाड़ी बंगले के बाहर आकर रुकी। रामनाथ जी ने पुलिस को किसी जरूरी काम के लिए बुलाया था। अजय ने पुलिस को देखते ही झूठ बोलने की कोशिश की, “सर, यह मेरे पिता हैं पर इनकी दिमागी हालत सही नहीं है। इनका इस बंगले से कोई लेना-देना नहीं।”
लेकिन पुलिस अफसर ने हंसते हुए कहा, “अरे भाई, तुम्हें खबर नहीं है? यह तो पूरे शहर के मशहूर गार्डनिंग गुरु हैं। इस बंगले के असली मालिक भी यही हैं। और इनका नाम आज देश-विदेश में जाना जाता है।”
पुलिस की बात सुनकर अजय और रीमा के पैरों तले जमीन खिसक गई। जिस पिता को उन्होंने तबेले में डालकर अपमानित किया था, वही पिता आज करोड़ों के मालिक और समाज में सम्मानित हستی बन चुके थे।
रामनाथ जी ने गहरी नजर से दोनों की ओर देखा और भारी आवाज में कहा, “अजय, जब माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं तो अपनी पूरी जिंदगी न्योछावर कर देते हैं। लेकिन तुमने क्या किया? बुढ़ापा आते ही मुझे बोझ समझकर घर से धक्के देकर निकाल दिया। अगर उस दिन भगवान ने संजय को मेरे रास्ते में न भेजा होता, तो शायद मैं कब का मिट्टी में मिल गया होता।”
रीमा आंसू पोंछते हुए बोली, “बाबूजी, उस समय हमसे भूल हो गई, अब हमें माफ कर दीजिए।” रामनाथ जी की आवाज और कड़क हो गई, “अब यह घर तुम्हारे लिए नहीं है। यह घर उस मेहनत और आत्मसम्मान का प्रतीक है, जिसे तुमने मुझसे छीनने की कोशिश की थी। निकल जाओ यहां से, मेरी नजर के सामने मत आना।”
उनकी आवाज में ऐसा रौद्र रूप था कि अजय और रीमा कांप उठे। पुलिस अफसर ने भी कठोर स्वर में कहा, “तुम दोनों को अब यहां से जाना होगा।” अजय और रीमा शर्म और आंसू लिए बंगले से बाहर निकल गए। अब उनके पास ना घर था, ना सहारा, बस पछतावे का बोझ।
दूसरी ओर रामनाथ जी अपने बंगले के आंगन में खड़े थे। चारों तरफ हरियाली, फूलों की खुशबू और पौधों की सरसराहट उनके जीवन की जीत का गीत गा रही थी। उन्होंने आसमान की ओर देखा और हाथ जोड़कर कहा, “हे भगवान, तूने देर की पर अंधेर नहीं। आज मुझे समझ आ गया कि अच्छे कर्म कभी बेकार नहीं जाते।”
रामनाथ जी अब लोगों के लिए सिर्फ गार्डनिंग गुरु नहीं, बल्कि प्रेरणा बन चुके थे। लोग उनसे सीखने लगे कि बुढ़ापा बोझ नहीं होता, बल्कि अनुभव और आशीर्वाद का भंडार होता है।
दोस्तों, इस कहानी से यही सीख मिलती है कि माता-पिता भगवान का रूप होते हैं। अगर उन्हें अपमानित करोगे, तो दुनिया तुम्हें कभी चैन से नहीं जीने देगी। जो जैसा करेगा, वैसा ही पाएगा। आज अगर तुम अपने माता-पिता के साथ बुरा करोगे, तो कल जिंदगी तुम्हारे साथ और भी बुरा करेगी।
तो बताइए, क्या ऐसे बच्चों को माफ किया जाना चाहिए जो अपने माता-पिता को घर से निकाल देते हैं? अपनी राय कमेंट में जरूर लिखिए। अगर कहानी दिल को छू गई हो तो वीडियो को लाइक करें और चैनल स्टोरी बाय आरके को सब्सक्राइब करें।
मिलते हैं अगले वीडियो में। तब तक खुश रहिए, अपनों के साथ रहिए और रिश्तों की कीमत समझिए। जय हिंद!
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