मुंबई की सिया – एक भावुक कहानी
दोपहर का समय था। मुंबई की चिलचिलाती धूप में सड़क किनारे एक छोटी सी सब्जी की ठेली लगी थी। उस ठेले पर टमाटर, प्याज, हरी मिर्च और आलू सजे हुए थे – सब जैसे उस लड़की की मेहनत की गवाही दे रहे थे। उस ठेले के पीछे खड़ी थी 19 साल की सिया। फटी पुरानी सलवार-कुर्ता, धूप से जली हुई सांवली त्वचा, हाथों में पड़े छाले – लेकिन उसकी आंखों में जीवन की जंग जीतने का इरादा साफ झलक रहा था।
सिया बचपन से ही अनाथ थी। मां-बाप का साया बहुत पहले ही उठ चुका था। गांव से शहर आई तो यही ठेला उसका सहारा बन गया। सुबह-सुबह मंडी से सब्जियां खरीदकर लाती और शाम तक बेचती। जो चार सौ रुपये बचते, उसी से उसका गुजारा चलता। उस दिन भी वह आवाज लगाकर सब्जियां बेच रही थी – “टमाटर ले लो, प्याज ले लो, ताजी सब्जियां ले लो।” लोग आते, मोलभाव करते, कोई दस रुपये काटता, कोई पांच। मगर सिया हर ग्राहक को मुस्कान के साथ जवाब देती, क्योंकि उसके लिए हर रुपया जरूरी था।
तभी सड़क पर पुलिस की जीप आकर रुकी। तीन-चार वर्दी वाले सिपाही तेज कदमों से उतरे। एक पुलिस वाले ने ऊंची आवाज में कहा, “ऐ लड़की, यहां ठेला लगाने की इजाजत किसने दी?” सिया घबरा गई, बोली – “साहब, कहीं और जगह नहीं है। यहीं से मेरा गुजारा होता है। बस थोड़ी देर शाम तक।” लेकिन पुलिस वालों ने उसकी बात सुनी ही नहीं। “चल हट, हटाओ इसे!” कहते हुए उन्होंने ठेला जोर से धक्का दे दिया। एक ही पल में ठेले पर रखे टमाटर जमीन पर लुढ़क गए, प्याज और आलू सड़क पर बिखर गए, हरी मिर्च धूल में मिल गई। सिया लड़खड़ा कर गिर पड़ी। उसकी हथेलियां छिल गईं, घुटनों से खून निकल आया। वह दर्द से नहीं, बल्कि बेइज्जती से रो पड़ी।
आसपास खड़े लोग तमाशा देखते रहे। कोई आगे नहीं आया, कोई मदद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बस फुसफुसाहट होने लगी – “अरे यह तो रोज यहीं बैठ जाती है, भिखारिन जैसी लगती है, कितना जिद्दीपन है इसका।” सिया ने हाथ जोड़कर रोते हुए कहा – “साहब, मत तोड़िए मेरी मेहनत। यह ठेला ही मेरा सब कुछ है। यहीं से मेरा खाना बनता है, यहीं से जिंदगी चलती है।” लेकिन पुलिस वालों ने उसकी बातों पर हंसते हुए ताना कसा – “जा, यहां तेरा ठेला नहीं चलेगा। अगर बहुत शौक है तो कहीं और जा।”
सिया वहीं घुटनों के बल बैठ गई, धूल में सनी सब्जियां समेटने लगी। उसके आंसू उन सब्जियों पर गिरते रहे। वह बोल रही थी, मगर उसकी आवाज भीड़ में खो गई थी – “हे भगवान, मेरी मदद करो। कोई तो सुन ले मेरी पुकार।” सड़क पर सन्नाटा छा गया।
तभी दूर से अचानक सायरन की गूंज सुनाई दी। सबकी निगाहें मुड़ गईं। एक काले रंग की सरकारी गाड़ी, जिस पर लाल बत्ती लगी थी, धीरे-धीरे पास आकर रुकी। भीड़ में फुसफुसाहट फैल गई – “अरे, यह तो डीएम साहब की गाड़ी है!” पुलिस वाले जो अभी तक हंस रहे थे, एकदम चौकन्ने होकर खड़े हो गए। उनके चेहरों का रंग उड़ गया। गाड़ी का दरवाजा धीरे से खुला। एक तेज कद-काठी वाला शख्स सफेद शर्ट और काले पैंट में बाहर निकला। चेहरा कठोर, लेकिन आंखों में गहरी संवेदना। वो थे जिले के जिलाधिकारी।
सड़क पर अचानक सन्नाटा पसर गया। हर कोई रुक कर देखने लगा कि अब क्या होने वाला है। भीड़ की सांसे जैसे थम गई थीं। सड़क किनारे धूल में गिरी सब्जियां, रोती हुई सिया और उसके सामने पुलिस वालों का झुंड – पूरा दृश्य किसी फिल्म का सीन लग रहा था। डीएम साहब धीरे-धीरे आगे बढ़े। उनकी नजरें सीधे सिया पर टिकी थीं। सिया ने सिर उठाया, उसकी आंखें आंसुओं से भीगी थीं, चेहरा लाल था, होठ कांप रहे थे। उसने सोचा कि शायद यह भी उसे डांटने आए हैं। लेकिन अगले ही पल जो हुआ, उसने सबको हिला दिया।
डीएम साहब झुके। उन्होंने अपने साफ-सुथरे हाथों से बिखरे टमाटर और प्याज उठाने शुरू किए। सिया हैरान रह गई, भीड़ दंग रह गई, पुलिस वाले पसीने-पसीने हो गए। डीएम ने सिया से कहा, “बिटिया, उठो। यह काम मैं अकेले नहीं कर सकता। चलो, साथ मिलकर समेटते हैं।” सिया कांपते हुए खड़ी हुई, उसके हाथ थरथरा रहे थे। उसने धीरे से कहा – “साहब, यह लोग मेरा सब कुछ तोड़ गए। अब मैं कैसे जिऊंगी?” डीएम ने उसकी आंखों में देखा और बोले – “न्याय वहीं से शुरू होता है, जहां इंसानियत गिर जाती है। आज मैंने अपनी आंखों से देखा है कि कैसे ड्यूटी के नाम पर अन्याय हो रहा है।”
आसपास खड़े लोगों को पहली बार एहसास हुआ कि उन्होंने अब तक चुप रहकर गलती की है। भीड़ में एक बुजुर्ग ने धीमी आवाज में कहा – “सच कहते हैं, जब कानून ही जुल्म करने लगे तब इंसाफ का क्या मतलब रह जाता है?” पुलिस वाले सख्त खड़े थे, मगर उनके माथे से पसीना टपक रहा था। डीएम ने गुस्से से उनकी तरफ देखा – “तुम्हें वर्दी पहनने का हक किसने दिया? जनता की रक्षा करने आए हो या उन्हें रुलाने? जब ड्यूटी निर्दयता बन जाए तो वह ड्यूटी नहीं, अपराध कहलाती है।”
सिया चुप खड़ी थी, आंसुओं से उसका चेहरा धुल गया था। धीरे से उसने कहा – “साहब, मैं गरीब हूं मगर चोर नहीं। मेरी मेहनत ही मेरी इज्जत है। आज इन्होंने वह भी छीन ली।” भीड़ की आंखें भर आईं। लोग धीरे-धीरे उसके साथ सब्जियां उठाने लगे। एक नौजवान बोला – “बहन, माफ करना। हम सब अब तक सिर्फ तमाशा देखते रहे।” लेकिन असली सन्नाटा तब छाया जब डीएम अचानक ठिठक कर सिया को ध्यान से देखने लगे। उनकी आंखें चौड़ी हो गईं, चेहरे का रंग बदल गया। सिया के माथे पर जमी धूल और बिखरे बालों के पीछे उन्होंने कुछ जाना-पहचाना देखा। धीरे से बुदबुदाए – “यह शक्ल, यह आंखें…”
डीएम के कदम लड़खड़ाए। वो कुछ पल के लिए अतीत में खो गए। उनकी यादों में बचपन की तस्वीरें उभर आईं – एक छोटी बच्ची, उन्हीं जैसी बड़ी आंखों वाली, उनका हाथ थामे हुए। फिर किसी मेले में बिछड़ जाना और बरसों तक उसे ढूंढते रहना। भीड़ समझ नहीं पा रही थी कि डीएम अचानक क्यों चुप हो गए। पुलिस वाले भी सख्ती के बावजूद डरने लगे। सिया ने हिचकते हुए कहा – “साहब, आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं?” डीएम की आंखों से नमी छलक आई। उन्होंने धीरे से पूछा – “बिटिया, तुम्हारा नाम क्या है?”
सिया ने कांपती आवाज में जवाब दिया – “मेरा नाम सिया है।” यह सुनते ही डीएम का दिल जोर से धड़कने लगा। उनकी आंखों में चमक लौट आई और एक गहरी सांस लेकर उन्होंने खुद से कहा – “सिया… वही नाम, वही चेहरा… क्या यह वही हो सकती है?” भीड़ अभी तक कुछ नहीं समझी थी, पुलिस वाले डर से बुत बने खड़े थे। सड़क के बीचोंबीच एक अनहोनापन और सस्पेंस पसर चुका था।
डीएम की नजरें लगातार सिया पर टिकी थीं। जैसे कोई भूला हुआ चेहरा अचानक सामने आ गया हो। सिया झिझकते हुए बोली – “साहब, आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं? क्या मैं कोई गुनाहगार हूं?” डीएम की आंखें भीग गईं। उन्होंने सिर हिलाया – “नहीं बिटिया, गुनाह तो उन्होंने किया है जो तुम्हें रुला रहे हैं। लेकिन तुम्हारे चेहरे में मुझे मेरे अपने बचपन की परछाई दिख रही है।”
भीड़ की आंखें चौड़ी हो गईं। लोग आपस में फुसफुसाने लगे – “डीएम साहब यह क्या कह रहे हैं? क्या वह लड़की से रिश्ता निकाल रहे हैं?” सिया ने उलझन में कहा – “मैं तो अनाथ हूं साहब। मां-बाप बरसों पहले गुजर गए। उसके बाद यह गाड़ी ही मेरा सहारा है।” डीएम का दिल चीर गया। उनके होंठ कांपे, लेकिन उन्होंने खुद को संभाला। धीरे से पूछा – “बचपन में तुम्हारा नाम सिया ही रखा गया था?” सिया ने सिर झुका लिया – “हां, मेरी मां कहती थी, मैं उनके जीवन की रोशनी हूं, इसलिए मेरा नाम सिया रखा।”
यह सुनते ही डीएम के दिमाग में यादों का दरवाजा खुल गया। एक मेले की तस्वीर उभर आई। वो करीब दस साल का था और उसकी छोटी बहन सिया उसके साथ गुब्बारे के पीछे भाग रही थी। फिर भीड़ का धक्का, चीखें और उसका हाथ छूट जाना। उस दिन से लेकर आज तक वह पल हर रात उसे सताता रहा था। डीएम की आंखों से आंसू छलक पड़े। भीड़ स्तब्ध खड़ी थी। पुलिस वाले जमीन की तरफ देखने लगे थे, जैसे धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए।
डीएम धीरे-धीरे सिया के पास आए। कांपती आवाज में बोले – “बिटिया, तुम्हारे हाथ में कोई निशान है क्या? बचपन में तुम्हारे दाहिने हाथ पर जलने का एक दाग पड़ा था।” सिया चौकी। उसने धीरे से अपनी बांह ऊपर की। सूरज की रोशनी में एक छोटा सा गोल दाग साफ दिखा। भीड़ में एकदम सन्नाटा फूट पड़ा। सभी ने हक्का-बक्का होकर देखा। डीएम की आंखें अविश्वास से भरी थीं। वह एक घुटने पर झुक गए और बोले – “सिया, मेरी बहन, मैं तुझे बरसों से ढूंढ रहा था। तू यहां इस हालत में मिलेगी, कभी सोचा भी नहीं था।”
सिया के होंठ कांपे। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। उसने कहा – “भैया, आप सच में हैं? मेरे भैया!” डीएम ने बिना झिझक उसके हाथ थाम लिए – “हां सिया, मैं तेरा वही बड़ा भाई हूं। तू जिस दिन मेले में खोई थी, उस दिन से आज तक मैंने तुझे ढूंढना नहीं छोड़ा। मैं किस्मत को कोसता रहा, पर आज देखो, किस्मत खुद तुझे मेरे सामने ले आई है।”
भीड़ की आंखों में आंसू थे। लोगों ने सिर झुका लिया। पुलिस वालों की हालत और खराब हो गई। सिया सिसकते हुए बोली – “भैया, मैंने सोचा था दुनिया में मेरा कोई नहीं है। इन गलियों ने मुझे पाला, इस ठेले ने मुझे जिंदा रखा। मगर आज… आज मुझे फिर से अपना घर मिल गया।” डीएम ने उसका सिर सहलाया – “नहीं बिटिया, अब तुझे आंसू बहाने की जरूरत नहीं। आज से तू अकेली नहीं है। मैं तेरी ढाल हूं, तेरा सहारा हूं।”
भीड़ ने तालियां नहीं बजाई, ना ही कोई शोर किया। बस हर आंख नम हो गई। यह दृश्य इतना भावुक था कि हर दिल पिघल गया। लेकिन उसी पल डीएम ने कठोर स्वर में पुलिस वालों की तरफ देखा। उनकी आवाज गूंजी – “आज तुम सबने सिर्फ एक गरीब लड़की का अपमान नहीं किया, तुमने मेरी बहन का और इस देश की हर मेहनतकश बेटी का अपमान किया है। अब इसका हिसाब होगा।” सड़क पर खड़े लोग एक साथ बोल उठे – “हां, सजा होनी चाहिए।”
सिया ने भरे गले से धीरे से कहा – “भैया, इन्हें छोड़ दो। मेरी तकलीफें अब खत्म हो गई हैं।” डीएम ने उसकी तरफ देखा – “सजा सिर्फ बदला नहीं होती, सजा समाज को सबक देने का तरीका होती है। और यह सबक आज पूरा शहर देखेगा।”
**(समाप्त – यह कहानी हमें बताती है कि मेहनत, इंसानियत और रिश्ते सबसे ऊपर हैं।)**
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