रोजाना लेट आने पर छात्र को स्कूल में मिलती थी सजा ,एक दिन टीचर को उसकी असली वजह पता चली तो उसके होश
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साहिल की कहानी: जब अनुशासन के पीछे छुपा होता है संघर्ष और संवेदना
कहानी शुरू होती है लखनऊ के एक पुराने मध्यमवर्गीय इलाके से, जहां आदर्श विद्या मंदिर नाम का एक स्कूल था। यह स्कूल अपनी कड़ी पढ़ाई और अनुशासन के लिए पूरे इलाके में मशहूर था। इस स्कूल में 10वीं कक्षा की क्लास टीचर, श्रीमती शारदा यादव, अपनी सख्ती और नियमों के लिए जानी जाती थीं। पिछले 20 सालों से विज्ञान पढ़ाने वाली शारदा जी का मानना था कि जीवन में सफलता का एकमात्र रास्ता अनुशासन है। उनके लिए नियम कानून से ऊपर कुछ नहीं था।
उनकी कक्षा में साहिल नाम का एक 15 वर्षीय लड़का था, जो उनकी सख्ती का सबसे बड़ा शिकार था। साहिल एक दुबला-पतला, शर्मीला लड़का था, जिसकी आंखें अक्सर झुकी रहती थीं और चेहरे पर एक गहरी खामोशी छाई रहती थी। साहिल की सबसे बड़ी आदत थी रोज स्कूल लेट आना। यह कोई एक दिन की गलती नहीं थी, बल्कि रोज का सिलसिला था। स्कूल की पहली घंटी 8 बजे बजती थी, लेकिन साहिल अक्सर 8:10 या 8:15 बजे पसीने से तरबतर होकर क्लास के दरवाजे पर खड़ा होता।
शारदा जी की नजर में यह लापरवाह और अनुशासनहीनता थी। वह रोज साहिल को क्लास के सामने डांटती, उसे बेइज्जत करती और कभी-कभी बैट से हाथ पर मार भी देती। क्लास के बाकी छात्र साहिल का मजाक उड़ाते और उसे ‘लेट लतीफ’ कहकर तंग करते। शारदा जी ने हर संभव तरीका आजमाया—प्यार से समझाना, डाँटना, सजा देना, उसके माता-पिता को बुलाने की धमकी देना—लेकिन साहिल की आदत नहीं बदली। वह रोज लेट आता और चुपचाप सजा सहता रहता।
शारदा जी को लगता था कि साहिल जानबूझकर उनकी अथॉरिटी को चुनौती दे रहा है। वे उसे एक बिगड़ा हुआ और लापरवाह छात्र समझने लगी थीं। पर साहिल की दुनिया स्कूल से बहुत अलग थी। वह लखनऊ की एक झुग्गी बस्ती में रहता था, जहां जिंदगी हर दिन एक नई लड़ाई लड़ती थी।
साहिल के पिता दो साल पहले एक फैक्ट्री हादसे में गुजर चुके थे। घर का सारा बोझ उसकी मां कमला पर आ गया था। कमला झाड़ू-पोछा करके परिवार चलाती थीं, लेकिन कुछ महीनों से बीमार चल रही थीं। डॉक्टरों ने आराम करने की सलाह दी थी, पर घर का चूल्हा जलाना जरूरी था। साहिल ने यह सब अपनी खामोश आंखों से देखा। उसने देखा कि उसकी मां दर्द में भी काम पर जाती है, और उसकी छोटी बहन गुड़िया टूटी हुई गुड़िया से खेलकर खुश रहती है। घर में कई बार केवल नमक रोटी पर गुजर-बसर होता था।
एक रात साहिल ने अपनी मां को खांसते-खांसते पूरी रात जागते हुए देखा। उस वक्त उसने मन बना लिया कि अब वह अपनी मां पर बोझ नहीं डालेगा। वह पढ़ाई के साथ-साथ घर की जिम्मेदारियां भी उठाएगा।
अगली सुबह शहर गहरी नींद में था, लेकिन साहिल सुबह 4 बजे उठ गया। उसने चुपचाप घर का दरवाजा खोला और अखबार वितरण केंद्र की तरफ चल पड़ा। वहां उसने अखबार एजेंट से कहा कि वह अखबार बेचना चाहता है। एजेंट ने उसे शक की नजर से देखा, लेकिन साहिल की मेहनत और जिद देखकर उसे नौकरी दे दी।
अब साहिल की सुबह की शुरुआत अलार्म की घंटी से नहीं, बल्कि अंधेरे के सन्नाटे से होती। वह रोज 4 बजे उठता, अखबार के बंडल लेकर अपनी पुरानी साइकिल पर शहर की गलियों में अखबार बांटता। चाहे कड़ाके की ठंड हो या तेज बारिश, वह कभी रुकता नहीं। अखबार बांटने के बाद वह हजरतगंज के व्यस्त चौराहे पर जाकर ट्रैफिक सिग्नल पर अखबार बेचता। उसकी आवाज अक्सर गाड़ियों के शोर में खो जाती, कई बार लोग उसे डाँट कर भगा देते।
7:30 बजे तक अखबार बेचने के बाद वह घर लौटता, जो आमतौर पर उसकी मां के हाथ में कमाई देता। फिर बिना नाश्ता किए स्कूल की यूनिफार्म पहनकर दौड़ता हुआ स्कूल पहुंचता। स्कूल उसके घर से करीब 3 किलोमीटर दूर था। वह जितना भी तेज दौड़ता, स्कूल पहुंचते-पहुंचते 8:15 या उससे बाद का समय हो जाता, जहां उसकी रोज की सजा इंतजार कर रही होती।
साहिल को पता था कि उसे मार पड़ेगी, सजा मिलेगी, जलील होना पड़ेगा, लेकिन उसने कभी किसी को, यहां तक कि अपनी टीचर को भी अपनी सुबह की इस कहानी के बारे में नहीं बताया। उसे डर था कि अगर स्कूल में पता चल गया तो लोग उसका मजाक उड़ाएंगे और सबसे बड़ी बात, वह अपनी मां को दुखी नहीं करना चाहता था। इसलिए वह खामोशी से सबकुछ सहता रहा क्योंकि स्कूल की सख्तियां उसकी जिंदगी की मुश्किलों के सामने कुछ भी नहीं थीं।
एक सर्द सुबह, घने कोहरे में लिपटी, शारदा यादव अपनी कार से स्कूल आ रही थीं। हजरतगंज चौराहे पर लाल बत्ती पर उनकी गाड़ी रुकी। उन्होंने बाहर देखा तो साहिल को देखा, जो ठंड से कांपता हुआ, फटी-पुरानी स्वेटर पहने, गाड़ियों के बीच दौड़-दौड़ कर अखबार बेचने की कोशिश कर रहा था। उसकी आवाज में एक अजीब सी जिद थी। शारदा जी को उस पर तरस आया। उन्होंने शीशा नीचे किया और उसे बुलाया। साहिल दौड़कर उनकी गाड़ी के पास आया और अखबार बढ़ाया।
जब साहिल की नजर शारदा जी पर पड़ी तो वह जैसे जंप सा गया। उसका हाथ कांप गया और अखबार गिर गया। साहिल को देखकर शारदा जी के होश उड़ गए। वह अपनी कुर्सी पर पत्थर की तरह बैठ गईं। वह लड़का जिसे वे अमीर, बिगड़ैल और लापरवाह समझती थीं, वह इस कड़ाके की ठंड में अखबार बेच रहा था।
साहिल घबराकर बिना पैसे लिए वहां से भाग गया। शारदा जी ने उसे आवाज देने की कोशिश की, लेकिन वह भीड़ में खो गया। गाड़ी बढ़ाने के बाद भी उनका दिल वहीं चौराहे पर रह गया था। उनकी आंखों के सामने साहिल का डरा हुआ चेहरा घूम रहा था। वे अपनी कही हर कठोर बात, हर मारी हुई बैट को जहरीले तीर की तरह अपने दिल में महसूस कर रही थीं। उनके शब्द, जो कभी सही लगते थे, आज उन्हें गाली की तरह लग रहे थे।
उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्हें अपनी सख्ती, अंधेपन और नासमझी पर गहरा पछतावा हुआ।
अगले दिन स्कूल पहुंचकर शारदा जी सीधे प्रिंसिपल के ऑफिस गईं और साहिल की फाइल निकाली। फाइल में उसका घर का पता लिखा था। स्कूल में जब साहिल 8:15 बजे डरते हुए क्लास के दरवाजे पर खड़ा हुआ, तो उसने देखा कि मैडम वहां नहीं थीं। प्रिंसिपल के ऑफिस से पता चला कि शारदा जी छुट्टी पर हैं। साहिल ने राहत की सांस ली, सोचकर आज सजा से बच गया।
लेकिन उसे क्या पता था कि उसकी टीचर उसी दिन उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी होकर अपनी आत्मा की सजा भुगत रही थीं।
स्कूल खत्म होने के बाद शारदा जी साहिल के घर गईं। झुग्गी बस्ती की तंग गंदी गलियों से होकर जब वे साहिल के घर पहुंचीं, तो उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने दरवाजा खटखटाया। अंदर से एक कमजोर, बीमार सी महिला बाहर आई—साहिल की मां कमला।
शारदा जी ने खुद को साहिल की टीचर बताया। कमला घबरा गईं, उन्हें लगा साहिल ने कोई गलती कर दी है। शारदा जी ने कहा कि गलती मुझमें है। वह वहीं झोपड़ी के बाहर बैठकर रोने लगीं। कमला ने साहिल की पूरी कहानी बताई—पति की मृत्यु, अपनी बीमारी, साहिल का अखबार बेचने का संघर्ष।
शारदा जी को लगा जैसे किसी ने उनके ऊपर उबलता पानी डाल दिया हो। वे कमला के पैरों में गिर पड़ीं और माफी मांगीं। कमला ने उन्हें संभाला और कहा, “आप तो गुरु हैं, साहिल आपका भी बेटा है।”
उस दिन झोपड़ी में दोनों मांओं के आंसू एक साथ बह रहे थे—एक जिसने बेटे को जन्म दिया था और दूसरी जिसे आज बेटे का असली मतलब समझ आया था।
अगले दिन सुबह प्रार्थना सभा में शारदा जी और साहिल प्रिंसिपल के साथ मंच पर खड़े थे। शारदा जी ने माइक लेकर पूरी स्कूल के सामने साहिल से माफी मांगी और उसकी कहानी बताई। उनकी आवाज कांप रही थी, लेकिन दृढ़ता से भरी थी। सभा में गहरा सन्नाटा छा गया, फिर तालियों की गड़गड़ाहट हुई।
अब साहिल सिर्फ ‘लेट लतीफ’ नहीं, बल्कि स्कूल का हीरो बन चुका था। उसकी झुकी हुई नजरें पहली बार गर्व से ऊपर उठी थीं।
स्कूल स्टाफ रूम में मीटिंग हुई। प्रिंसिपल ने साहिल की पूरी फीस माफ कर दी। शारदा जी ने अपनी तनख्वाह का एक हिस्सा साहिल के परिवार को देने का प्रस्ताव रखा। अन्य टीचर भी आर्थिक मदद करने लगे।
अब साहिल को सुबह अखबार बेचने नहीं जाना पड़ता था। वह रात को देर तक पढ़ सकता था, आराम से नाश्ता करके समय पर स्कूल जाता था। शारदा जी उसकी दूसरी मां बन गई थीं, जो उसे ट्यूशन पढ़ाती थीं और हर जरूरत का ख्याल रखती थीं।
कुछ साल बाद साहिल ने 12वीं कक्षा में पूरे जिले में टॉप किया। सम्मान समारोह में उसने मेडल लेकर अपनी दोनों मांओं के पैर छुए।
यह कहानी हमें सिखाती है कि किसी को उसके बाहरी व्यवहार से आंकना गलत है। हर इंसान के अंदर एक कहानी और संघर्ष होता है। एक टीचर का फर्ज सिर्फ किताबें पढ़ाना नहीं, बल्कि अपने छात्र की मुश्किलों को समझना और उसे सही राह दिखाना भी है।
शारदा यादव ने अपनी गलती सुधारी और एक बच्चे की जिंदगी संवार दी। हमें भी चाहिए कि हम दूसरों को समझने की कोशिश करें और संवेदनशील बनें।
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