प्यार के लिए करोड़पति लड़का लड़की के घर का बना नौकर… फिर जो हुआ, दिल रो पड़ा
अपने प्यार के लिए करोड़पति लड़का बना लड़की के घर का नौकर – दिल को छू लेने वाली कहानी
मुंबई के मशहूर कारोबारी सुधीर कपूर जितना अपने कारोबार के लिए जाना जाता था, उतना ही अपने सख्त स्वभाव और ऊंची सोच के लिए भी मशहूर था। उसकी दौलत इतनी थी कि शहर का शायद ही कोई कोना ऐसा रहा हो जहां उसका नाम न गूंजता हो। लेकिन इस वैभव और शानो-शौकत के बीच उसका इकलौता बेटा अर्जुन कपूर अक्सर अकेला और दबा हुआ महसूस करता था।
अर्जुन बचपन से ही समझदार और मिलनसार था। उसमें ना तो घमंड था, ना दिखावा। वो लोगों से जमीन से जुड़कर बातें करता था। लेकिन उसके पिता हमेशा चाहते थे कि अर्जुन हर कदम उनके आदेश और मर्यादा में चले। अर्जुन की कोई भी बात या निर्णय सुधीर कपूर की सख्त नजरों से बच नहीं सकता था। धीरे-धीरे अर्जुन के भीतर यह दबाव इतना बढ़ गया कि उसने ठान लिया – वह अपनी पहचान खुद बनाएगा, अपने दम पर कुछ करेगा।
इसी सोच के साथ अर्जुन ने तय किया कि वह पढ़ाई के लिए विदेश जाएगा। जब उसने यह बात अपने पिता से कही तो सुधीर ने पहले कड़ा विरोध किया, “तुम्हें सब कुछ यही है, बाहर जाकर क्या मिलेगा?”
लेकिन अर्जुन ने झुकने से इंकार कर दिया। उसकी दादी सरला देवी, जो हमेशा अर्जुन का हौसला बढ़ाती थीं, ने भी पोते का साथ दिया। आखिरकार सुधीर कपूर को मानना पड़ा और अर्जुन यूरोप पढ़ाई के लिए निकल पड़ा।
यूरोप में सब कुछ नया था – भाषा, संस्कृति, लोग। लेकिन अर्जुन ने अपनी सादगी और अपनापन वहीं भी कायम रखा।
कॉलेज के पहले ही दिन उसकी मुलाकात हुई एक लड़की से – संजना त्रिवेदी।
संजना लखनऊ के जानेमाने परिवार की बेटी थी। उसके दादा गोपाल कृष्ण त्रिवेदी शहर में इज्जत और परंपरा के प्रतीक माने जाते थे। वे बेहद सख्त और अनुशासनप्रिय थे। संजना अपनी मां और चचेरे भाई के साथ यूरोप पढ़ाई करने आई थी।
पहली मुलाकात लाइब्रेरी में हुई। अर्जुन एक किताब ढूंढ रहा था और संजना भी उसी किताब की तलाश में थी। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, हल्की सी मुस्कान हुई। संजना ने कहा, “आप लीजिए, मुझे कोई और किताब मिल जाएगी।”
अर्जुन ने हंसकर जवाब दिया, “नहीं, शायद यह किताब हमें मिलवाने का बहाना है।”
संजना हल्का सा मुस्कुरा दी। मगर अंदर ही अंदर उसने महसूस किया कि यह लड़का बाकी सबसे अलग है।
दिन बीतते गए, क्लासेस और प्रोजेक्ट्स के बहाने उनकी मुलाकातें बढ़ती गईं। कभी कैंटीन में साथ कॉफी, कभी यूनिवर्सिटी के गार्डन में बातें।
संजना को महसूस हुआ कि अर्जुन में किसी अमीर घर के लड़के का घमंड नहीं है, बल्कि उसमें सच्चाई और अपनापन है। वहीं अर्जुन को संजना की मासूमियत और सादगी ने खींच लिया।
धीरे-धीरे यह दोस्ती प्यार में बदल गई। एक शाम कॉलेज के आर्ट फेस्टिवल के दौरान, जब चारों ओर रोशनी और संगीत था, अर्जुन ने संजना से कहा, “संजना, मैं ये बात अब और छुपा नहीं सकता। मैं तुमसे सच्चा प्यार करता हूं।”
संजना चुप रही, उसकी आंखें झुक गईं, लेकिन हल्की मुस्कान ने अर्जुन को जवाब दे दिया।
उस रात के बाद से दोनों का रिश्ता गहराता गया। इस बीच भारत में सुधीर कपूर को खबर मिल गई थी कि उसका बेटा यूरोप में एक लड़की से प्यार करता है।
यह खबर सुनते ही सुधीर का गुस्सा फूट पड़ा। उसने तुरंत तय किया कि वह यूरोप जाकर बेटे से बात करेगा और देखेगा मामला क्या है।
जब सुधीर कपूर यूरोप पहुंचा और संजना से मुलाकात हुई, तो उसने महसूस किया कि यह कोई साधारण लड़की नहीं है, बल्कि अच्छे परिवार की संस्कारी और शिक्षित लड़की है।
उसने सोचा अगर बेटे को सच में यही लड़की पसंद है, तो वह उसके परिवार से बात करके रिश्ता तय कर देगा।
सुधीर कपूर और अर्जुन दोनों भारत लौटे। इसके बाद सुधीर कपूर ने तय किया कि वह लखनऊ जाकर संजना के दादा से मिलकर बात करेगा।
लखनऊ की हवेली बहुत बड़ी और परंपराओं से भरी थी।
जब सुधीर कपूर वहां पहुंचे, तो घर के लोग उनकी अगवानी करने निकले।
संजना के दादा गोपाल कृष्ण त्रिवेदी ऊंची कुर्सी पर बैठे थे, आंखों में कठोरता और परंपरा का भार।
सुधीर कपूर ने विनम्र स्वर में कहा, “त्रिवेदी जी, मैं अपने बेटे अर्जुन के लिए आपकी पोती संजना का हाथ मांगने आया हूं। मेरे बेटे और आपकी पोती एक-दूसरे से पढ़ाई के दौरान मिले और अब दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं।”
यह सुनते ही गोपाल कृष्ण त्रिवेदी का चेहरा तमतमा गया, “कपूर साहब, हमारी पोती कोई बाजार में खड़ी चीज नहीं है कि कोई भी आकर मांग ले। उसके जीवन का फैसला हम करेंगे। हमारे खानदान में शादी हमारी मर्जी से होती है, ना कि बच्चों की पसंद से।”
सुधीर कपूर ने समझाने की कोशिश की, “मैं आपके संस्कारों और परंपराओं की कद्र करता हूं, लेकिन आजकल के बच्चे पढ़ते-लिखते हैं, अपनी जिंदगी के बारे में सोचते हैं। अर्जुन और संजना का रिश्ता पवित्र और सच्चा है।”
लेकिन गोपाल कृष्ण त्रिवेदी और भड़क गए, “बस, यह रिश्ता नामुमकिन है। आपकी दौलत और आपके बेटे की जिद हमारी परंपरा को नहीं तोड़ सकती। आप अभी इसी वक्त हमारे घर से चले जाइए।”
अर्जुन और सुधीर कपूर दोनों निराश होकर लौट आए। अर्जुन के दिल पर यह ठेस लगी कि उसके सच्चे प्यार को सिर्फ अहंकार और परंपरा के कारण ठुकरा दिया गया।
उस रात अर्जुन और संजना ने फोन पर देर तक बात की। संजना रो रही थी, “दादाजी कभी मानेंगे नहीं। शायद हमें अपने प्यार की कीमत हमेशा ताने और दूरी से चुकानी पड़े।”
अर्जुन ने दृढ़ स्वर में कहा, “नहीं संजना, हमें लड़ाई करनी होगी, लेकिन हथियार से नहीं, प्यार से। मैं तुम्हारे घर में रहकर सबको यह साबित करूंगा कि मैं इस परिवार का हिस्सा बनने के लायक हूं।”
संजना चौंक गई, “क्या तुम हमारे घर आओगे?”
अर्जुन ने आत्मविश्वास से कहा, “हां, नौकर बनकर। मैं अपने नाम और पहचान को पीछे छोड़ दूंगा और साबित करूंगा कि सच्चा प्यार और सेवा हर अहंकार को तोड़ सकती है।”
अगले सप्ताह अर्जुन ने अपना नया रूप तैयार कर लिया।
महंगे सूट-टाई और चमचमाती गाड़ी छोड़ दी।
साधारण कपड़े पहने, पुराना झोला उठाया और संजना के घर की ओर चल पड़ा।
संजना ने पहले ही अपनी सहेली के जरिए घर में काम करने वाले एक नौकर की जगह खाली होने की खबर अर्जुन तक पहुंचा दी थी।
संजना का दिल तेजी से धड़क रहा था, कहीं दादाजी को अर्जुन की असली पहचान पता चल गई तो तूफान खड़ा हो जाएगा।
लेकिन अर्जुन ने भरोसा दिलाया, “डर मत, मैं अब राजकुमार अर्जुन नहीं, बस एक आम इंसान राजू हूं। तुम्हारे दादाजी को मैं अपनी मेहनत और ईमानदारी से मनाऊंगा।”
लखनऊ की उस बड़ी हवेली के दरवाजे पर जब अर्जुन पहुंचा तो पुराने नौकर हरिदास काका ने दरवाजा खोला।
झुकी कमर, सफेद बाल, अनुभव भरी आंखें – अर्जुन को एहसास हो गया कि यहां बिना चतुराई के टिकना आसान नहीं होगा।
“कौन हो तुम?” हरिदास ने गहरी आवाज में पूछा।
अर्जुन ने सिर झुकाकर जवाब दिया, “नाम राजू है, काम की तलाश में हूं। सुना है यहां एक नौकर की जरूरत है।”
हरिदास ने ऊपर से नीचे तक देखा और अंदर बुला लिया।
कुछ देर में अर्जुन को गोपाल कृष्ण त्रिवेदी के सामने पेश किया गया।
“काम चाहिए?”
“जी हां मालिक, मैं मेहनत से कोई भी काम कर लूंगा – खाना परोसना हो या बगीचे की सफाई, सब कर सकता हूं।”
गोपाल कृष्ण ने बिना ज्यादा सोचे कहा, “ठीक है, रहोगे तो यहां के नियमों से। गलती बर्दाश्त नहीं होगी।”
अर्जुन ने सिर झुकाकर हामी भर दी।
उस दिन से हवेली में उसका नया जीवन शुरू हो गया।
पहले दिन ही उसे कठिनाई का अंदाजा हो गया – सुबह तड़के उठना, आंगन में झाड़ू लगाना, बर्तन मांजना, मेहमानों की सेवा करना।
यह सब उसके लिए नया अनुभव था।
लेकिन अर्जुन ने कभी शिकायत नहीं की।
मुस्कुराते हुए हर काम करता और उसकी यही आदत धीरे-धीरे घरवालों के दिल को छूने लगी।
संजना के चचेरे भाई आलोक को तो जैसे नया नौकर मिल गया हो – रोज काम निकलवाकर मजा लेता।
“अरे राजू, मेरी साइकिल साफ कर दो।”
अर्जुन हंसते हुए सारे काम फटाफट कर देता।
धीरे-धीरे अर्जुन ने घर के हर सदस्य से रिश्ता बनाना शुरू कर दिया।
संजना की दादी कुसुम देवी जो अक्सर बीमार रहती थीं, उनकी दवाइयों का समय वही याद रखता।
जब भी तबीयत बिगड़ती, अर्जुन तुरंत पानी और दवा लेकर उनके पास खड़ा होता।
कुसुम देवी कहती, “यह लड़का तो भगवान भेजा है।”
संजना सब देखती रहती, उसका दिल भर आता कि अर्जुन अपनी मोहब्बत साबित करने के लिए कितनी बड़ी कुर्बानी दे रहा है।
लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल थी उसके दादाजी – गोपाल कृष्ण त्रिवेदी।
उनकी कठोरता इतनी थी कि उनके सामने कोई सांस भी संभल कर लेता।
फिर भी वे राजू के काम से थोड़े बहुत खुश थे, हालांकि अभी भी शक करते थे – लगता था यह लड़का साधारण नौकर नहीं है, इसमें कुछ तो खास है।
एक रात अचानक घर से चांदी के बर्तन गायब हो गए।
सबका शक सबसे पहले राजू पर गया।
गोपाल कृष्ण ने गुस्से में कहा, “हमें तो पहले ही लग रहा था, यह लड़का सीधा नहीं है।”
अर्जुन ने सिर झुकाकर कहा, “मालिक, मैंने कुछ नहीं किया। आप चाहे तो मेरी तलाशी ले लीजिए।”
तलाशी में कुछ नहीं मिला, लेकिन शक बना रहा।
संजना यह सब देख रही थी, उसका दिल रो रहा था।
अगर सच सामने नहीं आया तो अर्जुन हमेशा चोर कहलाएगा।
लेकिन अगले ही दिन असली चोर पकड़ा गया – आलोक का दोस्त, जो घर में आता-जाता रहता था।
पूरे परिवार की नजरों में अर्जुन की सच्चाई और ईमानदारी और मजबूत हो गई।
उस दिन पहली बार गोपाल कृष्ण ने मन ही मन स्वीकार किया कि यह राजू अलग है, भले ही उन्होंने सामने कुछ ना कहा हो।
चेहरे पर कठोरता के पीछे हल्की नरमी झलकने लगी थी।
अर्जुन ने साबित करना शुरू कर दिया था कि सच्चा प्यार शब्दों से नहीं, सेवा और त्याग से जीता जाता है।
दिन गुजरते गए, राजू यानी अर्जुन धीरे-धीरे त्रिवेदी परिवार का अहम हिस्सा बनने लगा।
जिस घर में पहले सिर्फ उसकी मेहनत देखी जाती थी, वहां अब उसकी समझदारी और लगन की बातें होने लगी थीं।
हवेली में हर दिन कोई ना कोई समस्या खड़ी होती, लेकिन राजू अपने तरीके से उसे हल कर देता।
जैसे एक बार संजना का छोटा भाई अमित पढ़ाई में कमजोर साबित हुआ, बोर्ड परीक्षा में फेल होने का डर था।
घरवाले गुस्सा कर रहे थे, अमित रोता हुआ आंगन में बैठा था।
राजू उसके पास बैठ गया, “अरे छोटे साहब, अगर जिंदगी में फेल होने का डर इतना ही बड़ा होता, तो दुनिया में कोई भी इंसान आज सफल ना होता। चलो हम दोनों साथ पढ़ेंगे, देखते हैं डर कैसे भागता है।”
राजू ने दिन-रात अमित को पढ़ाया, कठिन सवाल सिखाए, आत्मविश्वास इतना बढ़ाया कि नतीजों में अमित अच्छे नंबर लाकर पास हो गया।
उस दिन पहली बार अमित ने सबके सामने कहा, “अगर राजू भैया ना होते, तो मैं कभी पास नहीं हो पाता।”
यह सुनकर घरवालों की आंखों में राजू के लिए नई इज्जत उभर आई।
इसी बीच हवेली में शादी की तैयारियां भी चल रही थीं। संजना की मौसी की बेटी पूजा की शादी तय हुई थी।
बारात आने वाली थी, लेकिन अचानक बारातियों ने फोन कर कहा कि अगर दहेज की रकम और ना बढ़ाई गई तो वे बारात लेकर नहीं आएंगे।
पूरे घर में हड़कंप मच गया।
गोपाल कृष्ण का चेहरा तमतमा उठा, “यह लोग हमारी इज्जत से खिलवाड़ कर रहे हैं।”
राजू चुपचाप सब सुनता रहा, फिर धीरे से बोला, “मालिक, अगर आप कहें तो मैं जाकर बारातियों से बात करूं, शायद वे मान जाएं।”
पहले तो सब चौंक गए।
दादी कुसुम देवी बोलीं, “कोशिश करने में हर्ज ही क्या है?”
मजबूरी में गोपाल कृष्ण ने भी इशारा कर दिया।
राजू बारातियों के पास पहुंचा, उनसे सीधी बात की, “शादी तो दो दिलों का मिलन है, इसे सौदेबाजी मत बनाइए। अगर आप वाकई इस रिश्ते को निभाना चाहते हैं तो बिना किसी शर्त के आइए वरना पीछे हट जाइए।”
उसकी सच्चाई और निडरता ने वहां मौजूद बुजुर्गों को भी प्रभावित किया।
नतीजा – बारात बिना शर्त आ गई, शादी शांति से संपन्न हुई।
पूजा के पिता ने भावुक होकर कहा, “राजू, तुमने आज हमारी इज्जत बचा ली।”
धीरे-धीरे घर का हर सदस्य राजू का कायल होता जा रहा था।
लेकिन संजना के दादाजी गोपाल कृष्ण अभी भी अपने अहंकार में डूबे हुए थे।
वे राजू की अच्छाई को मानने से इंकार करते, लेकिन अंदर से जानते थे कि यह लड़का साधारण नौकर नहीं है।
एक दिन घर में चोरी का बड़ा मामला हुआ – सोने के आभूषण और नकदी गायब हो गए।
हर किसी की नजर फिर से राजू पर पड़ी।
गोपाल कृष्ण गरज उठे, “मैं जानता था यह लड़का भरोसे के लायक नहीं है।”
राजू ने शांति से कहा, “मालिक, मैंने कुछ नहीं किया, लेकिन अगर आप चाहे तो मुझे पुलिस को सौंप दीजिए।”
संजना का दिल टूट रहा था, वह जानती थी अर्जुन निर्दोष है, लेकिन चुप रहना ही बेहतर समझा, क्योंकि उसकी पहचान का राज खुल जाता।
उसी शाम घर के पुराने चौकीदार ने असली चोर पकड़ लिया – एक ठेकेदार का आदमी, जिसने लालच में आकर गहने चुराए थे।
सबके सामने सच आने पर घरवालों ने राजू से माफी मांगी।
कुसुम देवी ने उसका हाथ पकड़ कर कहा, “बेटा, अगर तू इस घर का असली सदस्य नहीं है, तो फिर कौन है?”
अब स्थिति यह हो गई थी कि घर का हर कोई राजू को अपने जैसा मानने लगा था।
बच्चे उसे राजू भैया कहते, बुजुर्ग आशीर्वाद देते, औरतें घर का सहारा मानती।
सिर्फ गोपाल कृष्ण ही अपनी जिद में अड़े थे।
एक शाम गोपाल कृष्ण आंगन में अकेले बैठे थे, दादी कुसुम देवी बोलीं, “देखो जी, यह लड़का नौकर से कहीं बढ़कर साबित हुआ है। तुम कब तक अपनी जिद पर अड़े रहोगे? हमें यह मानना पड़ेगा कि राजू जैसा ईमानदार और नेक दिल इंसान इस घर के लिए वरदान है।”
गोपाल कृष्ण ने कठोर स्वर में कहा, “मुझे धोखा पसंद नहीं। यह लड़का कितना भी अच्छा हो, लेकिन मेरे घर का सदस्य कभी नहीं बन सकता।”
उधर अर्जुन यानी राजू जानता था कि उसकी असली परीक्षा अभी बाकी है।
उसने संजना से कहा, “अगर मुझे तुम्हें पाने के लिए हर अपमान और कठिनाई सहनी पड़े, तो भी मैं पीछे नहीं हटूंगा। तुम्हारे दादाजी को मैं अपने कर्मों से ही जीतूंगा।”
लेकिन किस्मत ने फिर करवट बदली।
अगले ही दिन हवेली में कुछ बाहरी लोग आए, जो गोपाल कृष्ण से पुराना हिसाब करने आए थे।
वे दबंग और खतरनाक थे, घर के दरवाजे पर हंगामा कर दिया।
गोपाल कृष्ण गुस्से से खड़े हुए, लेकिन उन लोगों ने उन्हें धक्का दे दिया।
तभी राजू आगे बढ़ा, उसने दबंगों का डटकर सामना किया।
पहले शांति से समझाने की कोशिश की, लेकिन जब उन्होंने घरवालों पर हाथ उठाया, तो राजू ने एक-एक करके सबको काबू कर लिया।
पूरा परिवार हैरान रह गया कि यह साधारण सा नौकर इतना बहादुर कैसे हो सकता है।
उस दिन पहली बार गोपाल कृष्ण की आंखों में राजू के लिए सम्मान झलक उठा।
हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन चेहरे पर नरमी की हल्की लकीर साफ दिख रही थी।
राजू ने साबित कर दिया था कि वह ना सिर्फ मेहनती और ईमानदार है, बल्कि परिवार की इज्जत और सुरक्षा के लिए जान तक दांव पर लगा सकता है।
हवेली में अब राजू की चर्चा हर तरफ थी – कोई उसे घर का रक्षक कहता, कोई दादी की दवा वाला देवदूत, कोई अमित का गुरु।
लेकिन सबसे ज्यादा असर यह हुआ कि घर में खुशी और अपनापन लौट आया था।
संजना चुपचाप यह सब देखती और मन ही मन गर्व महसूस करती कि उसका अर्जुन इतना बड़ा कदम उठाकर सबके दिल जीत रहा है।
लेकिन गोपाल कृष्ण त्रिवेदी का दिल अभी भी पूरी तरह नहीं पिघला था।
वे अक्सर राजू को देखते और सोचते – इस लड़के में कुछ तो खास है, यह साधारण नौकर नहीं हो सकता।
मन में शक और सम्मान दोनों ही चल रहे थे।
एक दिन हवेली में बड़ी पूजा का आयोजन रखा गया।
दूर-दूर से रिश्तेदार और समाज के लोग बुलाए गए।
राजू सुबह से सारे इंतजाम में लगा था – फूलों की सजावट, प्रसाद का प्रबंध, मेहमानों का स्वागत।
हर किसी ने देखा कि वह अकेला कितनी जिम्मेदारी संभाल रहा है।
पूजा के बीच अचानक हंगामा हो गया – वही दबंग लोग फिर आ धमके।
इस बार वे और भी ज्यादा लोगों के साथ आए थे।
सब रिश्तेदार घबराकर पीछे हट गए।
गोपाल कृष्ण बोले, “हमारे घर की पवित्रता भंग करोगे? निकल जाओ यहां से।”
दबंगों ने कहा, “आज तुम्हारी इज्जत सबके सामने मिट्टी में मिल जाएगी।”
इतना सुनना था कि राजू आगे बढ़ा।
उसने सबके सामने दबंगों से मुकाबला किया।
मेहमान दंग रह गए कि यह साधारण नौकर अकेला इतने लोगों से भिड़ गया है।
उसकी बहादुरी और चतुराई से सब दबंग भाग खड़े हुए।
जब सब शांत हुआ, घरवालों ने तालियां बजाई।
संजना की आंखें गर्व से चमक उठीं।
लेकिन इस बार कुछ और हुआ – दबंगों से भिड़ते हुए राजू का माथा फट गया, खून बहने लगा।
संजना भागकर उसके पास आई, भावुक होकर बोली, “अर्जुन, तुम ठीक तो हो?”
यह सुनते ही पूरे आंगन में सन्नाटा छा गया, सबकी नजरें राजू पर टिक गईं – “अर्जुन!”
यह नाम सुनकर गोपाल कृष्ण का माथा सिकुड़ गया, अब और छुपाना संभव नहीं था।
संजना की आंखों में आंसू थे, उसने कहा, “हां दादाजी, यह वही अर्जुन कपूर है जिसे आपने ठुकरा दिया था, जिसने इस घर की सेवा करने के लिए अपनी पहचान छोड़ दी और नौकर बनकर रहने का फैसला किया, क्योंकि वह मुझसे सच्चा प्यार करता है और आपको साबित करना चाहता था कि वह इस परिवार के लायक है।”
पूरा घर स्तब्ध रह गया।
दादी कुसुम देवी ने भावुक होकर कहा, “मैं तो पहले ही समझ गई थी, यह लड़का भगवान का भेजा हुआ है।”
अर्जुन ने हाथ जोड़कर कहा, “दादाजी, मैंने कभी आपको धोखा देने की कोशिश नहीं की। मैंने बस यह साबित करना चाहा कि मैं आपकी पोती का हकदार हूं। मैं दौलत और शान दिखाकर आपका दिल नहीं जीतना चाहता था, इसलिए राजू बनकर आपकी सेवा की। अगर आप आज भी मुझे अस्वीकार कर देंगे, तो मैं कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन यकीन मानिए, मेरा प्यार सच्चा है।”
यह सुनकर गोपाल कृष्ण चुप हो गए।
आंखों में पहली बार कठोरता की जगह नमी आ गई।
वे धीरे-धीरे उठे, सबके सामने अर्जुन के पास आए, आवाज भर्राई हुई थी, “बेटा, मैं गलत था। मैंने सोचा था अमीर घर का लड़का हमारी परंपरा और इज्जत को नहीं समझ पाएगा। लेकिन तुमने साबित कर दिया कि इंसान की पहचान दौलत से नहीं, उसके कर्मों और त्याग से होती है। आज से तुम सिर्फ मेरी पोती के पति ही नहीं, बल्कि इस घर के बेटे हो।”
इतना कहते ही उन्होंने अर्जुन को गले लगा लिया।
पूरा घर तालियों और खुशी की आवाज से गूंज उठा।
संजना की आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन इस बार वे आंसू खुशी के थे।
सुधीर कपूर भी उसी वक्त वहां पहुंचे, जिन्हें खबर मिल चुकी थी।
उन्होंने गोपाल कृष्ण से हाथ मिलाकर कहा, “धन्यवाद त्रिवेदी जी, आपने मेरे बेटे को अपने दिल में जगह दी।”
पूरे परिवार ने मिलकर अर्जुन और संजना की शादी धूमधाम से की।
हवेली में संगीत, नृत्य, हंसी-खुशी का माहौल था।
दादी कुसुम देवी ने नवविवाहित जोड़े को आशीर्वाद देते हुए कहा, “हमेशा याद रखना बेटा-बेटी, असली हीरो वही होता है जो अपने परिवार और रिश्तों की खातिर त्याग करे।”
अर्जुन और संजना ने एक-दूसरे का हाथ थामा और मन ही मन वादा किया कि चाहे कैसी भी कठिनाई आए, वे हमेशा साथ रहेंगे।
सीख:
सच्चा हीरो वही है जो प्यार, सेवा और ईमानदारी से दिल जीत ले, ना कि दौलत और दिखावे से।
अगर आप अर्जुन की जगह होते, तो क्या अपने प्यार को पाने के लिए इतने बड़े और इज्जतदार घर में नौकर बनकर रहते और सबका दिल जीतने की कोशिश करते, या हार मानकर दूर चले जाते?
आपकी राय हमारे लिए बहुत कीमती है।
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मिलते हैं अगली कहानी में।
तब तक इंसानियत निभाइए, मोहब्बत फैलाइए और जिंदगी को मुस्कुरा कर जीते रहिए।
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