रामलाल और रवि की कहानी
सुबह की हल्की-ठंडी हवा में रामलाल की पुरानी साइकिल-रिक्शा धीरे-धीरे शहर की गलियों से गुजर रही थी। चेहरे पर थकान की लकीरें साफ़ दिखती थीं, मगर आंखों में अब भी एक अडिग चमक थी। सूरज और धूल में तपकर उसकी त्वचा सख्त हो चुकी थी, कमीज़ कई जगह से उधड़ी थी, लेकिन धोकर पहनने की आदत उसने कभी नहीं छोड़ी।
हर सुबह वह जल्दी उठता, चाय की पतली प्याली पीता और सवारियाँ ढोने निकल जाता। कमाई ज़्यादा नहीं होती थी, फिर भी हर दिन अपने खर्च से पहले वह एक पुराना लोहे का डिब्बा खोलकर उसमें कुछ रुपये डाल देता—अपने बेटे रवि की पढ़ाई के लिए।
गांव वाले अक्सर ताना मारते—“रामलाल, तू बेटे को पढ़ाकर क्या करेगा? कल को तुझे ही भूल जाएगा।”
रामलाल बस मुस्कुरा देता और कहता—“पढ़ लिख जाएगा तो मेरी गरीबी का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा उसे।”
साल बीतते गए। तपती गर्मियों में, ठंडी सर्दियों में, बरसात की कीचड़ में भी रामलाल का रिक्शा नहीं रुका। रवि ने पढ़ाई में मेहनत की और आखिरकार डॉक्टर बनने का सपना पूरा हुआ। जिस दिन रवि को एमबीबीएस की डिग्री मिली, रामलाल की आंखों से खुशी के आंसू थमते ही नहीं थे।
कुछ साल बाद रवि शहर के एक बड़े अस्पताल में डॉक्टर बन गया। रामलाल अब भी रिक्शा चलाता था, लेकिन मन में गर्व भरा रहता था कि उसका बेटा अब लोगों की जान बचाता है।
फिर एक दिन रामलाल की तबीयत बिगड़ने लगी। खांसी बढ़ गई, सांस फूलने लगी। वैद्य ने कहा—“शहर जाओ, अपने बेटे डॉक्टर को दिखाओ।”
रामलाल ने ठान लिया—आज अस्पताल जाकर बेटे से कहूंगा कि अब वह भी मेरा ख्याल रखे।
वह धोती और पुरानी कमीज़ पहन, कंधे पर गमछा डालकर अस्पताल पहुँचा। सफेद दीवारें, चमचमाती फर्श और व्यस्त स्टाफ के बीच वह खो-सा गया। तभी उसने रवि को देखा—सफेद कोट में, गले में स्टेथोस्कोप, नर्सों और डॉक्टरों से घिरा हुआ। रामलाल का दिल गर्व से भर गया।
वह धीरे-धीरे पास गया और बोला—“रवि बेटा, मैं…”
लेकिन रवि ने ठंडी नजर से देखा और कहा—“मैं इन्हें नहीं जानता।”
सन्नाटा छा गया। रामलाल की मुस्कान थम गई, आंखें भर आईं। मगर उसने कुछ नहीं कहा। चुपचाप गमछा कंधे पर ठीक किया और अस्पताल के गेट की ओर चल पड़ा। कदम भारी थे, मगर पीठ अब भी सीधी थी।
गेट पर बाहर निकलते समय चाय वाले ने पहचान लिया—“अरे रामलाल काका, डॉक्टर साहब से मिले?”
रामलाल ने बस हल्की मुस्कान दी—“हाँ, मिल आया।” और आगे बढ़ गया।
उसी समय अस्पताल में रवि के गुरु और वरिष्ठ डॉक्टर शेखर मेहता पहुँचे। स्टाफ ने उन्हें सारी बात बताई। उनका चेहरा सख्त हो गया—“क्या वो रामलाल थे?”
नर्स ने सिर हिलाया।
मेहता ने तुरंत रवि को बुलाया और डांटते हुए कहा—“जानते हो तुमने किसे ठुकराया है? वही इंसान जिसने दिन-रात रिक्शा चलाकर, भूखे रहकर तुम्हारी फीस भरी। मैंने अपनी आंखों से देखा है, कैसे वह बरसात में भीगते हुए तुम्हारे लिए पैसे जुटाता था।”
पूरा स्टाफ चुप था। रवि की आंखें झुक गईं, चेहरा सफेद पड़ गया।
मेहता बोले—“डॉक्टर होने का मतलब सिर्फ़ इलाज करना नहीं है। असली डॉक्टर वही है, जो इंसानियत को सबसे ऊपर रखे। और आज तुमने अपने ही पिता का दिल तोड़ दिया।”
रवि का दिल टूट गया। वह बाहर भागा और गेट पर दूर जाते रामलाल को देखा। दौड़ते हुए उनके पास पहुंचा और हांफते हुए बोला—“बाबा, रुकिए!”
रामलाल मुड़े। बेटे की आंखों में आंसू थे। रवि घुटनों पर बैठ गया और रो पड़ा—“मुझे माफ़ कर दो बाबा, मैंने पहचानकर भी आपको ठुकरा दिया।”
आसपास भीड़ जमा हो गई। कई आंखें भीग गईं। रामलाल ने कांपते हाथों से बेटे के सिर पर हाथ रखा और कहा—“डॉक्टर बनने के लिए बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है बेटा, लेकिन इंसान बनने के लिए सिर्फ़ दिल बड़ा होना चाहिए।”
अगले दिन उस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। लोग लिख रहे थे—“रिक्शा चलाकर बेटे को डॉक्टर बनाया और बेटे ने पिता को ठुकरा दिया, लेकिन फिर दिल जीत लिया माफी मांगकर।”
अस्पताल का माहौल बदल गया। मरीज और उनके परिजन रामलाल को पहचानने लगे। एक अजनबी ने उनके पैर छूते हुए कहा—“आप जैसे पिता भगवान का रूप होते हैं।”
कुछ दिनों बाद अस्पताल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी। स्टेज पर रवि और रामलाल साथ खड़े थे। डायरेक्टर ने कहा—“डॉक्टर बनने के लिए डिग्री चाहिए, लेकिन इंसान बनने के लिए रिश्तों की क़द्र ज़रूरी है।”
रवि ने माइक थामा और कांपती आवाज़ में बोला—“कल मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती की। आज मैं अपने बाबा से पूरे दिल से माफ़ी मांगता हूँ।”
रामलाल ने बेटे को गले से लगा लिया। भीड़ तालियों से गूंज उठी।
उस दिन के बाद रवि ने ठान लिया कि वह सिर्फ़ डॉक्टर नहीं, बल्कि इंसान भी बनेगा। अगले ही हफ़्ते उसने गरीब बच्चों और ज़रूरतमंदों के लिए एक मुफ्त मेडिकल कैंप शुरू किया। उसका नाम रखा—“रामलाल हेल्थ मिशन”।
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