एक सिख व्यवसायी व्यापार के सिलसिले में एक गांव गया और वहां उसने गरीब और भूखे लोगों को देखा।
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कहानी: सरदार जोगिंदर सिंह की सेवा की गाथा
क्या सेवा का कोई धर्म होता है? क्या इंसानियत की कोई कीमत होती है? और क्या एक दिल जो सोने के महलों में रहता हो, उन आंखों की पीड़ा को महसूस कर सकता है जिनमें भूख के सिवा कुछ नहीं बचता? यह कहानी है सरदार जोगिंदर सिंह की, एक ऐसे सिख व्यापारी की जिसकी दुनिया मुनाफे और कारोबार के आंकड़ों में घूमती थी। पर एक दिन जब उसके कदम बुंदेलखंड के एक सूखे, वीरान और भुला दिए गए गांव में पड़े, तो उसने कुछ ऐसा देखा जिसने उसके अंदर के कारोबारी को हमेशा के लिए सुला दिया और एक सच्चे सेवक को जगा दिया।
जोगिंदर सिंह ने वहां के भूखे, लाचार लोगों के लिए सिर्फ अपनी जेब नहीं खोली, बल्कि अपना दिल, अपनी रूह और अपनी जिंदगी का मकसद ही उनके नाम कर दिया। उसने वहां रोजाना एक ऐसा लंगर शुरू करवाया जिसने न सिर्फ उस गांव के लोगों का पेट भरा, बल्कि उनकी सूनी आंखों में उम्मीद और स्वाभिमान की वह रोशनी भी भर दी जो सालों पहले बुझ चुकी थी। यह कहानी है उस स्वार्थ सेवा की जो किसी चमत्कार से कम नहीं। यह कहानी है उस एक इंसान के जुनून की जिसने साबित कर दिया कि दुनिया का सबसे बड़ा सौदा घाटे का नहीं बल्कि किसी के आंसू पोंछकर उसकी दुआएं कमाने का होता है।
अमृतसर, स्वर्ण मंदिर की पवित्रता और गुरुवाणी की मिठास में रचा बसा शहर। इसी शहर की सबसे व्यस्त और अमीर कॉलोनियों में से एक में सरदार जोगिंदर सिंह की आलीशान कोठी थी। 60 साल के जोगिंदर सिंह पंजाब के सबसे बड़े टेक्सटाइल साम्राज्यों में से एक, सिंह एक्सपोर्ट्स के मालिक थे। उनकी जिंदगी किसी सुनहरे सपने जैसी थी। महंगी गाड़ियां, दुनिया भर में फैला कारोबार और एक ऐसा रुतबा जिसके सामने बड़े-बड़े लोग सिर झुकाते थे। वह एक तेज दिमाग वाले और कठोर अनुशासित कारोबारी थे। उनके लिए वक्त का मतलब पैसा था और पैसे का मतलब तरक्की।
पर इस कठोर बाहरी चोले के नीचे एक और जोगिंदर सिंह बसता था, एक ऐसा इंसान जिसके दिल में गुरु नानक देव जी की सीख “कीर्त करो, नाम जपो और वंड छको” यानी मेहनत करो, ईश्वर का नाम लो और बांटकर खाओ, बसी हुई थी। वह हर सुबह गुरुद्वारे जाते, सेवा करते और अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा चुपचाप दान कर देते थे। उन्होंने गरीबी को बहुत करीब से देखा था। बंटवारे के बाद उनका परिवार खाली हाथ पाकिस्तान से आया था। उन्होंने अपने पिता और दादा को एक छोटी सी दुकान से इस विशाल साम्राज्य को खड़ा करते हुए देखा था। वह जानते थे कि भूख क्या होती है और लाचारी किसे कहते हैं।
उनकी दुनिया में उनकी पत्नी सतवंत कौर और उनका इकलौता बेटा सिमरनजीत था, जो लंदन में बिजनेस की पढ़ाई कर रहा था। जोगिंदर सिंह चाहते थे कि उनका बेटा भी कारोबार संभाले, पर सिमरनजीत की दुनिया अलग थी। उसे लगता था कि उसके पिता सिर्फ पैसे के पीछे भागते हैं। बाप-बेटे के बीच एक अनकही सी दूरी थी। इसी बीच जोगिंदर सिंह ने अपने कारोबार को और फैलाने की सोची। वह पारंपरिक भारतीय हैंडलूम को विदेशों में पहुंचाना चाहते थे। इसी सिलसिले में उन्हें पता चला कि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर बुंदेलखंड के एक इलाके में एक ऐसा गांव है जहां सदियों से एक खास किस्म की बुनाई का काम होता है, जो अब लगभग खत्म होने की कगार पर है।
जोगिंदर सिंह को लगा कि यह एक बड़ा कारोबारी मौका हो सकता है। वह उस गुमनाम कला को एक नया जीवन दे सकते थे और उससे करोड़ों का मुनाफा भी कमा सकते थे। इसी कारोबारी सोच के साथ एक तपती जून की दोपहर, सरदार जोगिंदर सिंह अपनी महंगी लैंड रोवर गाड़ी से अपने असिस्टेंट के साथ उस गांव की ओर रवाना हुए। गांव का नाम था पत्थरगढ़। जैसा नाम, वैसा ही गांव। चारों तरफ पथरीली बंजर जमीन, सूखे पेड़, फटे हुए खेत और धूल भरी हवा। ऐसा लगता था जैसे इस गांव पर किसी ने श्राप दे दिया हो।
गांव की गलियों में घुसते ही जोगिंदर सिंह को एक अजीब सी बेचैनी होने लगी। उनकी गाड़ी के शीशों के पार जो दुनिया दिख रही थी, वह उनके अमृतसर के आलीशान घर से मीलों नहीं बल्कि सदियों दूर थी। कच्ची झोपड़ियां, जिनकी दीवारें मिट्टी की थीं और छतें फूस की। गलियों में बहता गंदा पानी और लोग जैसे चलते फिरते कंकाल हो। बच्चों के पेट कुपोषण से फूले हुए थे। उनकी पसलियां गिनी जा सकती थीं और उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में एक अजीब सी वीरानी थी।
औरतें फटे हुए मैले कपड़ों में सिर पर घूंघट डाले किसी परछाई की तरह गुजर जाती थीं और मर्द या तो पेड़ों की छांव में उदास और हारे हुए बैठे थे या फिर गांव में थे ही नहीं। वे सब काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर पलायन कर चुके थे। जोगिंदर सिंह की गाड़ी सरपंच के घर के सामने जाकर रुकी। सरपंच, एक बूढ़ा और कमजोर सा आदमी, उन्हें देखकर ऐसे घबरा गया जैसे उसने कोई भूत देख लिया हो।
जोगिंदर सिंह ने उसे अपने आने का मकसद बताया। वह गांव के बुनकरों से मिलना चाहते थे और यहां एक छोटी सी यूनिट लगाने की संभावना तलाश रहे थे। सरपंच उन्हें गांव में घुमाने ले गया। हर कदम पर जोगिंदर सिंह का दिल गरीबी और लाचारी के इस नंगे नाच को देखकर बैठता जा रहा था। उन्होंने अपनी जिंदगी में गरीबी देखी थी, पर ऐसी बेबसी, ऐसी भूख उन्होंने कभी नहीं देखी थी।
फिर उन्होंने वह दृश्य देखा जिसने उनके अंदर कुछ हमेशा के लिए तोड़ दिया। गांव के आखिरी छोर पर एक सूखे हुए कुएं के पास एक 7-8 साल की बच्ची, जिसकी हड्डियां तक दिख रही थीं, एक आवारा कुत्ते के साथ एक सूखी, काली पड़ चुकी रोटी के टुकड़े के लिए लड़ रही थी। कुत्ता गुर्रा रहा था और वह बच्ची अपनी पूरी ताकत से उस रोटी को अपनी ओर खींच रही थी। उसकी आंखों में आंसू नहीं बल्कि एक जंगली सी भूख थी।
जोगिंदर सिंह वहीं जम गए। उनकी महंगी घड़ी की टिकटिक जैसे रुक गई। उनके कानों में उनके करोड़ों के कारोबार का शोर जैसे थम गया। उन्हें सिर्फ उस बच्ची की बेबस सिसकियां और कुत्ते का गुर्राना सुनाई दे रहा था। उन्होंने अपने असिस्टेंट को इशारा किया। असिस्टेंट दौड़कर गाड़ी से बिस्किट के कुछ पैकेट ले आया। उसने एक पैकेट उस बच्ची की ओर बढ़ाया। बच्ची ने रोटी छोड़ दी और बिस्किट के पैकेट पर ऐसे झपटी जैसे कोई भूखा शेर अपने शिकार पर झपटता है।
जोगिंदर सिंह की आंखों से कब आंसू बहने लगे, उन्हें पता ही नहीं चला। वह सरपंच की ओर मुड़े। उनकी आवाज कांप रही थी, “यह क्या है सरपंच जी?” सरपंच ने गहरी ठंडी सांस ली। “किस्मत है साहब। पिछले 5 साल से पानी की एक बूंद नहीं गिरी। खेत पत्थर हो गए हैं। जो कुछ था वह भी खत्म हो गया। सरकार कभी-कभी कुछ अनाज भेज देती है, पर वह ऊंट के मुंह में जीरे जैसा होता है। यहां जिंदगी नहीं, बस मौत का इंतजार कटता है साहब।”
जोगिंदर सिंह ने उस रात सरपंच के घर में ही रुकने का फैसला किया। उन्हें एक टूटी-फूटी चारपाई पर लेटाया गया, पर उन्हें नींद नहीं आई। उनकी आंखों के सामने बार-बार उस बच्ची का चेहरा घूम रहा था। उन्हें स्वर्ण मंदिर का वह विशाल लंगर हॉल याद आ रहा था जहां हर रोज लाखों लोग बिना किसी भेदभाव के पेट भर खाना खाते हैं। और एक यह गांव था जहां एक बच्ची एक रोटी के टुकड़े के लिए एक जानवर से लड़ रही थी।
उन्हें अपनी आलीशान कोठी, अपने बेटे की लंदन की जिंदगी सब कुछ बेईमानी लगने लगा। उन्हें लगा जैसे गुरु नानक देव जी खुद उनसे पूछ रहे हों, “जोगिंदर, तूने वंड का क्या मतलब समझा? क्या इसका मतलब सिर्फ अपनी कमाई का दवां हिस्सा दान करना है या इसका मतलब वहां सेवा करना है जहां उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है?” उस एक रात ने सरदार जोगिंदर सिंह को पूरी तरह से बदल दिया था।
अगले सुबह जब वह उठे तो उनकी आंखों में एक नई और दृढ़ चमक थी। उन्होंने अपने असिस्टेंट को बुलाया। “शर्मा जी, वह हमारी हैंडलूम यूनिट वाली फाइल बंद कर दीजिए।” “क्या मतलब सर? पर यह तो करोड़ों का प्रोजेक्ट था,” शर्मा जी हैरान थे। “अब मेरा प्रोजेक्ट बदल गया है शर्मा जी। अब मेरा सबसे बड़ा कारोबार, मेरी सबसे बड़ी डील इसी गांव में होगी।”
उन्होंने सरपंच और गांव के कुछ बड़े बूढ़ों को इकट्ठा किया। “मैं आज से इसी गांव में रोजाना लंगर शुरू करवाना चाहता हूं।” यह सुनकर सब हैरान रह गए। सरपंच ने कहा, “पर साहब, यह एक-दिन की बात नहीं है। इस पूरे गांव को रोज खाना खिलाना कोई आसान काम नहीं है।” “मुझे पता है,” जोगिंदर सिंह की आवाज में एक फौलादी इरादा था। “यह लंगर एक-दिन नहीं बल्कि तब तक चलेगा जब तक इस गांव के हर एक इंसान के घर का चूल्हा खुद जलने नहीं लग जाता और इसका सारा खर्चा मैं उठाऊंगा।”
उस दिन जोगिंदर सिंह ने अपने असिस्टेंट को शहर भेज दिया और फिर जो हुआ, वह पत्थरगढ़ के लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। अगले दो दिनों में गांव में ट्रकों का काफिला आया। उन ट्रकों में बोरियां भर-भर के आटा, चावल, दालें और टनों की मात्रा में ताजी सब्जियां, घी, तेल और मसाले थे। जोगिंदर सिंह ने गांव के कुछ बेरोजगार नवयुवकों को काम पर रखा। गांव के पुराने खंडर हो चुके पंचायत घर की सफाई करवाई गई और उसे एक विशाल रसोई में बदल दिया गया।
शहर से बड़े-बड़े पतीले, कड़छियां और गैस के चूल्हे मंगवाए गए। जोगिंदर सिंह ने अपनी महंगी सूट बूट उतारकर एक साधारण सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया और सिर पर एक केसरी रंग का पटका बांध लिया। वह खुद उन नवयुवकों के साथ मिलकर सब्जियां काटने लगे, आटा गूंथने लगे। गांव वाले यह सब अपनी आंखों से देख रहे थे, पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। कुछ को लगा यह कोई चुनावी स्टंट है, कुछ को लगा यह अमीर आदमी 4 दिन में थक कर चला जाएगा।
फिर तीसरे दिन लंगर का पहला दिन था। पंचायत घर के बाहर लंबी-लंबी दरियां बिछाई गईं। बड़े-बड़े पतीलों ने गरमागरम दाल, सब्जी और चावल की खुशबू पूरे गांव में फैला दी। यह खुशबू उन भूखे पेटों के लिए किसी अमृत से कम नहीं थी। जोगिंदर सिंह ने खुद हाथ जोड़कर गांव वालों को खाने के लिए बुलाया। पहले तो लोग झिझके, पर फिर वही बच्ची काजरी डरते-डरते आगे बढ़ी। जोगिंदर सिंह ने उसे अपनी गोद में बिठाया और अपने हाथों से उसे पहला निवाला खिलाया।
बस उस एक निवाले ने सारे शक, सारी झिझक को तोड़ दिया। पूरा गांव उस दिन उस लंगर में उमड़ पड़ा। बूढ़े, बच्चे, औरतें सब एक ही पंगत में जमीन पर बैठकर खाना खा रहे थे। सालों बाद उस गांव के लोगों ने पेट भरकर गरमागरम और सम्मान के साथ खाना खाया था। लोगों की आंखों में आंसू थे और उनके मुंह से जोगिंदर सिंह के लिए दुआएं निकल रही थीं। वह रात सालों बाद पत्थरगढ़ की पहली रात थी जब कोई भी भूखा नहीं सोया था।
लंगर अब पत्थरगढ़ की दिनचर्या का हिस्सा बन गया। हर रोज सुबह शाम सैकड़ों लोग एक साथ बैठकर खाना खाते। यह सिर्फ पेट भरने की जगह नहीं थी, यह एक उम्मीद का, एक अपनेपन का केंद्र बन गया था। पर यह सब इतना आसान नहीं था। जोगिंदर सिंह को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जब उनके अमृतसर वाले ऑफिस और घर पर पता चला तो जैसे भूचाल आ गया। उनके बिजनेस पार्टनर्स ने कहा कि वह पागल हो गए हैं, कंपनी का पैसा बर्बाद कर रहे हैं।
उनके बेटे सिमरनजीत ने फोन पर चिल्लाते हुए कहा, “डैड, आप यह क्या कर रहे हैं? आप एक बिजनेसमैन हैं, कोई सोशल वर्कर नहीं। इस तरह तो हमारी कंपनी बर्बाद हो जाएगी।” पर जोगिंदर सिंह ने किसी की नहीं सुनी। उन्होंने कहा, “मैंने जिंदगी भर पैसा कमाया है बेटा। अब मैं कुछ दुआएं कमाना चाहता हूं।”
स्थानीय प्रशासन और कुछ भ्रष्ट नेताओं को भी जोगिंदर सिंह का यह काम रास नहीं आ रहा था। उन्हें लगता था कि यह आदमी यहां अपनी नेतागिरी चमकाने आया है। उन्होंने उनके ट्रकों को रोकना शुरू कर दिया। उनके काम में तरह-तरह की बाधाएं डालनी शुरू कर दीं। पर जोगिंदर सिंह एक चट्टान की तरह अड़े रहे।
उन्होंने अपनी पहुंच और अपने पैसे का इस्तेमाल इन बाधाओं को दूर करने में किया। गांव के अंदर भी सब कुछ ठीक नहीं था। कुछ लोगों ने लंगर के राशन की चोरी करने की कोशिश की। पर जोगिंदर सिंह ने उन्हें सजा देने के बजाय प्यार से समझाया। उन्होंने कहा, “यह लंगर तुम्हारा है। अगर तुम इसी को लूटोगे, तो अपने ही भाई-बहनों का पेट काटोगे।” उनकी इस बात का लोगों पर गहरा असर हुआ। धीरे-धीरे गांव के लोग खुद ही इस लंगर को अपना समझने लगे।
औरतें रसोई में हाथ बटाने लगीं। मर्द लकड़ियां काटने और पानी भरने का काम करने लगे। जोगिंदर सिंह जानते थे कि सिर्फ लंगर चलाना इस समस्या का स्थाई समाधान नहीं है। उन्हें इस गांव को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा। उन्होंने अपनी कारोबारी बुद्धि का इस्तेमाल किया।
उन्होंने सबसे पहले पानी की समस्या को हल करने की सोची। उन्होंने अपनी कंपनी के इंजीनियरों को बुलवाया और गांव के पास सूखी हुई नदी पर कई छोटे-छोटे चेक डैम बनाने का काम शुरू करवाया। उन्होंने गांव वालों को ही इस काम में मजदूरी दी ताकि उनकी कुछ कमाई भी हो सके। फिर उन्होंने अपने गांव के पुराने बंद पड़े स्कूल को दोबारा शुरू करवाया।
उन्होंने अपनी तरफ से दो नए मास्टर रखे। बच्चों के लिए वर्दी, किताबें और दोपहर के खाने का इंतजाम किया। फिर उन्होंने वह अपना पुराना सपना पूरा किया। उन्होंने गांव के उन आखिरी बचे हुए बूढ़े बुनकरों को इकट्ठा किया। उन्होंने उन्हें नई खड्डियां, अच्छा धागा और नए डिजाइन दिए। उन्होंने एक वीवर्स कोऑपरेटिव सोसाइटी बनाई और फिर सिंह एक्सपोर्ट्स के विशाल नेटवर्क का इस्तेमाल करके पत्थरगढ़ की इस गुमनाम बुनाई को “पत्थरगढ़ सिल्क” के नाम से दुनिया के बाजारों तक पहुंचा दिया।
2 साल बीत गए। इन 2 सालों में पत्थरगढ़ की तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी। चेक डैम की वजह से जमीन का जल स्तर ऊपर आ गया था। सूखे कुओं में फिर से पानी भर गया था। गांव वालों ने अपने छोटे-छोटे खेतों में फिर से फसलें उगानी शुरू कर दी थीं। स्कूल बच्चों की हंसी से गूंज रहा था और पत्थरगढ़ सिल्क की धूम विदेशों तक मची हुई थी। गांव के हर घर में अब खड्डियों की आवाज सुनाई देती थी। लोगों के पास अब काम था, पैसा था और सबसे बढ़कर स्वाभिमान था।
लंगर आज भी चलता था, पर अब यह सिर्फ भूखों का पेट भरने की जगह नहीं थी। यह गांव का एक उत्सव केंद्र था जहां लोग अपनी खुशियां बांटने आते थे। एक दिन राज्य के मुख्यमंत्री का काफिला उस इलाके से गुजर रहा था। उन्होंने एक हरे-भरे खुशहाल गांव को देखा तो हैरान रह गए। उन्होंने गाड़ी रुकवाई। “यह कौन सा गांव है?” सरपंच ने गर्व से कहा, “साहब, यह हमारा पत्थरगढ़ है।”
मुख्यमंत्री ने गांव वालों से इस चमत्कार की कहानी सुनी। उन्होंने सुना कि कैसे एक सिख व्यापारी ने इस गांव की तकदीर बदल दी। वह जोगिंदर सिंह से मिलना चाहते थे। लोगों ने पंचायत घर के पास बने हॉल में ले गए। वहां उन्होंने देखा कि सरदार जोगिंदर सिंह सिर पर केसरी पटका बांधे आम लोगों के साथ पंगत में बैठकर खाना खा रहे हैं।
मुख्यमंत्री ने आगे बढ़कर उन्हें सैल्यूट किया। “सरदार साहब, आज आपसे मिलकर मैंने इंसानियत का सबसे बड़ा पाठ सीखा है। सरकारें जो काम सालों में नहीं कर पाती, वह आपने अकेले कर दिखाया।” यह खबर जब मीडिया में आई तो सरदार जोगिंदर सिंह रातोंरात एक नेशनल हीरो बन गए।
उनके बेटे सिमरनजीत ने जब टीवी पर अपने पिता की यह कहानी देखी तो उसकी आंखों से शर्मिंदगी और गर्व के आंसू बहने लगे। उसे पहली बार एहसास हुआ कि उसके पिता सिर्फ पैसा नहीं बल्कि इंसानियत कमा रहे हैं। वह अपनी पढ़ाई छोड़कर पहली फ्लाइट से पत्थरगढ़ आ गया। उसने दूर से देखा कि उसके पिता बच्चों को अपने हाथों से खाना खिला रहे हैं और उनके चेहरे पर एक ऐसी गहरी रूहानी शांति है जो उसने कभी करोड़ों की डील फाइनल होने के बाद भी नहीं देखी थी।
वह दौड़कर आया और अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ा। “मुझे माफ कर दो डैड। मैं आपको समझ नहीं पाया।” जोगिंदर सिंह ने अपने बेटे को उठाकर अपने सीने से लगा लिया। उस दिन के बाद सिमरनजीत लंदन वापस नहीं लौटा। वह अपने पिता के साथ उसी गांव में रुक गया और उनके सेवा के मिशन में उनका हाथ बंटाने लगा।
यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची सेवा और सच्ची देशभक्ति सिर्फ बातें करने से नहीं बल्कि जमीन पर उतर कर किसी के आंसू पोछने से होती है। सरदार जोगिंदर सिंह ने सिर्फ एक गांव को नहीं बल्कि इंसानियत के मुरझाए हुए भरोसे को फिर से जिंदा किया था।
दोस्तों, अगर सरदार जोगिंदर सिंह की इस निस्वार्थ सेवा ने आपके दिल में भी सेवा और इंसानियत की एक छोटी सी लौ जलाई है, तो इस वीडियो को एक लाइक जरूर करें। कमेंट्स में “वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह” लिखकर इस महान आत्मा को अपनी सलामी दें। इस कहानी को हर भारतीय के साथ शेयर करें ताकि “वंड छकों” का यह सच्चा संदेश हर दिल तक पहुंच सके।
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