पिता की आखिरी इच्छा के लिए बेटा 7 दिन के लिए किराए की बीवी लाया… फिर जो हुआ
दिल्ली की सुबह हमेशा भागदौड़ से भरी रहती थी। ऊँची-ऊँची इमारतों और भीड़भाड़ वाली सड़कों के बीच एक आलीशान बंगला था, जिसका मालिक था करोड़पति राजीव राठौर। पैसे, शोहरत और व्यापार—सब कुछ उसके पास था। मगर उस समय उसकी दुनिया बिखरी हुई थी, क्योंकि उसके पिता अस्पताल के बिस्तर पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे थे।
एक शाम, पिता ने काँपते हाथों से राजीव का हाथ थामा और धीमी आवाज़ में कहा,
“बेटा… मैं अपनी आखिरी इच्छा अधूरी लेकर मरना नहीं चाहता। तू अगले सात दिन में शादी कर ले। तभी मेरी आंखें चैन से बंद होंगी।”
राजीव सन्न रह गया। सात दिन में शादी? यह कैसे संभव था! मगर पिता की हालत देखकर उसके पास ‘ना’ कहने का साहस नहीं था। उसने सिर झुका लिया और कहा, “ठीक है पापा, जैसा आप चाहें।”
सबसे पहले उसके दिमाग में कॉलेज की पुरानी मंगेतर वैष्णवी मल्होत्रा का ख्याल आया। दोनों सालों से शादी का सपना देख रहे थे। राजीव ने तुरंत फोन किया और पूरी बात बताई। मगर वैष्णवी ने साफ कह दिया, “राजीव, मैं अभी तैयार नहीं हूं। दो दिन बाद मुझे कॉन्फ्रेंस के लिए जाना है। बाद में देखेंगे।”
राजीव ने समझाने की कोशिश की, मगर वह झल्लाकर बोली, “इतना बड़ा फैसला इतनी जल्दी मैं नहीं ले सकती।” और फोन काट दिया।
राजीव टूट चुका था। एक तरफ पिता की आखिरी इच्छा, दूसरी तरफ वैष्णवी का इंकार। अब उसके पास बस एक ही रास्ता बचा था—किसी भी हाल में शादी करना। तभी उसके दिमाग में ख्याल आया—अगर कोई लड़की सिर्फ कागजों पर शादी कर ले तो?
उसने अपने वकील को बुलाया और कहा, “मुझे सात दिन की कॉन्ट्रैक्ट मैरिज करनी है। लड़की को कोई नुकसान नहीं होगा, मैं पूरा खर्च उठाऊंगा।”
वकील हैरान हुआ, मगर राजीव की मजबूरी समझ गया। उसी शाम एक सामाजिक संस्था से संपर्क हुआ। वहाँ से उसे खबर मिली कि तनवी वर्मा नाम की लड़की की मां गंभीर रूप से बीमार है और इलाज के लिए पैसे नहीं हैं। संस्था की कार्यकर्ता ने कहा, “वह बहुत सीधी लड़की है। अगर उसकी मां का इलाज हो जाए तो शायद वह मान जाए।”
अगले दिन तनवी उसके सामने थी। साधारण सलवार-सूट, थकी हुई आंखें, मगर चेहरा दृढ़ता से भरा। राजीव ने सीधे कहा,
“यह शादी सिर्फ सात दिन की होगी। बदले में तुम्हारी मां का पूरा इलाज मैं करवाऊंगा।”
तनवी चुप रही। आंखों में आंसू आ गए। फिर धीरे से बोली,“अगर इससे मेरी मां की जान बच सकती है… तो मैं तैयार हूं।”
उसी दिन कोर्ट में दस्तखत हुए। ना बारात, ना मंडप, ना लाल जोड़ा—बस दो अनजान लोग मजबूरी में एक समझौते से बंध गए।
शुरुआती दिन खामोशी में गुज़रे। दोनों के बीच बस ज़रूरत की बातें होतीं—“खाना खा लिया?” या “कुछ चाहिए तो बताना।” मगर इस खामोशी में भी एक अनकहा जुड़ाव धीरे-धीरे जन्म ले रहा था।
राजीव अक्सर उसे पूजा में बैठा देखता। एक दिन उसने नोटिस किया कि तनवी ने नाश्ते की मेज पर एक छोटा सा कागज रखा है। उस पर लिखा था—
“हमारी शादी सिर्फ कागजों की बात नहीं रही। अब यह रिश्ता मेरे भगवान के सामने भी है। आपने मेरी मां का सहारा दिया है। इसके लिए मैं आभारी हूं।”
राजीव ठहर गया। उस चिट्ठी को उसने अपनी जेब में रख लिया, जैसे कोई अनमोल खजाना।
तीसरे दिन राजीव अस्पताल पहुँचा। तनवी अपनी मां के पास बैठी थी। उसकी आंखों में थकान थी, मगर होठों पर हल्की मुस्कान। ना कोई शिकायत, ना कोई सवाल। राजीव के दिल में अजीब सा सुकून आया।
शाम को बारिश हो रही थी। राजीव बालकनी में खड़ा था और तनवी पूजा कर रही थी। उसकी आंखों में जो शांति थी, वह राजीव को भीतर तक छू गई।
चौथे दिन अचानक बिजली चली गई। राजीव टॉर्च लेकर घूम रहा था। उसने देखा तनवी खिड़की के पास बैठी है। चांदनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। वह दृश्य राजीव के दिल पर छप गया।
अगली सुबह तनवी बोली, “बारिश के बाद की हवा कितनी साफ लगती है।”
राजीव मुस्कुराया और बोला, “कुछ रिश्ते भी बारिश जैसे होते हैं। जब आते हैं, तो कुछ ना कुछ बहा ले जाते हैं।”
तनवी ने हल्की मुस्कान दी, “और कभी-कभी नया भी छोड़ जाते हैं।”
उस खामोशी में अब अपनापन था।
मगर पांचवें दिन सब बदल गया। अचानक वैष्णवी घर आ पहुँची। उसके चेहरे पर गुस्सा था। वह बोली, “राजीव, तुमने मुझे धोखा दिया। इतनी जल्दी किसी और से शादी कर ली?”
राजीव ने शांत स्वर में कहा, “वैष्णवी, तुम देर से आई। वो समय पर आ गई। यह शादी मजबूरी में हुई है।”
वैष्णवी चीख उठी, “मजबूरी? सात दिन? और अब तुम उसे पत्नी कह रहे हो?”
वह तमतमाकर चली गई। मगर जाते-जाते कह गई, “यह कहानी यहीं खत्म नहीं होगी।”
घर में सन्नाटा पसर गया। तनवी ने कुछ नहीं पूछा, बस खाने की ट्रे में एक नोट रखा—
“क्या आपके मेहमान खुश थे?”
राजीव ने पढ़ा, मगर जवाब नहीं दिया।
छठे दिन अस्पताल से खबर आई—तनवी की मां की हालत अब बेहतर है। यह सुनकर राजीव को राहत मिली।
शाम को उसने देखा तनवी आंगन में गुलाबी साड़ी में बैठी है। चेहरे पर सादगी और आंखों में गहरी मासूमियत। राजीव ने कहा,
“तुम्हारी आंखें बहुत कुछ कहती हैं… फिर भी होठ इतने चुप क्यों रहते हैं?”
तनवी ने नजरें झुका लीं और बस इतना बोली, “काश यह सब सच होता।”
राजीव के दिल में हलचल मच गई।
सातवाँ दिन आ चुका था। तनवी ने मां के पैर छुए, छोटा सा बैग उठाया और दरवाजे की ओर बढ़ी। राजीव चाहता था कि उसे रोक ले, मगर शब्द गले में अटक गए।
मां ने धीमे स्वर में कहा, “बेटा, अगर उसने दिल में जगह बना ली है तो क्यों नहीं कह देते?”
राजीव बस फुसफुसाया, “वो चली गई…”
कुछ घंटों बाद बेचैनी ने उसे घेर लिया। वह पागलों की तरह शहर की सड़कों पर तनवी को ढूंढने लगा। हर स्टेशन, हर बस अड्डा—मगर कहीं नहीं मिली। थका-हारा वह बेंच पर बैठ गया। तभी उसकी नजर पड़ी—नीली साड़ी, कंधे पर बैग, हल्का घूंघट।
वह तनवी थी।
राजीव दौड़ा और हांफते हुए बोला, “तनवी, रुको!”
उसने जेब से फटा हुआ पन्ना निकाला।
“देखो, यह वही कागज है जिसमें लिखा था कि सात दिन बाद हमारा रिश्ता खत्म होगा। मैंने इसे फाड़ दिया। क्योंकि अब यह रिश्ता कागज पर नहीं, मेरे दिल पर लिखा है।”
तनवी की आंखों से आंसू बह निकले। धीमे स्वर में बोली, “मगर हम तो सिर्फ एक समझौते में बंधे थे।”
राजीव ने उसका हाथ थाम लिया, “समझौते कभी-कभी सच्चे रिश्तों का रास्ता बन जाते हैं। तुम मेरी सबसे बड़ी जरूरत हो।”
तनवी रोते हुए मुस्कुरा दी। “मैं भी रुकना चाहती थी… मगर डरती थी कि कहीं यह सब सिर्फ एक एहसास ना हो।”
राजीव ने दृढ़ स्वर में कहा, “अब यह सिर्फ एहसास नहीं, हमारी जिंदगी है।”
दोनों घर लौटे। मां ने भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर कहा,
“भगवान के घर देर होती है, अंधेर नहीं। जो जोड़ी वो बना दे, उसे कोई कागज तोड़ नहीं सकता।”
उस शाम राजीव ने सब रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाया और घोषणा की,
“तनवी मेरी पत्नी है। सिर्फ नाम से नहीं, दिल से। जिंदगी के हर फैसले में।”
तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी।
उस दिन से राजीव और तनवी ने एक नई जिंदगी की शुरुआत की। मजबूरी से बना रिश्ता अब सच्चाई और भरोसे का प्रतीक था।
यह कहानी हमें यही सिखाती है कि कुछ रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, मगर सच्चाई और विश्वास उन्हें हमेशा के लिए जोड़ देते हैं। प्यार दिखावे से नहीं, बल्कि छोटे-छोटे एहसासों से बड़ा होता है।
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