दस साल तक पोते से नहीं मिली दादी , फिर दस साल बाद भेजा आखरी खत जिसे पढ़कर पूरे परिवार के होश उड़ गए
खामोशी की झील – एक परिवार की अनकही दास्तान
क्या परिवार के रिश्ते इतने नाजुक होते हैं कि एक छोटी सी नासमझी उन्हें सालों के लिए तोड़ सकती है? क्या दिल में दबी खामोशी कभी-कभी सबसे जोरदार चीख से भी ज्यादा दर्द देती है? यह कहानी है एक ऐसे ही परिवार की, जहाँ एक दादी अपने ही इकलौते पोते के जन्म पर नहीं आई, और फिर 10 सालों तक उसकी कोई खबर नहीं मिली। बेटे और बहू ने मान लिया कि उनकी मां ने उनसे सारे रिश्ते तोड़ लिए हैं। मगर जब उस पोते के 10वें जन्मदिन पर दादी की एक रहस्यमयी चिट्ठी आई, और उसे खोला गया, तो जो सच उसमें छिपा था, उसने पूरे परिवार को झकझोर कर रख दिया।
नोएडा के एक मध्यमवर्गीय फ्लैट में समीर, उसकी पत्नी प्रिया, और उनका बेटा रोहन रहते थे। परिवार खुशहाल था, लेकिन घर के कोने में हमेशा एक अनकहा दर्द बसता था- समीर की मां, यानि रोहन की दादी, सरला देवी, जो लखनऊ में अपने पुश्तैनी घर में अकेले रह रही थीं… बीते 10 वर्षों से उनका परिवार से कोई संबंध नहीं था। किसी ने मान लिया कि मां ने खुद रिश्ता तोड़ा है।
रोहन, एक संवेदनशील और समझदार बच्चा था। वह अक्सर देखता कि उसके दोस्त अपनी दादी-नानी से कहानियां सुनते हैं, प्यार पाते हैं। वह मां से बार-बार पूछता, “मां, मेरी दादी कहां है? क्या वो मुझसे प्यार नहीं करतीं? मेरे जन्मदिन पर क्यों नहीं आतीं?” प्रिया के पास जवाब नहीं होता, बस कह देती, “बेटा, तुम्हारी दादी जरूर तुमसे बहुत प्यार करती होंगी… बस थोड़ी नाराज हैं।” लेकिन जब रोहन यही सवाल पापा समीर से पूछता, तो समीर का चेहरा सख्त हो जाता। वह कहता, “तुम्हारी दादी ने हमसे सब रिश्ते तोड़ लिए हैं, भूल जाओ कि कोई दादी है।”
समीर के दिल में एक गहरा जख्म था, जो भर नहीं पाया था। उसे वह दिन हमेशा याद था, जब उसने मां से कहा था कि वह प्रिया से प्यार करता है और उससे शादी करना चाहता है। प्रिया संस्कारी और अच्छी लड़की थी, मगर अलग जाति की थी, और परिवार आर्थिक रूप से कमजोर। सरला देवी पुराने ख्यालों की थीं और समाज की इज्जत उनके लिए सबसे ऊपर थी। उन्होंने यही कहा था, “अगर तुमने उस लड़की से शादी की, तो इस घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हैं। भूल जाना कि तुम्हारा कोई मां है।” समीर ने लाख समझाया, पर मां ने ना माना। हारकर, उसने अपने प्यार को चुना, लखनऊ छोड़ दिल्ली आ गया।
समीर को भरोसा था कि जब बच्चा होगा, मां का दिल पिघलेगा; लेकिन जब रोहन का जन्म हुआ, उसने मां को कितनी बार फोन किया, खत लिखे, तस्वीरें भेजीं… लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। हर खत, हर तस्वीर “पता गलत है” की मोहर के साथ वही लौट आती थी। आखिर समीर ने मान लिया कि मां ने सचमुच उसका रिश्ता तोड़ लिया है।
समय बीतता गया… आज रोहन का 10वां जन्मदिन था। घर में केक कट रहा था, दोस्त और पड़ोसी खुशी मना रहे थे, पर समीर के दिल में एक अधूरापन था। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। डाकिया, एक बड़ा सा तोहफा और एक लिफाफा लेकर खड़ा था- भेजने वाले का नाम लिखा था “तुम्हारी दादी की तरफ से”। पूरा घर ठहर सा गया।
रोहन ने कांपते हाथों से तोहफा खोला। उसमें हाथ से बुना एक सुंदर नीला स्वेटर था, जिस पर ‘आर’ लिखा था- बिल्कुल रोहन की नाप का! साथ में था एक लिफाफा, “मेरे प्यारे पोते रोहन के लिए”। समीर ने गुस्से में कहा, “10 साल बाद दादी को पोते की याद आई है? मुझे यह खत नहीं पढ़ना!” पर रोहन की जिद के आगे पिता हार गए। समीर ने कांपते हाथों से लिफाफा खोला…
खत में लिखा था:
“मेरे प्यारे रोहन, जब तुम्हें यह चिट्ठी मिलेगी, शायद मैं इस दुनिया में ना रहूं… बेटा, तुम सोचोगे, तुम्हारी दादी कितनी पत्थरदिल थी, जो कभी मिलने नहीं आई। सच वह नहीं, जो तुमने जाना। सच यह है कि जिस दिन तुम्हारे पापा ने घर छोड़ा, मैं पूरी तरह टूट गई थी। और फिर उसी हफ्ते, डॉक्टर ने मुझे Motor Neuron Disease के बारे में बताया- यह ऐसी बीमारी थी, जिसमें शरीर धीरे-धीरे हार जाता है, आवाज चली जाती है, सिर्फ सांसे रह जाती हैं, एक जिंदा लाश की तरह।
मैंने तय कर लिया था कि अब अपने बेटे और बहू की जिंदगी फिर से बोझ नहीं बनूंगी। मैं चाहती थी कि तुम लोग खुश रहो, आगे बढ़ो। इसी वजह से मैं खुद दूर रही… अपने बेटे को दिल से कभी दूर नहीं किया, रोज़ उसकी याद में रोती थी। समीर ने जितने भी खत भेजे, तस्वीरें भेजीं, सब पढ़े- सब देखे… हां, उन्हें लौटाया, ताकि वह मान ले कि मैं नाराज हूं। यह मेरी मजबूरी थी, मेरा प्यार था।
यह स्वेटर मैंने अपने हाथों से तब बुना, जब मेरे हाथों में अभी ताकत थी। यह मेरे आशीर्वाद और प्यार का अंतिम निशान है।
अपने पापा से कहना, उनकी मां उनसे कभी नाराज नहीं थी, बस मजबूर थी।
मेरे रोहन, मेरी हर दुआ, हर सांस तुम्हारे लिए थी। हमेशा सच और अच्छे इंसान बनना।
— तुम्हारी बदनसीब दादी, सरला”
खत पढ़ते-पढ़ते समीर और प्रिया फूट-फूट कर रोने लगे। समीर के दिल की सारी शिकायतें, सारा गुस्सा तिनके की तरह ढह गया। उसे आज अपनी मां की कुर्बानी समझ आई, जिसने अपने अकेलेपन, अपनी बीमारी और अपने प्यार को चुपचाप, खामोशी से सिर्फ इसलिए जिया कि बच्चे अपनी जिंदगी में आगे बढ़ सकें।
खत के साथ छोटे कागज पर एक पते का जिक्र था- शांति कुंज आश्रम, ऋषिकेश।
अगले ही दिन, समीर अपने परिवार के साथ उसी आश्रम पहुंचा। वहां के संचालक ने बताया, “सरला जी चुपचाप यहीं रहती थीं, किसी से बात नहीं करती थीं। हमेशा एक बच्चे की तस्वीर देखतीं और मुस्कुराती रहती थीं। पिछले हफ्ते ही उनका देहांत हो गया।” आश्रम की अलमारी में सिर्फ कुछ पुरानी चीजें थीं और दीवारों पर टंगी वो सभी तस्वीरें, जो समीर ने कभी मां को भेजी थीं…
उस दिन पूरे परिवार ने गंगा तट पर सरला देवी की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की। उनके दिलों से न सिर्फ दर्द, बल्कि सारे शिकवे भी बह गए… बस रह गई तो दादी की याद, और उनके त्याग का अमिट एहसास।
यह कहानी हमें सिखाती है कि कभी-कभी खामोशी के पीछे छुपे सच को हम अपनी आंखों से नहीं, सिर्फ दिल से समझ सकते हैं।
अगर यह कहानी आपको भी छू गई, इसे अपने परिवार और बच्चों के साथ जरूर बांटे।
धन्यवाद! 🌹
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