मां जैसी सास को बहू ने नौकरानी बना दिया… फिर जो हुआ, पूरे घर की नींव हिल गई!
“मां जैसी सास को बहू ने बना दिया नौकरानी”
उत्तराखंड के हरिद्वार से कुछ दूर एक छोटा सा शहर है, जहां एक साधारण परिवार रहता था। रामकुमार जी, गांव के स्कूल में प्रधानाचार्य, उनकी पत्नी सुन्यना देवी और बेटा अर्जुन, जो शहर में नौकरी करता था। अर्जुन की शादी मीना से हुई, जो अपने मायके में राज करती थी और शादी के बाद भी उसी राज की उम्मीद लेकर ससुराल आई थी।
शादी को अभी पंद्रह दिन ही हुए थे। सुबह-सुबह मीना अपने मोबाइल पर मां विमला देवी को फोन करती है। झुंझलाकर बोलती है,
“मां, आपने तो कहा था लड़का कमाऊ है, पढ़ा लिखा है और अपनी मां-बाप से दूर रहता है। लेकिन यहां तो सब उल्टा हो गया। सास मेरी छाती पर बैठी है, हर जगह उसी की चलती है।”
मां समझाती है,
“बेटी, धैर्य रख। अगर ससुराल में अपना राज चाहती है तो एक हफ्ता सास की सेवा कर। फिर देख, वह तेरे इशारों पर चलेगी। पति की नजर में मासूम बनी रहना, वरना खेल हाथ से निकल जाएगा।”
मीना हंसकर कहती है,
“ठीक है मां, आपकी ट्रिक अपनाऊंगी। लेकिन सिर्फ एक हफ्ता। उसके बाद अगर वह बुढ़िया नहीं मानी तो सामान उठाकर मायके लौट आऊंगी।”
पास बैठे महेश बाबू, मीना के पिता, विमला देवी को टोकते हैं,
“कैसी मां हो तुम? बेटी को सिखा रही हो कि किसी और की मां को जलील किया जाए? क्या यही संस्कार दिए हैं?”
विमला देवी मुस्कराकर कहती है,
“ससुराल में औरत को अपनी जगह बनानी हो तो चालाक बनना पड़ता है। अब मेरी बेटी उस घर की बहू है, तो मालकिन भी वही होनी चाहिए।”
अब मीना दिखावे की मीठी मुस्कान लेकर अपनी सास सुन्यना देवी के पास जाती है। चाय देती है, खाना परोसती है, और आदर्श बहू बनने का नाटक करती है। लेकिन भीतर ही भीतर एक गेम चल रहा होता है।
सुन्यना देवी कम पढ़ी लिखी लेकिन बेहद समझदार और सहनशील महिला थीं। उन्होंने अपने पति के साथ जीवन भर ईमानदारी से जिंदगी बिताई थी। बेटे अर्जुन ने शादी के बाद मां को शहर में रोक लिया था ताकि वह बहू को घर के काम सिखा सके। सुन्यना देवी ने सोचा, बहू को बेटी समझूंगी, लेकिन उन्हें क्या पता था कि सास बनने का मतलब कभी-कभी काम वाली बन जाना भी होता है।
शादी के चंद दिन बाद अर्जुन ऑफिस जाने लगा। मीना से उम्मीद थी कि वह घर संभालेगी, लेकिन मीना कहती,
“मुझे इतनी सुबह उठने की आदत नहीं है। मायके में तो पानी तक खुद नहीं लेना पड़ता था। क्यों न किसी काम वाली को रख लें?”
अर्जुन चुपचाप रह जाता है। रात को मीना तनाव से भरा चेहरा लेकर सास के पास जाती है,
“मां जी, सच बताऊं तो मैं बहुत थक जाती हूं। सारा दिन घर का काम, अर्जुन को वक्त देना, खर्चों का हिसाब देखना… कुछ समझ नहीं आता कि किससे मदद मांगूं।”
सुन्यना देवी मुस्कुराकर कहती हैं,
“मैं हूं ना बहू। तुम आराम करो, आज के बर्तन मैं देख लूंगी। सुबह तुमसे पहले रसोई में पहुंच जाऊंगी।”
मीना झूठी झिझक दिखाते हुए कहती है,
“नहीं मम्मी जी, ऐसा कैसे हो सकता है? अब तो आप मेरी मां जैसी हैं।”
और गले लग जाती है, लेकिन उस गले में कोई सच नहीं था, बस एक चाल थी।
रात 11 बजे तक सुन्यना देवी बर्तन मांझती रहीं। अगली सुबह मीना गहरी नींद में थी, सुन्यना देवी चुपचाप टिफिन तैयार कर रही थीं। मीना उठी,
“मां जी, जरा अर्जुन का टिफिन बना दीजिए, आज सिर दर्द है।”
सुन्यना देवी ने बिना सवाल किए टिफिन तैयार किया। अर्जुन ने पूछा,
“मां, आप बना रही हैं, मीना कहां है?”
सुन्यना देवी मुस्कुराई,
“बहू की तबीयत थोड़ी नासाज है, मैं देख लूंगी।”
अब यह रोज की बात हो गई थी। मीना देर से उठती, टिफिन मां बनाती, खाना मां बनाती, परोसने का क्रेडिट मीना लेती।
एक दिन मीना पार्लर से बाल कटवा कर लौटी। सुन्यना देवी ने हैरानी से पूछा,
“बहू, यह क्या किया? तुम्हारे तो सुंदर बाल थे, कटवा क्यों लिए?”
मीना की सहेलियां बोलीं,
“क्या सास से पूछकर अब बाल कटवाने पड़ते हैं क्या?”
मीना पलटकर बोली,
“मम्मी जी, मेरी मर्जी, मैं बाल रखूं या काटूं, आप कौन होती हैं बोलने वाली? जाइए अब चाय बनाइए, मेहमान आए हैं।”
सुन्यना देवी ने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप रसोई में चली गईं।
उस रात मीना और अर्जुन एक पार्टी में जा रहे थे। मीना ने सैंडल पहनते हुए कहा,
“ओ अर्जुन, मेरी सैंडल में मिट्टी लग गई। अब साड़ी संभालूं या चप्पल धोऊं?”
अर्जुन बोला,
“मां, जरा सैंडल साफ कर दीजिए ना, देर हो रही है।”
मीना भी बोली,
“अरे मम्मी जी, कपड़ा ढूंढने का टाइम नहीं है, पल्लू से ही साफ कर दीजिए। और हां, अब साफ कर ही दी है तो पहनाइए भी ना, आखिर मैं आपकी बहू हूं।”
सुन्यना देवी चुपचाप झुकीं और अपने पल्लू से बहू की चप्पल साफ की, उसे पहनाया और दरवाजे तक छोड़ आईं। मीना जाते-जाते कह गई,
“बाहर खाना खाएंगे, आप दिन का बचा हुआ खा लीजिएगा। और कपड़े प्रेस कर दीजिएगा।”
मीना अब खुद को घर की रानी समझने लगी थी। सुन्यना देवी जो कभी इस घर की नींव थीं, अब स्टोर रूम में रह रही थीं, जहां पुराने अखबार, टूटी बाल्टी और कबाड़ रखा जाता था। वहीं एक कोने में चारपाई बिछा ली थी उन्होंने और उसी को अपना संसार बना लिया था।
मीना की मां विमला देवी अब घर में थी। हर कोना दो औरतों की आवाज से गूंजता था – एक की जुबान में हुकुम, दूसरी की चुप्पी में आंसू।
मीना का जन्मदिन आने वाला था। घर में पार्टी की तैयारियां हो रही थीं। किचन में सुन्यना देवी और नौकर खाना बना रहे थे। विमला देवी बीच-बीच में ताना मारती,
“समधन जी, कुछ तो सीखिए। ऐसे खाना बनाइए कि मेहमान पूछे, किस होटल से आया है।”
मीना हंसकर कहती,
“मम्मी, ये क्या जाने शाही चीजें बनाना, गांव की रोटी छाज की आदत है इनको।”
सुन्यना देवी ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछ लिए।
लेकिन उसी वक्त दरवाजा खुला। रामकुमार जी खड़े थे। सिर पर हल्की सफेदी लेकिन चाल में वही गरिमा। आंखें पूरे घर में घूमीं, और जैसे ही किचन की तरफ गईं, रुकीं।
“अर्जुन बेटा, तुम्हारी मां कहां है?”
“अंदर होंगी पापा, शायद रसोई में,” अर्जुन ने लापरवाही से जवाब दिया।
रामकुमार जी रसोई के पास पहुंचे। देखा, एक कोने में सुन्यना देवी पसीने में तर गर्म तेल के पास सब्जी पलट रही थीं और सामने विमला देवी कह रही थी,
“समधन जी, कपड़ों से इतनी बदबू आ रही है कि हम किचन में खड़े नहीं रह पा रहे। पता नहीं मीना इन्हें कैसे बर्दाश्त करती है।”
मीना जोर से हंसकर कहती,
“मम्मी, मैंने तो इन्हें बस इसलिए रखा है ताकि काम वाली का खर्चा बच जाए।”
तभी रामकुमार जी की भारी आवाज गूंजी,
“वो बदबू नहीं, उन हाथों की खुशबू है जिन्होंने इस घर को इस लायक बनाया कि आज इसमें मेहमान आ सके।”
मीना और विमला चौक कर पीछे मुड़ीं। सुन्यना देवी कांपते हाथों से कड़ाही नीचे रखती हैं और धीरे-धीरे अपने पति की ओर बढ़ती हैं,
“आप आ गए, मुझे ले चलिए, अब एक पल भी इस घर में नहीं रहना है।”
रामकुमार जी ने उन्हें गले से लगा लिया,
“मेरे होते हुए तुम्हारी आंखों से आंसू बहे, यह मैं कभी नहीं सहूंगा।”
विमला बोली,
“हे भगवान, जरा शर्म तो करो समधी जी, बहू के सामने ही बीवी से लिपट रहे हो।”
रामकुमार ने सीधा जवाब दिया,
“आप अपनी बेटी के घर रह सकती हैं और मैं अपनी पत्नी को गले भी न लगाऊं, जिसने इस बेटे को जन्म दिया, उसे इस घर में अपमानित देखूं तो क्या मैं मूग दर्शक बन जाऊं?”
तभी अर्जुन बाहर निकला और झुंझुलाकर बोला,
“मां, समोसे खत्म हो गए हैं, जल्दी लाओ।”
अचानक रामकुमार जी का हाथ अर्जुन के गाल पर पड़ा और जोरदार तमाचे की गूंज पूरे हॉल में फैल गई।
“बेशर्म, तू अपनी मां को रसोई में नौकरानी समझता है? तू भूल गया यही औरत थी जिसने तुझे चलना सिखाया, खाना खिलाया और तू उसी पर हुकुम चला रहा है?”
मीना की आंखें फटी की फटी रह गईं।
रामकुमार जी बोले,
“सुन्यना, अब चलो। अब इस घर में कोई रिश्ता नहीं बचा।”
वह स्टोर रूम में गए, सुन्यना देवी की छोटी सी पोटली उठाई और दरवाजे की ओर बढ़े।
अर्जुन रामकुमार जी के पैरों में गिर पड़ा,
“पापा, माफ कर दो, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।”
रामकुमार जी ने ठंडी आंखों से देखा,
“यह गलती नहीं, यह पाप है। और इस पाप की सजा यही है कि अब तुम दोनों की जिंदगी से हम चले जाएं। और हां, मेरी जायदाद पर अब तुम्हारा कोई अधिकार नहीं होगा। मैं नहीं भी रहूं, तब भी सुन्यना के लिए सब कुछ छोड़कर जाऊंगा, पर तुम जैसे बच्चों के भरोसे नहीं।”
मीना फफक पड़ी, विमला देवी घबराई,
“हे भगवान, दामाद जी, बेटी के बर्थडे पर इतना बड़ा अनर्थ…”
तभी विमला का मोबाइल बजा। उसकी बहू का फोन था।
“मम्मी जी, आपका सामान बरामदे में रखवा दिया है। हम 15 दिन के लिए घूमने जा रहे हैं। लौट कर मत आइएगा।”
फोन कट गया।
रामकुमार जी ने धीरे से कहा,
“जो बोएगी वही काटेगी। आज तूने एक मां को रुलाया, तो ऊपर वाला तुझे भी उसी दर्द में डुबो देगा।”
रामकुमार जी ने दरवाजा खोला, सुन्यना देवी का हाथ पकड़ा और दोनों चुपचाप निकल गए। अर्जुन और मीना बस देखते रह गए। अब उनके पास कोई बहाना, कोई आंसू और कोई भरोसा नहीं बचा था।
सीख:
मां जैसी सास को नौकरानी बना देना, अपने हक के लिए किसी का अपमान करना – यह कभी किसी को सुख नहीं देता। जिस घर में मां का सम्मान नहीं, वहां कभी खुशियां नहीं टिकतीं।
इंसान वही है जो अपनों की इज्जत करे।
वरना एक दिन जिंदगी खुद तमाचा मार देती है।
आप क्या सोचते हैं?
क्या बहू को सिर्फ अपने हक के लिए सास को नौकर बना देना चाहिए?
क्या बेटा मां को भूल सकता है?
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मिलते हैं अगली कहानी में।
जय हिंद।
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