मां ने रिक्शा चला कर बेटे को डॉक्टर बनाया… मगर डॉक्टर बनते ही बेटे ने उसे मां मानने से मना कर दिया!

“रिक्शा वाली मां – मेहनत की सवारी, इज्ज़त की पहचान”
शहर के एक कोने में एक पतली सी गली थी, जहां सुबह जल्दी नहीं होती थी और रात देर से खत्म होती थी। उसी गली के मोड़ पर एक टूटा-फूटा रिक्शा हमेशा खड़ा रहता था, जिसकी एक हैंडल की रबर निकल गई थी और पीछे की सीट पर महीनों पुराना गद्दा पड़ा था। उस रिक्शे को देखकर ही थकान महसूस होती थी, लेकिन हर सुबह उस रिक्शे पर एक औरत बैठती थी – सामली, झुकी हुई कमर, सिर पर पल्लू, माथे पर पसीने की रेखा। उसका नाम था सुमित्रा। लोग उसे ‘रिक्शा वाली’ कहते थे। कुछ ताने मारते, कुछ हंसते – “औरत होकर रिक्शा चलाती है?” लेकिन सुमित्रा को अब किसी बात का बुरा नहीं लगता था। बुरा तो बहुत पहले लगना बंद हो गया था, जब उसका पति रामू एक रात बीड़ी लेने निकला और कभी लौटा ही नहीं – न चिट्ठी, न खबर। बस एक तीन साल का बेटा गोद में था और पेट में खाली जगह।
सुमित्रा ने रोकर एक रात काटी थी। फिर अगली सुबह बाल बांधे, पल्लू कसा और रिक्शा उठा लिया था – वही रिक्शा जो रामू के बिना चलता नहीं था, अब उसकी रोटी की गाड़ी बन गया। “मां, भूख लगी है।” बेटा विवेक कहता, “बस दो सवारी और बैठ जाएं, फिर चलेंगे समोसे खाने।” लेकिन सुमित्रा ने ठान लिया था – मेरा बेटा स्कूल जाएगा, पढ़ेगा और वह बनेगा जो इस मोहल्ले में आज तक कोई नहीं बना – डॉक्टर।
रोज की कमाई कभी 20, कभी 50 रुपये। जब ज्यादा मिल जाता तो मां एक प्लेट चना-भटूरा खरीदती और खुद मुंह में पानी भरके देखती रहती, “तू खा ले बेटा, मैं बाद में खाऊंगी।” बेटा पहले जिद करता था, “तुम भी खाओ मां,” लेकिन धीरे-धीरे उसे भी आदत हो गई मां की भूख समझने की। विवेक पढ़ाई में तेज था। सुमित्रा के पास ना टाइम था, ना तालीम, लेकिन उसे किताबों से प्यार हो गया था। मां रोज अपने रिक्शे की पिछली सीट पर बैठाकर स्कूल छोड़ती थी।
कुछ सालों बाद मोहल्ले में चर्चा होने लगी – “रिक्शा वाली का लड़का स्कूल में टॉपर आया है!” विवेक ने 10वीं बोर्ड में टॉप किया। मां ने 12 घंटे रिक्शा चलाना शुरू किया। फिर 11वीं, 12वीं और मेडिकल की तैयारी। कई बार किताबें महंगी पड़ती थीं, कई बार फीस चुकाने के लिए सुमित्रा ने अपना मंगलसूत्र तक गिरवी रखा। एक बार किसी सवारी ने मजाक उड़ाते हुए पूछा, “क्यों बहन जी, बेटा डॉक्टर बनेगा? फिर आप उसके मरीज बनोगी?” सुमित्रा मुस्कुराई, “नहीं भैया, जब मेरा बेटा डॉक्टर बनेगा, मैं बीमार नहीं रहूंगी।”
मेडिकल का एग्ज़ाम निकला, काउंसलिंग हुई, और एक दिन पोस्टमैन एक लिफाफा लाया – “विवेक श्रीवास्तव, एमबीबीएस, गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज।” मां ने वो चिट्ठी चूमकर माथे से लगाई, अपने फटे हुए ट्रंक से ₹300 निकाले और बाजार से मिठाई लाई। पूरे मोहल्ले को बांटी, जैसे बेटा उसका नहीं, मोहल्ले का हो।
कॉलेज शुरू हुआ, विवेक को हॉस्टल में रहना था। मां हर हफ्ते मिलने जाती – कभी कपड़े लेकर, कभी पराठे। शुरू में विवेक उसे छत पर बुला लेता था, लेकिन कुछ महीनों में आवाज बदलने लगी – “मां, आज मत आना, क्लास है, दोस्त हैं। रिक्शे से मत आना प्लीज।” मां समझने लगी थी कि बेटा अब बदल रहा है, पर फिर भी चुप रही।
पांच साल बीत गए। डॉक्टर विवेक श्रीवास्तव अब एक नाम बन चुका था। सरकारी अस्पताल में पोस्टिंग हुई, पहली सैलरी आई। मोहल्ले में सब उम्मीद से भरे थे – “अब तो सुमित्रा को आराम मिलेगा, अब तो रिक्शा छूटेगा।” लेकिन सच्चाई ने एक और करवट ली। मां अस्पताल पहुंची, पैसे नहीं मांगे, सिर्फ बेटे को देखने आई थी। सफेद कोट में, स्टेथोस्कोप गले में डाले विवेक आया, मां की आंखें भर आईं – “मेरा राजा बेटा डॉक्टर बन गया!”
लेकिन विवेक ने चारों ओर देखा – कुछ नर्सें, कुछ जूनियर डॉक्टर उसे देख रहे थे। “मां, तुम यहां क्यों आई हो? किसी ने देख लिया तो…” सुमित्रा चौंकी, “क्यों बेटा?” “तुम रिक्शा लेकर अस्पताल मत आया करो, और ये सब मत कहा करो सामने, लोग हंसते हैं।” मां जैसे थम गई – “तो अब मैं तेरी मां नहीं रही?” विवेक चुप, आंखें झुकी, “बुरा मत मानो मां, बस थोड़ा समझो ना।” मां का चेहरा सफेद हो गया, उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ इतना बोली – “ठीक है बेटा, अब मैं रुकूंगी नहीं।” वो रिक्शे की तरफ मुड़ी – थकी हुई, लेकिन टूटी नहीं।
सुमित्रा उस दिन अस्पताल से लौटते वक्त बहुत धीरे-धीरे चल रही थी। सड़कों की आवाजें जो पहले उसे परेशान नहीं करती थीं, अब कानों में चुभने लगीं। कभी जिस रिक्शे पर वो गुनगुनाती थी, अब हर पैडल मारते वक्त जैसे दिल पर चोट पड़ती थी – “मां, तुम यहां क्यों आई हो?”
मोहल्ले में कोई जानता नहीं था कि विवेक ने क्या कहा। लोग अब भी सुमित्रा से पूछते – “अब तो आराम मिलेगा ना दीदी, अब तो बेटा कमाने लगा है, अब तू क्यों रिक्शा खींच रही है?” और सुमित्रा हर बार मुस्कुरा देती – “अभी रुकना नहीं है भैया, अभी बहुत दूर जाना है।” अब उसकी मुस्कान में दर्द नहीं था, एक अलग सी शांति थी – जैसे वो हर दिन अपने आप को थोड़ा और माफ कर रही हो।
विवेक अब शहर के नामी डॉक्टरों में से एक बन चुका था। सोशल मीडिया पर फोटो, सेमिनार में भाषण, मिसाल के रूप में अखबारों में नाम। और जब कोई पूछता – “आपके माता-पिता क्या करते हैं डॉक्टर साहब?” विवेक सिर झुका लेता – “पिता नहीं हैं, मां गांव में रहती है।” सुमित्रा अब गांव में नहीं रहती थी, लेकिन विवेक के मन से बहुत दूर थी।
एक दिन मोहल्ले में कुछ बच्चों ने रिक्शा पर बैठते हुए पूछा – “आंटी, आपके बेटे का नाम अखबार में था, आप रिक्शा क्यों चलाती हैं?” सुमित्रा हंसी – “क्योंकि मैंने चलना नहीं छोड़ा बेटा।” अब सुमित्रा ने अपना रिक्शा खुद पेंट करवाया था – नीला रंग, जिसके पीछे सफेद अक्षरों में लिखा था – “मेहनत की सवारी, शर्म की नहीं।”
वहीं दूसरी ओर विवेक की जिंदगी अब सिर्फ ऊंचाइयों में उलझ चुकी थी। डॉक्टर बनने के बाद जब उसने पहली बार अपने जीवन का इंटरव्यू दिया, एंकर ने पूछा – “डॉक्टर विवेक, आपको सबसे बड़ा सहारा किसने दिया इस मुकाम तक पहुंचने में?” विवेक थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला – “मेरे संघर्ष ने और भगवान ने।” उसने मां का नाम तक नहीं लिया।
टीवी पर जब सुमित्रा ने यह देखा तो एक पल को टीवी बंद कर दिया। फिर अंदर गई, पुराने ट्रंक से एक तस्वीर निकाली जिसमें छोटा सा विवेक मां की गोद में बैठा था और पराठा खा रहा था। उस तस्वीर को दीवार पर टांगा और कहा, “मैं अब तुझसे शिकायत नहीं करूंगी बेटा। तू जितना ऊपर चढ़ना चाहता है, चढ़ जा। मैं नीचे रहकर तुझे दुआ देती रहूंगी। क्योंकि मां ऊपर उठने वालों की नहीं, गिरने वालों की पहली जरूरत होती है।”
कुछ महीनों बाद एक दिन अस्पताल में एक इमरजेंसी केस आया – एक बूढ़ा आदमी जिसकी हालत बहुत खराब थी, साथ में एक औरत थी जो जोर-जोर से बोल रही थी – “बचा लो साहब, ये मेरे किराएदार हैं, बहुत अच्छे इंसान हैं।” विवेक केस देखने गया और जैसे ही उस औरत ने मुड़कर उसे देखा, उसका चेहरा उतर गया – सुमित्रा मां। उसने खुद को रोक लिया, सिर झुका लिया – “डॉक्टर साहब, इन्हें बचा लीजिए, मेरे मोहल्ले के हैं, बहुत नेक आदमी हैं।”
विवेक समझ नहीं पाया – क्या ये वही मां है जिसने उसे यहां तक पहुंचाया? क्या वो इस दर्द को इतनी आसानी से सह रही है? इलाज पूरा हुआ, बूढ़े आदमी बच गए। विवेक उन्हें डिस्चार्ज करने आया और धीरे से मां के पास बैठ गया – “माफ करना मां।” सुमित्रा कुछ देर चुप रही, फिर बोली – “मैंने तुझे माफ उसी दिन कर दिया था जब तूने मुझे मां मानने से इंकार किया।” विवेक की आंखें भर आईं – “मुझे शर्म आती है मां, मैंने तेरे साथ बुरा किया, तूने तो मेरे लिए सब कुछ किया था।” सुमित्रा मुस्कुराई – “बेटा, जिस दिन तूने मुझे छोड़ा था, मैं मां बनकर टूटी थी, पर इंसान बनकर खड़ी भी हो गई थी। मैं तुझसे मोह नहीं रखती अब, पर दुआएं आज भी देती हूं।”
विवेक कुछ कह न सका। उसके लिए दिन जैसे सामान्य थे, लेकिन रातें अब भी बेचैन करने लगी थीं। हर बार जब मरीज की नब्ज़ पकड़ता तो उसके हाथ कांपते, क्योंकि उसे याद आता था कि अपनी मां की धड़कनों को उसने कभी नहीं सुना। वो मां जो हर दिन रिक्शा खींच कर उसकी पढ़ाई में सांस फूंकती रही, उसे ही उसने अपने नाम से बाहर निकाल फेंका।
कई बार उसने फोन उठाया मां को कॉल करने के लिए, लेकिन स्क्रीन पर मां का नाम नहीं था – क्योंकि वो नाम उसने खुद डिलीट कर दिया था। अब नंबर याद था, पर हिम्मत नहीं।
वहीं सुमित्रा अब एक नई जिंदगी जी रही थी। उसने मोहल्ले की कुछ और औरतों को इकट्ठा किया और उन्हें रिक्शा चलाना सिखाया – “औरत हो या आदमी, पेट भूख से पहचानता है, शर्म से नहीं।” यही उसका नया मंत्र था। धीरे-धीरे मीडिया को पता चला कि एक महिला रिक्शा चालक महिलाओं को आत्मनिर्भर बना रही है। एक लोकल न्यूज़ चैनल ने उसका इंटरव्यू लिया और जब उससे पूछा गया – “आपका बेटा डॉक्टर है, क्या आपको गर्व होता है?” सुमित्रा ने लंबी सांस ली – “मुझे गर्व है कि मैं अब किसी की मां नहीं, मैं खुद की पहचान हूं। और अगर कभी बेटा लौटे तो मैं सिर्फ एक बात कहूंगी – जो मां को उसकी गरीबी से शर्म आने लगे, वो अमीरी का क्या करेगा?”
उस इंटरव्यू ने सोशल मीडिया पर आग लगा दी। लाखों लोगों ने शेयर किया। “रिक्शा वाली मां” का जवाब सुनकर आंखें भर आईं – ऐसी मां को सलाम।
जब विवेक ने उस वीडियो को देखा तो उसका दिल बैठ गया। आंखों से आंसू बह निकले और पहली बार उसने खुद को आईने में देखा – “मैंने मां नहीं खोई, खुद को खो दिया है।” वो भागता हुआ मोहल्ले पहुंचा। रिकशों की कतारें थीं, भीड़ थी, और बीच में सुमित्रा एक औरत को सिखा रही थी कैसे ब्रेक दबाते हैं। “मां!” उसकी आवाजें टूट रही थीं – “मां, मुझे माफ कर दो। मैंने तुझे छोड़ा, नकारा, शर्म महसूस की, लेकिन तू फिर भी मेरा गुरूर बन गई।”
सुमित्रा ने पलट कर देखा। विवेक की आंखों में वो टूटन थी, जो मां पहचान जाती है। वो पास आया, उसके पैरों में गिर गया – “मां, मैं तुझसे रिश्ता वापस चाहता हूं, मुझे फिर से तेरी ममता चाहिए। मैं तुझसे दूर जाकर अमीर हो गया, लेकिन आज तू मुझसे ऊंची बन गई है।”
सुमित्रा ने उसे उठाया – “मैंने तुझे माफ उसी दिन कर दिया था जब तू मुझे छोड़ गया था। लेकिन अब तू मां नहीं खोज रहा, तू खुद को खोज रहा है – और यह अच्छा है।” वो उसके गले लग गई।
कुछ ही महीनों बाद सुमित्रा को राज्य सरकार की तरफ से सम्मान मिला – “सशक्त महिला सम्मान”, जिसने अपनी पहचान खुद गढ़ी। स्टेज पर सुमित्रा को सम्मान देने के लिए बुलाया गया और मंच पर उसने जो कहा वो पूरे देश में गूंज गया – “मुझे आज गर्व है कि मैं मां हूं, पर किसी डॉक्टर की नहीं, किसी बेटे की नहीं। मैं उस सोच की मां हूं जो कहती है कि गरीबी में भी इज्जत होती है, और मेहनत कभी शर्म की बात नहीं होती। अब मैं किसी की मां नहीं, अब मैं खुद की पहचान हूं।”
मंच के नीचे विवेक खड़ा था, तालियां बजा रहा था और रो रहा था। कुछ हफ्तों बाद अस्पताल में एक नई बोर्ड लगी – “डॉ विवेक श्रीवास्तव, रिक्शा वाली मां का बेटा।” अब कोई पूछता – “क्या यह वही हैं जिनकी मां रिक्शा चलाती थी?” तो जवाब आता – “हां, और अब वही डॉक्टर उन्हें मुफ्त इलाज देते हैं जिनकी मांओं को कोई नहीं पहचानता।”
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। अब सुमित्रा उन बच्चों के लिए एक कोचिंग चला रही है जिनके पास मां है, पर सपनों के लिए साधन नहीं। वो हर बच्चे को सिखाती है – “बेटा, मां की मेहनत को कभी छोटा मत समझना। उसके पैर फटे हो, हाथ थके हो, या चेहरा झुलसा हो – वो जहां से भी हो, उसकी ममता ही तेरा सबसे बड़ा हथियार है।” और हर क्लास के आखिर में दीवार पर लिखे शब्दों की ओर इशारा करती – “जिसे मां कहने में शर्म आए, वो बेटा किस काम का?”
“रिक्शा वाली मां – मेहनत की सवारी, इज्ज़त की पहचान”
यह कहानी हमें सिखाती है कि मेहनत कभी शर्म की बात नहीं होती, और मां की ममता दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। जो अपनी मां की पहचान से शर्माए, वो अमीरी का क्या करेगा?
ऐसी मांओं को सलाम!
समाप्त
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