पति रोज़ सुबह घर से निकलता था, पत्नी ने जब पीछा किया, जो देखा, पैरों तले ज़मीन खिसक गई!

ठंडी रोटियों की गर्माहट
कभी-कभी सबसे बड़ा सच उन्हीं चेहरों के पीछे छिपा होता है, जो सबसे शांत दिखाई देते हैं। दिल्ली की पुरानी गलियों में हर सुबह एक आदमी सन्नाटे में निकल जाता था। हाथ में टिफिन, होठों पर खामोशी और आंखों में कोई गहरा राज। किसी को नहीं पता था कि अरुण मेहरा हर रोज ठंडी रोटियां क्यों खाता है। और जब एक दिन उसकी पत्नी मीरा ने उसका पीछा किया, तो जो उसने देखा, उसने उसके विश्वास, उसके प्यार सब कुछ हिला कर रख दिया।
दिल्ली के पुरानी सब्जी मंडी इलाके में अरुण मेहरा नाम का एक साधारण सा आदमी अपनी पत्नी मीरा और सात साल की बेटी राधिका के साथ रहता था। बाहर से यह परिवार आम था। सुबह बेटी स्कूल जाती, मीरा घर संभालती और अरुण अपने ऑफिस बिजली कंपनी में अकाउंटेंट का काम करने निकल जाता। लेकिन इस आम दिनचर्या में एक अनोखी आदत छिपी थी — अरुण की ठंडी रोटियों वाली आदत।
हर सुबह जब मोहल्ले में सिर्फ दूध वाले की साइकिल की घंटी गूंजती थी, अरुण चुपचाप उठता। वह बड़ी सावधानी से पंखे का स्विच भी नहीं ऑन करता ताकि मीरा की नींद ना टूटे। धीरे से रसोई में जाता, हाथ मुंह धोता और टिफिन बॉक्स निकालता। उसमें दो-तीन ठंडी रोटियां और पिछली रात की सब्जी डालता। रसोई के कोने में रखी उस टोकरी से जब वह ठंडी रोटियां उठाता, तो उसकी आंखों में अजीब सी शांति होती — ना कोई शिकायत, ना कोई थकान, बस एक गहरी सुकून भरी संतुष्टि, जैसे कोई मिशन पूरा कर रहा हो।
मीरा शुरू में समझ नहीं पाई। वह बिस्तर पर लेटी रहती, पर आंखें खुली होतीं। वह सब देखती — उसका पति बिना कुछ बोले रोटियां खा रहा है और फिर जल्दी-जल्दी ऑफिस निकल जाता है। शुरुआत में उसने सोचा, शायद उसे जल्दी ऑफिस जाना होता होगा। पर बात यहीं खत्म नहीं हुई। धीरे-धीरे उसे यह रोज की आदत बनती दिखी। हर दिन वही ठंडी रोटियां, वही जल्दी निकलना, वही चुप्पी।
एक दिन मीरा ने पूछा, “अरुण, ठंडी रोटियां क्यों खाते हो? गरम बनाऊं?”
अरुण ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “नहीं मीरा, वैसे ही ठीक है। ठंडी रोटियां पेट में आराम से उतरती हैं।” उसने मजाक में टाल दिया। लेकिन मीरा का दिल बेचैन हो गया। वह सोचने लगी — जो आदमी हमेशा गर्म पराठों के बिना नहीं मानता था, वह अब यह बेसवाद रोटियां कैसे खा रहा है?
कुछ दिनों बाद जब राधिका ने नए जूतों की जिद की, अरुण ने कहा, “अगले महीने ले लेंगे बिटिया। अभी पुराना वाला ठीक है।” मीरा ने नया पर्दा खरीदने की बात की, तो अरुण बोला, “फिलहाल जरूरत नहीं, पुराने भी ठीक हैं।” धीरे-धीरे घर में बचत बढ़ने लगी। पर यह बचत किसी खुशी की नहीं थी, क्योंकि अब मीरा के दिल में शक का बीज अंकुरित हो चुका था।
वह सोचने लगी — कहीं वह किसी और पर पैसा तो नहीं खर्च कर रहा? पड़ोस की औरतें भी अपनी आदत से मजबूर थीं। “अरे भाभी, आजकल मर्द बड़े बदल गए हैं। जब बाहर कोई और आ जाती है, तो घर का खाना बेसवाद लगने लगता है।” मीरा ने हंसकर बात टाल दी, लेकिन अंदर आग लग चुकी थी। वह हर दिन अरुण को और गहराई से देखने लगी। कभी उसके टिफिन में झांक दी — बस दो रोटियां और थोड़ी सब्जी, कोई खास चीज नहीं। पर कहीं ना कहीं कोई राज था, जो खुल नहीं पा रहा था।
एक रात मीरा ने तय कर लिया — अब जो भी हो, मैं पता लगाकर रहूंगी कि मेरा पति क्या छिपा रहा है। अगली सुबह जब अरुण हमेशा की तरह तैयार हुआ, तो मीरा भी चुपके से उसके पीछे चल पड़ी। उसने सिर पर दुपट्टा ओढ़ा और थोड़ी दूरी बनाकर उसके कदमों के निशान पकड़ लिए। दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। वह सोच रही थी — अगर मेरा शक सच हुआ, तो… अगर कोई औरत है, तो… उसका गला सूख रहा था, लेकिन दिल कह रहा था — सच पता लगाना जरूरी है, चाहे जो भी हो।
अरुण पैदल चलता रहा, मीरा उसके पीछे। वह फैक्ट्री की तरफ जाने वाली बस स्टॉप पर पहुंचा, लेकिन फैक्ट्री जाने वाली बस में नहीं चढ़ा। इसके बजाय उसने एक दूसरी बस पकड़ी, जो जाती थी पुराने कश्मीरी गेट इलाके की तरफ। मीरा का शक और गहरा हो गया। उसने ऑटो लिया और कहा, “भैया, उस बस के पीछे रहना।” थोड़ा दूरी से उसके हाथ पसीने से भीग रहे थे और आंखें बस अरुण पर टिकी थीं।
बस जब रुकी, तो अरुण उतरा और पुराने चर्च की तरफ चला गया। वह चर्च के पीछे की तरफ एक सुनसान जगह की ओर मुड़ गया। मीरा का दिल धक से रह गया। क्या वह किसी और औरत से मिलने जा रहा है या फिर किसी गलत काम में? वह धीरे-धीरे पीछा करती रही। चर्च के पिछवाड़े में एक बड़ा सा पीपल का पेड़ था। वहीं अरुण ने अपना बैग नीचे रखा और झुककर ताले से कुछ खोला।
मीरा ने देखा — अरुण ने बैग से एक छोटा गैस स्टोव, एक तवा और एक बड़ा बर्तन निकाला। उसने पानी भरा, आटा गूंथा और तवा चढ़ाया। मीरा की आंखें चौड़ी रह गईं — ये क्या कर रहा है? यहां खाना बना रहा है!
थोड़ी देर में कुछ गरीब और बेसहारा लोग पास आने लगे। एक बूढ़ा आदमी, जो ठंड से कांप रहा था, एक औरत जिसके गोद में बच्चा था, एक अधेड़ व्यक्ति जिसकी आंखों में शर्म थी। अरुण ने मुस्कुराकर उन्हें बुलाया — “आओ, खाना तैयार है।” वह रोटियां सेंक रहा था और साथ-साथ उन लोगों से बातें भी कर रहा था। हर किसी को दो रोटियां और सब्जी देता, पानी पिलाता और जब कोई धन्यवाद कहता, तो कहता — “भगवान का शुक्रिया करो, मेरा नहीं।”
मीरा का शरीर कांपने लगा। आंखों से आंसू निकल पड़े। वह जिस आदमी पर शक कर रही थी, वह तो रोज भूखों को खाना खिला रहा था। उसे अब समझ आया — इसलिए वह ठंडी रोटियां खाता था, ताकि सुबह वह गर्म रोटियां दूसरों के लिए बना सके। इसलिए वह पैसे बचा रहा था, ताकि हर रोज कुछ गरीबों का पेट भर सके। वह सोचने लगी — मैंने कितनी बार उसे ताना मारा और वह हर बार मुस्कुराता रहा।
मीरा वहीं खंभे के पीछे खड़ी रही, पछतावे और गर्व के बीच झूलती हुई। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी। अचानक दो गुंडे आए — “ए ओ, यहां बैठकर रोटियां सेक रहा है? इलाका हमारा है। हफ्ता देगा या दुकान समेट?” अरुण ने हाथ जोड़कर कहा, “भाई, यह सेवा है, धंधा नहीं। गरीबों को खाना खिलाता हूं।” गुंडों ने हंसी उड़ाई — “हमको कहानी मत सुना, हफ्ता निकाल।”
उनमें से एक ने आटा लात मारने के लिए पैर उठाया, और तभी एक तेज, दृढ़ आवाज आई — “रुको!” आवाज मीरा की थी। वह खंभे के पीछे से बाहर आई, चेहरे पर दृढ़ता थी, आंखों में आग। गुंडे हैरान रह गए — “कौन है तू?”
मीरा ने आगे बढ़कर कहा, “यह जगह किसी का इलाका नहीं, यह इंसानियत का मंदिर है। जो इस आदमी को छुएगा, उसे इन सबके श्राप से मुक्ति नहीं मिलेगी।” भीड़ जमा होने लगी। वह बूढ़ा आदमी, जिसे अरुण रोज खाना खिलाता था, लाठी टेकते हुए बोला — “यह हमारा फरिश्ता है। इसे हाथ लगाया, तो भगवान भी तुम्हें माफ नहीं करेगा।” आसपास के दुकानदार भी आगे आए — “हां भाई, यह रोज गरीबों को खिलाता है। अगर इसे तंग किया, तो अबकी बार पुलिस नहीं, हम संभालेंगे।”
गुंडों ने इधर-उधर देखा। माहौल अब उनके खिलाफ था। एक दूसरे को देखा और बड़बड़ाते हुए बोले, “ठीक है, आज के लिए छोड़ते हैं। देख लेंगे बाद में।” और भाग गए।
मीरा ने राहत की सांस ली। अरुण ने उसे देखकर कहा, “तुम यहां कैसे?”
मीरा की आंखों में आंसू थे। “अब तुम्हारे साथ हूं, हमेशा के लिए। आज से हर सुबह मैं भी तुम्हारे साथ रोटियां सिंघूंगी।” उसने तवा संभाला और उसी जगह बैठ गई। दोनों एक साथ रोटियां बनाने लगे और वह दृश्य जिसे देखने वालों की आंखें नम हो गईं।
धीरे-धीरे मोहल्ले के लोग भी जुड़ने लगे। कोई सब्जी लाया, कोई दूध, और वह छोटा सा कोना बन गया — ‘अरुण सेवा केंद्र’। अब हर सुबह वहां सिर्फ रोटियां नहीं बनती थीं, बल्कि इंसानियत की खुशबू उठती थी।
जब अरुण के बॉस श्री अग्रवाल को इस काम का पता चला, तो उन्होंने अरुण की तनख्वाह बढ़ा दी और कहा — “तुम ऑफिस एक घंटा देर से आओ, लेकिन यह काम मत छोड़ना।” धीरे-धीरे चर्च के पीछे का वह इलाका गरीबों के लिए एक नई उम्मीद बन गया।
मीरा अब खुद सुबह जल्दी उठती, रोटियां बेलती और बेटी राधिका को भी सिखाती — “बेटा, भगवान मंदिर में नहीं, भूखों की थाली में रहते हैं।”
हर शाम, जब दिन ढलता, अरुण और मीरा उसी तख्ते पर बैठते, चाय पीते हुए मुस्कुराते। बिना कुछ बोले, क्योंकि अब उनके बीच ना कोई शक था, ना कोई दूरी। बस एक सुकून — जो ठंडी रोटियों की गर्माहट से भी ज्यादा प्यारा था।
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