एक अनजान मुसाफिर की कहानी

दोस्तों, कभी-कभी जिंदगी हमें ऐसे मोड़ पर ले आती है जहां मदद करना इंसानियत नहीं, बल्कि इम्तिहान बन जाता है। किसी अनजान के लिए बहाए आंसू कभी हमारी तकदीर का सबसे बड़ा मोड़ बन जाते हैं। यह कहानी एक ऐसे लड़के अशोक कुमार की है, जो अपने सपनों को लेकर मुंबई आया था, लेकिन किस्मत ने उसे एक कठिनाई में डाल दिया।

मुंबई की भीगी सड़कों पर अशोक बैठा था, बिल्कुल चुप और टूटा हुआ। उसके पास सिर्फ एक प्लास्टिक की थैली थी, जिसमें एक जोड़ी कपड़े, एक पुरानी डायरी और कुछ पैसे थे। उसे अभी-अभी एक जूते की दुकान से निकाला गया था क्योंकि उसे कहा गया था कि वह कस्टमर से बात करना नहीं जानता। उसकी आंखों में आंसू नहीं थे, क्योंकि वह इतना टूट चुका था कि अब रोने की भी हिम्मत नहीं बची थी।

तभी उस वीरान सड़क पर अचानक एक तेज चीख गूंजी, “बचाओ! कोई है क्या? मुझे अस्पताल ले चलो!” यह आवाज सुनकर अशोक की आंखें खुल गईं। उसकी रगों में इंसानियत दौड़ पड़ी। वह बिना सोचे-समझे वहां दौड़ा। वहां एक महिला खड़ी थी, जो खून से सनी थी और उसकी आंखों में मौत का डर था। वह कांपती हुई आवाज में सिर्फ यही कह रही थी, “कृपया कोई मेरी जान बचा लो।”

अशोक ने अपने घुटनों के बल जाकर उसके घाव पर रुमाल बांधा, उसे कंधे पर उठाया और एक ऑटो रुकवाया। ऑटो वाले ने कहा, “भाई, यह तो पुलिस केस लग रहा है। मैं नहीं जाऊंगा।” अशोक ने आंखों में आंसू लिए कहा, “अगर तेरी बहन होती तो भी तू ऐसा ही करता?” बिना सोचे-समझे, उसने महिला को गोद में उठाकर ऑटो में बैठा लिया।

ऑटो अस्पताल की ओर भागा। रास्ते भर महिला की आंखें बार-बार बंद हो रही थीं, और अशोक हर बार कहता, “आंखें बंद मत करना, मैडम। तुम ठीक हो जाओगी। हिम्मत रखो।” जब वे अस्पताल पहुंचे, तो डॉक्टरों को चिल्ला कर बुलाया। अशोक ने कहा, “इमरजेंसी है! खून बहुत बह गया है। जल्दी कीजिए!”

डॉक्टरों ने उसे इमरजेंसी वार्ड में ले जाया। अशोक वहीं बेंच पर बैठा, भीगा हुआ और डर के मारे कांपता हुआ। लेकिन उसे संतोष था कि उसने किसी की जिंदगी बचाने की कोशिश की है। डॉक्टर बाहर आए और कहा, “अगर एक मिनट भी देर होती, तो शायद जान नहीं बचती। सिर में गहरा घाव है और एक पैर भी टूट चुका है।”

अशोक की राहत की सांस थी, लेकिन जब उसे दवाइयों की लिस्ट दी गई, तो उसने अपनी जेब से सारे पैसे निकालकर खर्च कर दिए। उस रात अस्पताल की वेटिंग चेयर पर बैठा वह लड़का, जिसके पास खुद रहने की जगह नहीं थी, किसी अजनबी की देखभाल कर रहा था। तीन घंटे बाद, महिला को सामान्य वार्ड में शिफ्ट किया गया।

जब उसकी आंखें खुलीं, तो उसने सामने वही चेहरा देखा, जो उसे गोद में लेकर आया था। “तुम कौन हो?” उसकी आवाज बेहद धीमी थी। अशोक ने कहा, “मैं कुछ नहीं, बस एक राहगीर जो वक्त पर आपके पास पहुंच गया।” महिला की आंखों से एक आंसू गिर पड़ा। “तुमने मेरी जान बचाई है,” उसने कहा।

अशोक ने सिर झुका कर कहा, “जान बचाना मेरा फर्ज था। अब देखभाल करना भी। आप अकेली तो नहीं ना?” महिला ने चुप होकर कहा, “मेरा कोई नहीं है इस शहर में। पति लंदन में है। उनसे भी संपर्क नहीं हो पा रहा। अगर तुम सुबह तक रुक जाओ तो…?” अशोक ने सिर हिलाया।

उस रात, जब महिला सोई, तो शायद पहली बार किसी अजनबी के सामने एक अनदेखा रिश्ता चुपचाप जन्म ले चुका था। सुबह की पहली किरण खिड़की से झांक रही थी। संगीता, वह महिला, ने खुद को पट्टियों में जकड़ा पाया। जब उसने देखा कि कोई उसके पास बैठा है, तो उसने कहा, “तुमने मुझे क्यों बचाया?”

अशोक ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, “आपकी चीख सुनकर कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिला। बस इतना लगा कि अगर उस वक्त मैं ना पहुंचता, तो खुद को जिंदगी भर माफ नहीं कर पाता।” संगीता ने उसे देखा, उसकी आंखों में कई सवाल थे।

अशोक ने उसकी मदद की, उसे कपड़े पहनाने में मदद की। धीरे-धीरे, दो दिन बीत गए। अशोक अस्पताल के हर कोने से परिचित हो गया। संगीता अब उसे देखने लगी थी उस नजर से जिससे कोई किसी करीबी को देखता है। तीसरे दिन डॉक्टर ने कहा, “अब आप मरीज को डिस्चार्ज कर सकते हैं।”

अशोक ने संगीता को व्हीलचेयर में बिठाया और घर ले गया। जब संगीता ने अपने घर का दरवाजा खोला, तो अशोक की आंखें खुली की खुली रह गईं। “मैडम, यह आपका घर है?” संगीता ने धीमे से कहा, “हां, पर अब इसमें कोई नहीं रहता। सिर्फ मैं।”

संगीता ने फोन पर अपने पति विनय से बात की। विनय ने कहा, “मैं आ रहा हूं रूपा। दो दिन में तुम्हारे पास पहुंचूंगा। बस तुम ठीक रहो।” संगीता ने अशोक से कहा, “क्या तुम दो दिन और मेरे साथ रह सकते हो?”

अशोक ने कहा, “जब तक आपके अपने लोग नहीं आते, तब तक मैं आपके साथ हूं।” अगले कुछ दिन, अशोक ने संगीता की देखभाल की। संगीता ने धीरे-धीरे अशोक को महसूस करना शुरू किया।

तीसरे दिन, जब दरवाजे की घंटी बजी, तो अशोक ने दरवाजा खोला। सामने विनय खड़ा था। संगीता ने उसे देखकर फूट-फूट कर रो पड़ी। उसने पूरी घटना की कहानी सुनाई। विनय ने अशोक को धन्यवाद दिया।

लेकिन अशोक के अंदर कुछ उथल-पुथल थी। उसने संगीता से कहा, “जिस दिन आपका एक्सीडेंट हुआ था, उसी दिन मैंने विनय सर को देखा था।” संगीता को विश्वास नहीं हुआ।

अशोक ने कहा, “मैंने उस दिन आपकी चीख सुनी थी और भाग कर गया। उस भीड़ में दूर एक चेहरा देखा। वही चेहरा जो आज दरवाजे पर खड़ा था।” संगीता की सांसे भारी हो गईं।

संगीता ने पुलिस में केस दर्ज कराने का फैसला किया। अशोक ने उसकी मदद की। पुलिस की जांच के बाद, विनय ने कबूल किया कि उसने संगीता को मारने की कोशिश की थी।

कोर्ट का फैसला हो चुका था। विनय और उसका साथी अब सलाखों के पीछे थे। संगीता ने अशोक की ओर देखा और कहा, “तुमने मुझे टूटने से नहीं बचाया, बल्कि मुझे फिर से जीना सिखाया।”

अशोक ने कहा, “मैंने बस अपना फर्ज निभाया।” संगीता अब ठीक हो चुकी थी। वह एनजीओ चलाने लगी, जिसका नाम “दोबारा जिंदगी” था।

दोस्तों, कभी-कभी एक अनजान मुसाफिर जिंदगी का सबसे सच्चा हमसफर बन जाता है। इस कहानी में इंसानियत जीत गई और खुदगरजी हार गई। अगर आपके साथ ऐसा होता, तो क्या आप उस अजनबी इंसान को जीवन साथी बना पाते? क्या भरोसा एक बार टूटने के बाद कभी दोबारा जुड़ सकता है? कमेंट में जरूर बताएं।

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