एक पुकार जिसने ज़िंदगी बदल दी
मुंबई की सर्द सुबह थी। दिसंबर का महीना, सूरज की किरणें धुंध को चीरते हुए शहर की इमारतों पर पड़ रही थीं। सड़कें हमेशा की तरह भागदौड़ से भरी हुई थीं, लेकिन उस भीड़ में भी एक शख्स था जो अंदर से बिल्कुल खाली था — राजेश शर्मा।
राजेश शहर के नामी आईटी उद्योगपति थे। करोड़ों की कंपनी, सैकड़ों कर्मचारी, और ऐसा जीवन जो देखने वालों को सफलता का प्रतीक लगता था। मगर तीन साल पहले, पत्नी सीता के गुजर जाने के बाद, सफलता उनके लिए अर्थहीन हो गई थी।
दिन उनके लिए अब एक गणना बन गया था — सुबह 5 बजे उठना, रिपोर्ट्स देखना, मीटिंग्स में डूब जाना। घर की खामोशी में सिर्फ़ सीता की यादें गूंजती थीं।
एक दिन, विदेशी निवेशकों से हुई एक बड़ी डील के बाद भी राजेश के चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी। वह कुलाबा के इलाके से गुजर रहे थे, जब भीड़भाड़ के बीच उन्हें एक हल्की सी आवाज सुनाई दी — रोने की।
मुंबई की गलियों में दुख की आवाजें अनगिनत थीं, पर यह कुछ और थी — एक ऐसी पुकार जो आत्मा को हिला दे।
राजेश ठिठक गए। आवाज एक संकरी गली से आ रही थी। दीवारों पर छिली हुई पपड़ी, बदबूदार हवा और अंत में — एक नन्ही बच्ची।
महज़ आठ साल की, नंगे पैर, फटे कपड़े पहने, आंखों में आंसू। उसके पास ज़मीन पर पड़ी थी एक छोटी बच्ची — दो साल की — बेजान सी, जैसे नींद में खोई कोई गुड़िया।
राजेश के कदम थम गए।
लड़की ने सिर उठाया, आंखें आंसुओं से भरी, होंठ सूखे —
“अंकल, क्या आप मेरी छोटी बहन को दफना देंगे? वो अब नहीं जागेगी। मेरे पास पैसे नहीं हैं, लेकिन बड़ा होकर लौटा दूंगी।”
राजेश की सांस अटक गई।
उस मासूम की आवाज़ ने उनके दिल का कवच तोड़ दिया।
वह झुके, बच्ची की नब्ज़ टटोली — ठंडी, पर बहुत हल्की धड़कन!
“वो ज़िंदा है!”
राजेश की आवाज़ कांप उठी। लड़की की आंखें फैल गईं —
“सच?”
“हां, हम उसे अस्पताल ले जा रहे हैं।”
उन्होंने तुरंत डॉक्टर पाटिल को फोन किया — “आईसीयू तैयार रखिए, मैं आ रहा हूं।”
फिर उन्होंने बच्ची को गोद में उठाया। लड़की, जिसका नाम बाद में पता चला अंजलि, उनके पीछे दौड़ी — फटे बैग में अपना सबकुछ लेकर।
मुंबई की ट्रैफिक में सायरन बजाते हुए राजेश की कार लीलावती अस्पताल पहुंची।
डॉक्टरों ने छोटी बच्ची, रिया, को तुरंत आईसीयू में ले लिया। हाइपोथर्मिया और कुपोषण की हालत में थी।
अंजलि को वेटिंग रूम में बैठाया गया। वह चुपचाप घुटनों को सीने से लगाए बैठी रही।
राजेश ने पूछा —
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“अंजलि… और वो रिया है। मेरी बहन।”
दो घंटे बाद डॉक्टर लौटे — “खतरा टल गया है, बच्ची अब स्थिर है।”
राजेश ने राहत की सांस ली। अंजलि के आंसू थम नहीं रहे थे।
“धन्यवाद, अंकल… आपने उसे बचा लिया।”
धीरे-धीरे सब कुछ खुलने लगा।
अंजलि ने बताया कि उनके माता-पिता फैक्ट्री हादसे में मारे गए थे।
दादी कुछ महीने पहले चल बसीं। तब से दोनों बहनें सड़कों पर थीं।
राजेश सुनते रहे — हर शब्द जैसे चाकू बनकर सीने में उतर रहा था।
उनकी आंखों में फिर सीता की छवि उभर आई — वही बेबसी, वही दर्द।
राजेश ने कहा,
“अब से तुम अकेली नहीं हो। मैं हूं न।”
अंजलि ने उनकी ओर देखा, जैसे पहली बार किसी वयस्क पर भरोसा किया हो।
रात ढल चुकी थी।
राजेश अस्पताल के बाहर बेंच पर बैठे आसमान देख रहे थे।
कभी-कभी किस्मत ऐसे मिलन कराती है जो किसी जीवन की दिशा बदल देते हैं।
उनके मन में विचार आया — शायद यही मेरा प्रायश्चित है।
लेकिन किस्मत इतनी आसान नहीं होती।
अगले दिन एक सोशल वर्कर, मीरा सिंह, अस्पताल पहुंची।
“शर्मा जी, आप ही इन बच्चियों को लाए हैं?”
“जी, मैंने इन्हें सड़क पर पाया था।”
“आप उनका रिश्तेदार हैं?”
“नहीं… लेकिन अब वे मेरी जिम्मेदारी हैं।”
मीरा ने सख्ती से कहा,
“कानून के अनुसार कोई भी अजनबी सीधे बच्चे की अभिभावकता नहीं ले सकता। जांच होगी, कोर्ट निर्णय देगा।”
राजेश ने कुछ नहीं कहा, बस अंजलि का कांपता हाथ थामा।
उसकी आंखों में डर था — कहीं फिर से सब छिन न जाए।
अगले दिन परिवार न्यायालय में सुनवाई हुई।
कोर्ट का कमरा भरा हुआ था। मजिस्ट्रेट ने कहा —
“हम यहां अंजलि और रिया की स्थिति का मूल्यांकन करने आए हैं।”
प्रोसीक्यूटर ने कहा,
“कई परिवार कानूनी रूप से गोद लेने की प्रतीक्षा में हैं। शर्मा जी उद्योगपति हैं, पर नियम सबके लिए समान हैं।”
राजेश मौन रहे, फिर उठे।
“महोदय, यह नियम नहीं, ज़िंदगियां हैं। मैंने इन बच्चियों को सड़क से उठाया। अगर मैं रुकता, तो आज रिया मर चुकी होती। क्या दया दिखाना अब अपराध है?”
कमरे में सन्नाटा छा गया।
मजिस्ट्रेट ने अंजलि की ओर देखा।
“बेटी, तुम क्या चाहती हो?”
अंजलि की आंखों में आंसू थे, लेकिन आवाज़ दृढ़ —
“मैं इनके साथ रहना चाहती हूं। इन्होंने मेरी बहन को मरने नहीं दिया। मुझे भी नहीं छोड़ा।”
राजेश ने सिर झुका लिया।
मजिस्ट्रेट ने फाइल बंद की, चश्मा उतारा और बोले —
“कोर्ट भावनात्मक बंधन को मान्यता देता है।
अंजलि और रिया की तत्कालिक अभिरक्षा राजेश शर्मा को प्रदान की जाती है।”
अंजलि दौड़कर राजेश के गले लग गई।
वो पल किसी वरदान से कम नहीं था।
राजेश की आंखों से वर्षों बाद आंसू बह निकले — सीता, देखो, हमारा घर फिर से बस गया।
उस शाम जब वे घर लौटे, बंगले का दरवाजा जैसे पहली बार खुला था।
अंदर का सन्नाटा अब किसी गीत जैसा लग रहा था।
राधा, नौकरानी, मुस्कुराई — “बेटी, दूध लो।”
रिया ने संकोच से गिलास थामा।
अंजलि ने फुसफुसाया —
“अंकल, यह आपका घर है?”
राजेश ने मुस्कराकर कहा —
“अब हमारा घर है।”
दोनों लड़कियों को ऊपर का कमरा दिखाया गया — खिड़की से समुद्र का नज़ारा, नीले परदे, दो छोटे बिस्तर।
अंजलि ने बिस्तर पर हाथ फेरा —
“हम तो सड़क पर सोते थे… अब यह सपना है।”
राजेश ने उसके सिर पर हाथ रखा —
“अब कोई रात ठंडी नहीं होगी।”
रात को तीनों ने साथ खाना खाया।
रिया ने पहली बार मुस्कुराकर कहा —
“अंकल, खाना बहुत अच्छा है।”
राजेश के गले में शब्द अटक गए। वर्षों बाद डाइनिंग टेबल पर फिर हंसी गूंजी।
धीरे-धीरे दिन गुजरते गए।
राजेश अब सुबह रिपोर्ट्स नहीं, नाश्ता बनाते।
अंजलि स्कूल जाने लगी, रिया प्रीस्कूल।
घर में बच्चों की हंसी लौट आई थी।
दीवारों पर पेंटिंग्स, खिलौनों की आवाजें और हवा में जैसमिन की खुशबू —
वह बंगला अब घर बन चुका था।
एक शाम बारिश हो रही थी।
अंजलि ने खिड़की से बाहर देखा और कहा —
“अब बारिश डरावनी नहीं लगती।”
राजेश मुस्कुरा दिए —
“क्योंकि अब हमारे पास छत है… परिवार है।”
कुछ महीनों बाद अदालत ने अंतिम आदेश दिया —
“अंजलि और रिया को स्थायी रूप से गोद लेने की अनुमति दी जाती है।”
राजेश ने सिर झुकाया।
रिया ने उनकी गोद में सिर रखा, अंजलि ने हाथ थामा।
सीता की तस्वीर के सामने दिया जलाते हुए उन्होंने फुसफुसाया —
“अब हमारा परिवार पूरा है।”
बाहर मुंबई की रात चमक रही थी।
लेकिन राजेश के भीतर जो उजाला था, वह किसी शहर से बड़ा था।
एक रोती बच्ची की पुकार ने उनकी ज़िंदगी का अर्थ बदल दिया था।
✨ संदेश
यह कहानी हमें सिखाती है कि
सच्ची सफलता करोड़ों के सौदों में नहीं, बल्कि किसी टूटे दिल को नया जीवन देने में होती है।
जब हम किसी की ज़िंदगी में उम्मीद जगाते हैं, तो असल में अपनी अधूरी ज़िंदगी पूरी करते हैं।
हर अंधेरे के बाद एक नई शुरुआत संभव है —
बस किसी एक दया भरे कदम की देर है।
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