अमीर औरत ने कुचली गरीब बेवा की इज़्ज़त, अब मिलेगा कर्मों का फल!

कीचड़ में कमल – रामपुर की सुधा की कहानी
भूमिका
कहा जाता है कि गरीबी इंसान का सब्र परखती है, लेकिन अमीरी उसकी नियत को नंगा कर देती है। जब दौलत का नशा सिर पर चढ़ जाता है, तो इंसान यह भूल जाता है कि जिस मिट्टी को वह आज अपने पैरों तले रौंद रहा है, कल उसी मिट्टी में उसे मिल जाना है। रामपुर गांव की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी, जहां अहंकार और आत्मसम्मान की जंग ने पूरे समाज की सोच बदल दी।
सुधा – संघर्ष की मिसाल
सुधा एक बेवा औरत थी। पति के गुजर जाने के बाद उसने अपनी सुई और धागे को ही अपनी ढाल बना लिया था। उसके हाथों में गजब का हुनर था। जब वह कपड़े पर ज़री का काम करती, तो लगता जैसे सुनहरे धागे खुद-ब-खुद कोई कहानी बुन रहे हों। उसका एक ही सपना था – अपने 10 साल के बेटे मुन्ना को पढ़ा-लिखाकर इतना काबिल बनाना कि उसे कभी किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े।
मुन्ना सरकारी स्कूल में पढ़ता था। उसकी सालाना फीस भरने का समय आ चुका था। सुधा जानती थी कि अगर अगले दो दिनों में पैसे नहीं भरे गए, तो मुन्ना का नाम स्कूल से काट दिया जाएगा। इसी उम्मीद के सहारे सुधा ने पिछले दो महीनों से अपनी आंखों की रोशनी को दांव पर लगाकर एक बेहद कीमती दुपट्टा तैयार किया था। यह दुपट्टा गांव की सबसे अमीर और रसूखदार महिला विमला सेठानी के लिए था।
विमला सेठानी – अमीरी का घमंड
विमला सेठानी, जिनके पति शहर में बड़े ठेकेदार थे, अपने घमंड के लिए पूरे इलाके में मशहूर थीं। उनके लिए गरीब का मतलब सिर्फ काम करने वाली मशीन था, जिसमें ना तो भावनाएं होती हैं, ना ही इज्जत। उस दिन आसमान में काले बादल छाए हुए थे। मानो कुदरत भी किसी अनहोनी का इशारा कर रही हो।
सुधा ने उस कीमती दुपट्टे को एक पुराने अखबार और प्लास्टिक में लपेटा, ताकि बारिश की एक भी बूंद उस पर ना गिर सके। वह दुपट्टा उसकी मेहनत नहीं बल्कि मुन्ना का भविष्य था। कीचड़ भरे रास्तों से बचती-बचाती वह विमला सेठानी की आलीशान हवेली के सामने पहुंची।
अपमान की बारिश
हवेली के बड़े लोहे के गेट के अंदर कदम रखते ही सुधा को अपनी गरीबी का एहसास हुआ। संगमरमर का फर्श चमक रहा था। विमला सेठानी अपने ऊंचे बरामदे में बैठी चाय की चुस्कियां ले रही थीं। सुधा ने डरते-डरते अपनी चप्पलें बाहर उतारीं और सिर झुकाकर बरामदे की सीढ़ियों के पास खड़ी हो गई।
“आ गई? इतना वक्त लगता है क्या?” विमला ने बिना देखे कड़वाहट से कहा।
सुधा ने कांपते हाथों से पैकेट खोला। सुनहरी ज़री का काम सूरज की रोशनी में जगमगा उठा। वह काम इतना बारीक था कि शहर के बड़े-बड़े कारीगर भी हार मान जाएं।
“सेठानी जी, यह रहा आपका दुपट्टा। मैंने इसमें अपनी जान लगा दी है।”
विमला ने कप में बची चाय को एक तरफ रखा और दुपट्टे को ऐसे उठाया जैसे वह कोई गंदा कपड़ा हो। उसने उसे उलट-पुलट कर देखा। काम में कोई कमी नहीं थी। लेकिन विमला की आदत थी सामने वाले को नीचा दिखाना।
“छी! इसमें तो तुम्हारे उस सीलन भरे घर की बदबू आ रही है। इसे मेरी बेटी अपनी शादी में पहनेगी, मेरा स्टेटस ही खराब हो जाएगा।”
सुधा का दिल धक से रह गया। “नहीं सरकार, मैंने इसे बहुत संभाल कर रखा था। यह तो एकदम नया है।”
“चुप कर!” विमला चिल्लाई। “जुबान लड़ाती है? दो टके की कामचोर औरतें! कामधाम कुछ आता नहीं, बस पैसे एंठने आ जाती हैं।”
कहते हुए विमला ने वह बेशकीमती दुपट्टा सुधा के मुंह पर दे मारा। दुपट्टा सुधा के कंधे से फिसलता हुआ नीचे कीचड़ भरे पायदान पर जा गिरा।
ममता बनाम आत्मसम्मान
सुधा की आंखों में आंसू आ गए। वह दुपट्टा सिर्फ कपड़ा नहीं, उसकी दो महीने की रोटी और बेटे की फीस थी। उसने झुककर दुपट्टा उठाने की कोशिश की, लेकिन विमला ने अपनी सैंडल उस दुपट्टे पर रख दी।
“पैसे चाहिए ना तुझे? पहले मेरे जूतों की यह गंदगी साफ कर, फिर सोचूंगी कि तुझे कुछ देना है या नहीं।”
वहां खड़े नौकर भी अपनी मालकिन के डर से सिर झुकाए खड़े रहे। सुधा के लिए यह सिर्फ अपमान नहीं था, यह उसकी रूह पर एक गहरा घाव था। सुधा की आंखों के सामने अंधेरा छा गया। आत्मसम्मान ने उसे वहां से चले जाने को कहा, लेकिन ममता ने उसके पैर जकड़ लिए। बेटे की स्कूल फीस की तारीख कल थी। अगर आज खाली हाथ लौटी तो मुन्ना का साल बर्बाद हो जाएगा।
उसने अपने स्वाभिमान का घूंट पीकर कांपती आवाज में कहा, “सेठानी जी, आप जो कहेंगी मैं करूंगी। बस मुझे मेरी मेहनत के पैसे दे दीजिए। मुन्ना की स्कूल फीस भरनी है वरना उसे निकाल दिया जाएगा। भगवान के लिए मुझ पर दया कीजिए।”
विमला ने पैर हटाते हुए उस कीचड़ सने दुपट्टे को ठोकर मारी और वह सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ नीचे गीली मिट्टी में जा गिरा।
“दया तुम जैसे लोग दया के नहीं धक्के के लायक हो। काम बिगाड़ दिया और ऊपर से पैसे मांगती है। निकल यहां से। अगर दोबारा मेरी हवेली के आसपास भी दिखाई दी तो पुलिस को बुलाकर चोरी के इल्जाम में जेल भिजवा दूंगी।”
संकल्प की आग
सुधा अब और कुछ नहीं कह सकी। उसने धीरे से नीचे जाकर उस गंदे हो चुके दुपट्टे को उठाया। वह अब किसी शाही शादी की शान नहीं बल्कि एक गरीब की बदकिस्मती का सबूत लग रहा था। हवेली के गेट से बाहर निकलते ही आसमान भी रो पड़ा। जोरों की बारिश शुरू हो गई। भीगती हुई सुधा जब अपने छोटे से घर पहुंची, तो शाम ढल चुकी थी।
घर के अंदर एक टूटी हुई लालटेन की रोशनी में मुन्ना अपनी किताब लिए बैठा था। मां को देखते ही वह दौड़ कर आया और उनसे लिपट गया।
“मां तुम भीग गई… और सेठानी जी ने पैसे दिए? कल मास्टर जी ने कहा था कि फीस नहीं लाए तो स्कूल मत आना।”
सुधा ने झूठ बोला – “हां बेटा, उन्होंने कहा है कि एक-दो दिन में भिजवा देंगी। तू चिंता मत कर। मैं बात कर लूंगी मास्टर जी से।”
मुन्ना को सुलाने के बाद सुधा ने उस गंदे दुपट्टे को पानी की बाल्टी में डाला। वह उसे रगड़-रगड़ कर धोने लगी। जैसे-जैसे कीचड़ निकल रहा था, वैसे-वैसे सुधा के अंदर कुछ बदल रहा था। उसने हमेशा सिर झुकाकर जीने की कोशिश की थी – यह सोचकर कि शायद दुनिया उसे जीने देगी। लेकिन आज उसे समझ आ गया था कि झुकने वालों को दुनिया सिर्फ पायदान समझती है।
कला में क्रांति
अगली सुबह सुधा ने अपनी आंखों के आंसू पोंछे और मुन्ना को स्कूल भेजा। उसने तय कर लिया था कि वह अब भीख नहीं मांगेगी, बल्कि अपना हक छीन कर लेगी। लेकिन वह यह लड़ाई शोर मचाकर या झगड़ा करके नहीं लड़ेगी। विमला सेठानी को उनके ही खेल में मात देनी होगी।
सुधा ने अपनी पुरानी संदूक से कुछ बचे-कुचे रंग-बिरंगे धागे निकाले। उसके दिमाग में एक विचार कौंधा था जो ना केवल उसकी किस्मत बदल सकता था, बल्कि विमला सेठानी के घमंड को भी चकनाचूर कर सकता था। उसने अपनी सुई उठाई – लेकिन इस बार डर के साथ नहीं, बल्कि एक योद्धा की तरह।
सुधा ने अगले 72 घंटे तक सुई हाथ से नहीं छोड़ी। उसकी उंगलियां सूज गई थी, आंखों में जलन थी। लेकिन अपमान की आग उसे रुकने नहीं दे रही थी। उसने तय किया कि वह उस दाग को छिपाएगी नहीं। जहां-जहां विमला के जूतों की गंदगी से दुपट्टे पर भूरे धब्बे पड़े थे, सुधा ने उन्हें मिटाने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय उसने अपनी कला का एक ऐसा नमूना पेश किया, जो शायद उसने अपने जीवन में पहले कभी नहीं बनाया था।
उसने उन भूरे धब्बों के ऊपर तांबे और गहरे सुनहरे रंग के धागों से काम करना शुरू किया। जहां दाग गहरा था, वहां उसने एक मजबूत पेड़ की जड़े और तना बना दिया। जहां छींटे बिखरे थे, वहां उसने झड़ते हुए सुनहरे पत्ते और उड़ती हुई चिड़िया बना दी। देखते ही देखते वह गंदा हो चुका कपड़ा एक जीवंत कहानी में बदल गया।
अब वह सिर्फ एक दुपट्टा नहीं था, बल्कि पतझड़ के बाद वसंत का एक जीता-जागता चित्र था। विमला ने जिसे कीचड़ समझा था, सुधा ने उसे कला की खाद बना दिया था।
हस्तशिल्प मेले में बदलाव की बयार
गांव में हर साल लगने वाले हस्तशिल्प मेले की तैयारी जोरों पर थी। इस बार यह मेला और भी खास था, क्योंकि शहर से जिलाधिकारी (डीएम) खुद इसका उद्घाटन करने आने वाले थे। विमला सेठानी जो गांव की सरपंच की पत्नी तो नहीं थी, लेकिन उनका रसूख सरपंच से भी ज्यादा था। वे मेले की मुख्य अतिथि बनने के सपने देख रही थीं।
मेले के दिन पूरा गांव सजा हुआ था। रंग-बिरंगे स्टॉल लगे थे। विमला सेठानी अपनी नई चमचमाती कार से उतरीं। उनके गले में भारी सोने का हार और बदन पर कीमती साड़ी थी। उनके चेहरे पर वही पुराना घमंड था।
वहीं मेले के एक कोने में, जहां भीड़ सबसे कम थी, सुधा एक पुरानी दरी बिछाकर बैठी थी। उसके पास कोई बड़ा स्टॉल या सजावट नहीं थी, सिर्फ एक बांस का डंडा था जिस पर उसने वह दुपट्टा टांग रखा था। हवा के झोंकों के साथ जब वह दुपट्टा लहराता, तो उस पर बना सुनहरी पेड़ सूरज की रोशनी में चमक उठता।
कला की पहचान – डीएम साहब का फैसला
ढोल-नगाड़ों की आवाज तेज हो गई। डीएम साहब का काफिला आ चुका था। विमला सेठानी तुरंत स्वागत के लिए आगे लपकीं। वे जानबूझकर बड़े और महंगे स्टॉलों की तरफ डीएम साहब को ले जा रही थीं। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
जैसे ही वे लोग मेले का चक्कर लगाकर वापस लौटने वाले थे, अचानक एक तेज हवा का झोंका आया। वह झोंका सुधा के उस दुपट्टे को उड़ाकर ले गया। दुपट्टा हवा में लहराता हुआ सीधा जाकर डीएम साहब और विमला सेठानी के पैरों के पास गिरा।
विमला ने जैसे ही वह दुपट्टा देखा, वह उसे पहचान गई। उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया। “यह फटेहाल औरत यहां भी आ गई?” विमला ने मन ही मन सोचा।
विमला ने दुपट्टे को अपने पैर से साइड किया – “माफ कीजिएगा सर, यहां कुछ भिखारी भी घुस आते हैं। सफाई का ध्यान नहीं रखते।” लेकिन इससे पहले कि नौकर उस दुपट्टे को हाथ लगाता, डीएम साहब की नजर उस पर पड़ी। वे वहीं रुक गए। उन्होंने खुद झुककर उस कपड़े को उठाया।
डीएम साहब ने दुपट्टे को अपनी हथेलियों पर ऐसे फैलाया जैसे वह कोई पवित्र ग्रंथ हो। सूरज की किरणें जब उस तांबे और सुनहरे धागों के काम पर पड़ीं, तो वह कपड़ा दमक उठा।
“मिज विमला, आप इसे कचरा कह रही थीं?”
“जी सर, यह पुराना है, शायद किसी ने फेंक दिया होगा।”
“यह कचरा नहीं, कला का एक नायाब नमूना है,” डीएम साहब की आवाज में सम्मान था। “मैंने देश-विदेश के कई मेलों में शिरकत की है, लेकिन ऐसी कारीगरी आज तक नहीं देखी। यहां जो भूरे रंग के धब्बे हैं, उन्हें धागों ने इस तरह जकड़ रखा है जैसे एक मजबूत पेड़ अपनी जड़ों से जमीन को पकड़ता है। यह इंपरफेक्शन, कमी को खूबसूरती में बदलने का हुनर है।”
भीड़ में सन्नाटा छा गया। विमला का चेहरा पीला पड़ गया। वह जानती थी कि वे भूरे धब्बे कोई डिजाइन नहीं, बल्कि उसके जूतों की गंदगी और कीचड़ के निशान थे।
सुधा की सच्चाई और सम्मान
तभी भीड़ को चीरते हुए एक पतली और सहमी सी आवाज आई – “ये मेरा है साहब।”
सबकी नजरें उस दिशा में घूमीं। सुधा अपने पुराने सूती साड़ी के पल्लू को कसकर पकड़े हुए कांपते पैरों से आगे बढ़ी। उसके पीछे मुन्ना था।
डीएम साहब ने नरमी से पूछा – “यह तुमने बनाया है?”
सुधा ने सिर झुकाकर हां में जवाब दिया।
“बहन, मुझे एक बात बताओ। अमूमन कारीगर फूलों और पत्तियों को चमकीले रंगों में बनाते हैं। लेकिन तुमने इस सुनहरे पेड़ की जड़ों के लिए यह मटमैला और गहरा रंग क्यों चुना?”
सुधा ने एक पल के लिए विमला सेठानी की ओर देखा। विमला की आंखों में धमकी साफ दिख रही थी – “मुंह खोला तो बर्बाद कर दूंगी।” सुधा का दिल जोर से धड़क रहा था। लेकिन फिर उसे अपने बेटे का चेहरा याद आया। उसने डर को पीछे छोड़ दिया।
“साहब, गरीब का हुनर अक्सर अमीर के पैरों तले कुचल दिया जाता है। यह मटमैला रंग कोई डिजाइन नहीं था, यह मेरे अपमान का दाग था। किसी ने मेरी मेहनत को कीचड़ में रौंद दिया था क्योंकि उन्हें लगा कि मैं छोटी जात हूं और मेरा काम तुच्छ है। मैं गरीब हूं साहब, दूसरा रेशम खरीदने की औकात नहीं थी। इसलिए मैंने उस कीचड़ के दाग को ही अपने पेड़ की जड़ बना लिया।”
“अगर अमीर लोग हम पर कीचड़ उछाल सकते हैं, तो हम गरीब उस कीचड़ में भी कमल खिलाना जानते हैं।”
सुधा के शब्दों ने वहां मौजूद भीड़ के दिलों को बेच दिया। विमला शर्म और गुस्से से पानी-पानी हो रही थी। गांव के लोग अब आपस में फुसफुसाने लगे। डीएम साहब का चेहरा सख्त हो गया। उन्होंने विमला की ओर तीखी नजर डाली और सुधा की ओर मुड़े।
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“सुधा साहब।”
“आज के इस मेले में एक से बढ़कर एक स्टॉल है, लेकिन इस दुपट्टे में जो कहानी बुनी गई है, वह अनमोल है। मैं इस दुपट्टे को खरीदना चाहता हूं। तुम इसकी क्या कीमत लोगी?”
सुधा हक्क बक्की रह गई। “कीमत साहब, मैं तो बस…”
विमला सेठानी बीच में कूद पड़ी – “अरे साहब, आप क्यों तकलीफ करते हैं? यह हमारे गांव की औरत है। मैं इसे कुछ पैसे दे दूंगी। आप इसे तोहफे के तौर पर रख लीजिए।”
डीएम साहब ने हाथ उठाकर विमला को चुप करा दिया। “रुकिए मिज विमला। कला की कीमत कलाकार तय करता है, व्यापारी नहीं।”
उन्होंने अपनी जेब से बटुआ निकाला – “सुधा जी, अगर मैं इसके लिए आपको ₹10,000 दूं, तो क्या यह ठीक रहेगा?”
₹10,000 – यह रकम सुधा के लिए किसी सपने से कम नहीं थी। उसने जीवन भर में एक साथ इतने पैसे नहीं देखे थे। उसके हाथ कांपने लगे और आंखों से आंसू बह निकले। उसने घुटनों के बल बैठकर डीएम साहब के पैर छूने की कोशिश की। लेकिन साहब ने तुरंत उसे रोक लिया।
“नहीं सुधा जी, कलाकार के पैर नहीं छुए जाते। उसकी कला की पूजा की जाती है।”
डीएम साहब ने सम्मानपूर्वक नोटों की गड्डी उसके हाथ में रख दी। “यह आपकी मेहनत का फल है और उससे भी ज्यादा आपके उस जज्बे का इनाम है जिसने हार नहीं मानी।”
सुधा की जीत – एक नई शुरुआत
वहां मौजूद भीड़ जो अब तक विमला सेठानी की जी-हजूरी कर रही थी, अचानक तालियों से गूंज उठी। मुन्ना ने अपनी मां को देखा और गर्व से उसका सीना चौड़ा हो गया। आज उसकी मां बेचारी नहीं बल्कि विजेता थी।
डीएम साहब ने घोषणा की – “आज से जिला प्रशासन का महिला सशक्तिकरण प्रोजेक्ट सीधा इस गांव की औरतों के साथ काम करेगा और इस प्रोजेक्ट की अध्यक्ष सुधा जी होंगी। अब से सरकार स्कूलों की वर्दियां और सरकारी कार्यक्रमों के लिए शॉल और दुपट्टे सीधा सुधा जी की सहकारी समिति से खरीदेगी।”
यह घोषणा विमला सेठानी के लिए किसी बम धमाके से कम नहीं थी। उसका पूरा कारोबार, उसकी शान और शौकत, सब गरीब कारीगरों के शोषण पर टिका था। अब कारीगर सीधे सरकार से जुड़ गए तो विमला की दलाली की दुकान बंद हो गई। उसका लाखों का मुनाफा एक पल में हवा हो गया।
विमला का प्रतिशोध – गांव की एकता
विमला हार मानने वालों में से नहीं थी। उसने शहर के गुंडों को भेजा – “मुझे वह औरत इस गांव में नहीं चाहिए। उसका दुपट्टा, पैसे और नया ओहदा सब खाक में मिला दो।”
रात के सन्नाटे में सुधा की झोपड़ी पर हमला होने वाला था। लेकिन गांव के नौजवानों ने पहरा देना शुरू किया था। जैसे ही गुंडे आग लगाने वाले थे, गांव के लोग मशाल लेकर आ गए – “सुधा अकेली नहीं है!”
गुंडों ने सब उगल दिया – “हमें विमला सेठानी ने भेजा है।” गांव वाले गुस्से में विमला की हवेली की ओर बढ़े। पुलिस भी पहुंच गई। विमला को गिरफ्तार कर लिया गया। सुधा ने कहा – “कानून अपना काम करे, लेकिन मैं नहीं चाहती कि किसी के घर की इज्जत सरेआम नीलाम हो।”
समाज का बदला हुआ चेहरा
विमला को जेल जाना पड़ा। पति ने छोड़ दिया, कारोबार खत्म हो गया। सुधा की मेहनत और डीएम साहब के सहयोग से “उड़ान सहकारी समिति” बन गई। रामपुर की औरतों के बनाए कपड़े देश के बड़े शहरों तक पहुंचे। मुन्ना इंजीनियरिंग पढ़ने लगा।
एक दिन विमला खुद काम मांगने सुधा के कारखाने पहुंची – “क्या मुझे झाड़ू-पोछा लगाने का काम मिलेगा?”
सुधा ने उसे सुई-धागे का काम दिया – “काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। मैं चाहती हूं कि आप भी अपनी जिंदगी के फटे हुए पन्नों को उसी तरह रफू करें जैसे मैंने किया था।”
विमला फफक कर रो पड़ी। सुधा ने उसे गले लगा लिया। रामपुर ने उस दिन देखा कि सबसे बड़ा बदला माफ कर देना होता है।
सीख
ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती। जब वह चलती है तो राजा को रंक और रंक को राजा बना देती है। सुधा ने उस कीचड़ सने दुपट्टे से अपनी तकदीर लिखी, और यह साबित कर दिया कि अगर नियत साफ हो तो कीचड़ में भी कमल खिलाए जा सकते हैं।
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