पति रोज़ चुपचाप अपमान सहता रहा, बस इसलिए कि घर टूटे नहीं… फिर जो हुआ, किसी ने सोचा नहीं था

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रिश्तों की बुनियाद अक्सर प्यार से होती है, पर बनाए रखने के लिए समझदारी और सहनशीलता की भी उतनी ही ज़रूरत होती है। यह कहानी है रोहन शर्मा की, जिसने लगभग छह साल तक रोज़-रोज़ अपमान सहा, सिर्फ इसलिए कि उसका परिवार टूटने से बच जाए। लेकिन फिर अचानक एक सुबह ऐसा हुआ, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

रोहन की मुलाक़ात शालिनी से कॉलेज के पहले साल में हुई थी। वह बचपन से ही लिखने का शौक़ी था, कथा-उपन्यास, कविताएँ, डायरी—हर जगह कलम चलती रहती थी। पर नौकरी के दबाव ने उसे बैंक में क्लर्क की पोजिशन पकड़ने पर मजबूर कर दिया। शालिनी पढ़ी-लिखी, अमीर परिवार से थी, उसकी आँखों में साहस और आत्मविश्वास थे। प्यार हुआ, शादी कर ली। शुरुआती दो-तीन साल प्यार-मोहब्बत की तस्वीर थी, दोनों सपनों में खोए रहते। शादी के तीसरे बरसगाँठ पर जब रोहन ने अपनी पहली किताब के पांडुलिपि का मसौदा शालिनी से दिखाया, तो उसने हल्की मुस्कराहट में कहा, “ये सब खेल-किस्से ठीक हैं, पर तुम्हें फर्स्ट होम लोन, कार लोन, और बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाना है, न?” उस कहकर वह सोफे पर लेट गई और मोबाइल देखने लगी। रोहन के भीतर हल्की चुभन सी उठी, पर वह चुप रहा—समझौते की भाषा में यही रजामंदी थी।

समय बीता, शाम की चाय का रिवाज़ टूटने लगा। शालिनी अब सुबह-सुबह उठकर जिम जाती, ब्रांडेड कपड़े पहनकर बैंक में पहुंचती, और दोपहर में मेकअप रिमूवर से चेहरे का पसीना धोकर लौट आती। सारे खर्चे उसका परिवार उठाता—कार, फ्लैट का पंजाब नेशनल होम लोन, बच्चों का ताले वाली प्लेबुक्स तक। रोहन चुपचाप तनख्वाह गिनता, बजट बनाता और सैलरी पर निर्भर रहता। कभी उसने अपनी जरूरतों की बात ज़ोर-शोर से नहीं कही। जब बैंक के अधिकारियों ने पूछा, “मर्यादा में रहकर क्यों ख़र्च नहीं बढ़ाते?”, तो रोहन मुस्कुरा कर बोला—“परिवार की शांति प्यारी है, महोदय।”

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शालिनी के घरवाले, खासकर उनकी माँ, बबीता शर्मा, ने कभी मौका नहीं छोड़ा। “क्या तेरा काम बस कलम-काग़ज़ करने का है?” उन्होंने परिवार के जश्न में बार-बार उंगली उठाई। “तू तो घर का आम-व्यय जाओ पर लेने नहीं आता!” रोहन ने हमेशा एक शांत मुस्कान दी। वह जानता था—इन कटु शब्दों का प्रभाव ज्यादा देर तक नहीं रहता। झूठी नज़र-उँच्चाई में जीने से बेहतर था चुप-चाप सह लेना। बस भीतर लिखता रहा: “वहाँ रोशनी वही, पर सपनों की गहराई बढ़ जाती है।”

हर शाम नीली बत्ती वाली डाइनिंग टेबल पर खाना होता। शालिनी बताती, “आज मेरे ऑफ़िस का बडवालिन्दा फंक्शन था, रैंकेट में लेट आने पर टांग लड़ गई।” रोहन सिर हिला कर सुनता, और रात को फोन उठा कर एक-आध लाइन कभी कह देता—“ठीक है, सब मिलकर हल कर लेंगे।” पर अपने भीतर वह दर्द लिख देता। डायरी के पन्नों पर शेर उकेरता—“सितम से गुजरना सिखा उन्होंने, पर किस्मत ने साथ नहीं छोड़ा।” दुनिया को दिखाता नहीं था कि दिल कट रहा है।

पांचवें साल में शालिनी की तबीयत भी बिगड़ी। एसी रूम में ज़्यादा दिन लेटने से सर दर्द, आँखें धुंधली। डॉक्टर आयी तो कहा—“तनाव कम करो।” शालिनी ने उँगलियाँ घुमाईं—“तनाव तो रोहन उठाता है, मैं क्या करूँ?” रोहन ने मुँह में दवाई रखकर कहा—“तुम ठीक हो जाओ, सब ठीक हो जाएगा।” पर मां-बाबूजी ने कहा, “पूरी जिम्मेदारी उसका है।” रोohan ने एक बार फिर कंधे ठोकर कह दिया—“मैं भूल जाता हूँ, बस देखो मैं कितना भूल जाता हूँ।” सोते समय आँखे बंद कर लेता, सपनों के पात्र में लिखता—“एक दिन खुद को बताऊँगा कि मैं भी किसी काम का हूँ।”

किसी को खबर नहीं थी कि रोहन एक गुप्त वर्चुअल प्लेटफ़ॉर्म पर ‘रुद्र नायक’ नाम से उपन्यास लिखता है। उसने पाँच साल पहले पहली कहानी वहां पोस्ट की थी,—एक ग्रामीण किसान की व्यथा, जिसमें प्यार और अपमान के बीच लड़ाई थी। कहानी रातों-रात वायरल हो गई। दर्शकों ने पूछा, “ये लेखक कौन है?” उन्होंने लिखा था कि वह “एक ऐसा इंसान है जो सब अपमानों को सहकर महान बनने का सपना देखता है।” प्रशंसकों की बाढ़ आई, रिव्यू, लाइक, कमेंट—सबने रुद्र नायक से दोस्ती कर ली। रोहन को पता था कि घरवालों के सामने उसे इस छुपे लिखने का कोई फायदा नहीं होगा; अपमान तो वैसे भी कम नहीं होगा। इसलिए उसने चुपके से अगली कहानी पोस्ट की, फिर तीसरी। अब तक कहीं ५०-६० पोस्ट आ चुकी थीं, प्रत्येक के हज़ारों पाठक थे। एक दिन एक पब्लिशर ने उसे ऑफ़र भी दे दिया—“एक रॉयल्टी कॉन्ट्रैक्ट भेज रहा हूँ।” रोहन ने मुस्कुरा कर ऑफ़र रख दिया, पर मन ही मन सहमी हुई ख़ुशियाँ मनाईं।

रोहन की दिनचर्या ऐसी थी: सुबह आठ बजे उठकर जिम की तरह दैनिक कामकाज करना; बैंक जाना; दोपहर में लंच के बाद दस मिनट के लिए अपने बैंक के केबिन में झाँक कर नोटबुक खोलना; शाम को फ्लैट लौट कर बच्चों को पढाना; रात को हाथ में चाय लेकर लैपटॉप खोलना; और गुप्त दुनिया में सुरसा की मृदुता से लिखना। इस रूटीन को किसी ने नहीं जाना। बैंक में उसका चेहरा विनम्र, दफ्तर की राजनीति से अछूता, परता हुआ दिखता। भीतर की दुनिया वही आग थी जो चुप नहीं हो पाती थी।

एक शनिवार की रात जब सब सो रहे थे, शालिनी अचानक गुस्से में उठी—किचन में स्क्रब करके उसे उंगली दिखाकर बोली, “तुम्हें खाना बनाने का भी अधिकार नहीं—सिखाया जब से नहीं, सारी देरी तुम्हारी मूर्खता से हुई।” रोहन ने चाय की प्याली रखी, हल्के लहजे में कहा, “तुम सो जाओ, कल जल्दी उठना है।” वह चला गया, बेडरूम से बाहर मोबाइल छुपाकर लिखा—“बस अब और नहीं, कल सुबह कुछ कर दिखाऊँगा।”

अगली सुबह हुई, रोहन ने ऑफिस जाने की जगह एक चिट्ठी बुकिंग एजेंसी में भेज दी। बच्चों के साथ स्कूल बस तक पहुंचने की बजाय वह सीधे उस एजेंसी गया। उसने प्रेस नोट के रूप में अपनी कहानी, ‘धूल से उठते सुर’, बैंक को भेज दी। दोपहर होते-होते अख़बारों ने छापा—“बैंक क्लर्क ने लिखी बेस्टसेलर उपन्यास, रॉयल्टी होगी १० लाख की!” बैंक के मैनेजर चौंक कर रोहन के केबिन पर आए। सहकर्मी इक्क-दुक्क दिखे। बच्चों की स्कूल से छुट्टी नहीं ले सके, पर शाम तक ‘रुद्र नायक’ सबके जुबां पर था। घर लौटकर जब शालिनी ने अख़बार देखा, तो उससे नज़रे नहीं हटीं। उसने चिल्लाकर पूछा, “ये क्या बखेड़ा है?” रोहन ने हल्की मुस्कान दी, “बस वही, तुमने कहा था मैं कुछ नहीं हूँ—तुम्हारे आंखों के सामने है।” शालिनी के हाथ काँपे, माँ-बाप आये तो हवा-बेहद गहराई तक बहती चली गई।

बच्चों ने खुशी से चिल्लाकर पूछा, “पापा, अब हम क्या करते?” रोहन ने उन्हें गले से लगाया, “अब हम बतायेंगे कि हर अपमान झेलकर अपनी राह बनाना है।” शालिनी ने आँसू पोछे, आँखें नमदा थी। पहली बार उसने उस इंसान को देखा जो नाम के पीछे की कुर्बानी दे चुका था। घर तोड़ने के डर से जो चुप था, अब गिराज़ा सी दीवारें मिल रही थीं। पर असली मुठभेड़ उस शाम हुई, जब परिवार की सभा बुलाई गई।

शालिनी की माँ ने पगडंडी पर कहा, “इतना बड़ा काम किया? पर मुझे बताना क्यों ज़रूरी नहीं समझा?” रोहन ने शांति से जवाब दिया, “मैं जानता था कि बताकर अपमान और बढ़ेगा। जितनी ताकत मैंने चुप रहकर जमा की, उतनी अब कहानियों में बह जाएगी।” बबीता शर्मा ने ठंडे स्वर में कहा, “घर की मर्यादा का ख्याल नहीं रखा?” रोहन ने एक पल तक टिकी नज़र से देखा, फिर बोला, “मर्यादा का मतलब है इज्ज़त से जीना। मैं इज्ज़त लेकर आया हूँ।” उस एक वाक्य ने सबके होंठों पर उँगलियाँ थाम दीं। घर में पहली बार सन्नाटा चुप रहा—किसी ने विरोध नहीं किया।

कुछ ही दिनों में ‘रुद्र नायक’ की बुक बुकस्टोर्स में लौट आई। विमोचन समारोह हुआ। शालिनी, माँ, बाप सब मंच पर बैठे। जब लेखक का इंट्रोडक्शन हुआ, दर्शकों ने तालियाँ बजाईं। लेकिन जब असली लेखक लौटा मंच तक, और ढकने की बजाए खुद का चेहरा दिखाया, तो हर कोई दंग रह गया। वह क्लर्क जो हर रोज़ अपमान सहता था, अब जवाँ-सा सिकंदर बनकर सुरक्षित कदमों से आया था। बच्चों ने ‘पापा, पापा!’ चिल्लाया, शालिनी रोते हुए बोली, “ये मेरा रोहन है।” माँ-बाप ने आँसू बहाए और गले लगा लिया। बैंक के मैनेजर भी बीच में आ गए—“सर, आपको प्रमोशन मिलेगा।” रोहन ने मुस्कुराकर कहा, “अब प्रमोशन की ज़रूरत नहीं। मेरी आैर मेरी रचनाएँ ही मेरी पहचान हैं।”

उस शाम के बाद रोहन का पोना-रोज़मर्रा बदल गया, पर पारिवारिक जीवन की शांति बरकरार रही—अब कोई अपमान नहीं, सिर्फ सम्मान की बातें चलतीं। शालिनी ने उससे माफ़ी माँगी, दोनों की दोस्ती फिर से खिल उठी। बच्चों ने स्कूल में बताया कि उनका पापा लेखक हैं, माता-पिता गर्व से सीना चौड़ा करके सुनाते। बैंक में भी लोगों ने कहा, “हमारे अपने चमचमाते सितारे।” छुपकर लिखना बंद हुआ, अब हर कहानी पर परिवार की दुआ काम आती।

कुछ महीनों बाद जब दूसरा उपन्यास प्रकाशित हुआ, बबीता शर्मा ने संसद की लाइब्रेरी में रुद्र नायक के नाम का हवाला दिया। दोस्त, रिश्तेदार, सहकर्मी, सभी ने पूछा—“तुमने कैसे चुप-चाप सब किया?” रोहन ने मुस्कुरा कर कहा, “जब तक घर बचाना था, तब तक सहना पड़ेगा। पर जब अपनी क़दर पर यकीन हो, तो एक वक्त आता है, खुलकर उभर जाओ।” उस दिन उन्होंने जाना—किसी की चुप्पी कमजोरी नहीं, एक ताकत होती है जो सही समय पर बाज़ू फैलाती है।

समय जैसे-तैसे चलता रहा। आज रोहन शर्मा के नाम से दस उपन्यास प्रकाशित हैं, हर एक ने बेस्टसेलर की लिस्ट में जगह बनाई। शालिनी अब अपनी पत्नी के रोल से आगे बढ़ कर मैनेजर बन चुकी है, बच्चों की पढाई में हेल्प करती है और ज़िन्दगी में संतुलन बनाए रखती है। हर साल रक्षा बंधन पर रोहन अपनी रक्षा सूत्र की जगह नया उपन्यास लिखने की कसम खाता है। बबीता शर्मा बताती हैं—“जिस बेटे-इन-लॉ को मैं रोज़-रोज़ नीचा करती थी, वही आज हमारी आन-बान है।”

यह कहानी यही सिखाती है कि सहनशीलता, समझौता, अपमान सहने का मतलब कमजोरी नहीं, बल्कि कभी-कभी मजबूती का पराक्रम है। पर अपने हुनर, अपने आत्म-सम्मान को दबाकर नहीं—वक़्त आने पर उजागर कर देना भी एक साहस है, जो परिवार को टूटने से बचाता है। रोहन ने चुपके से लिखा, पर जब समय सही हुआ, तो ज़बानी नहीं, लिखित तरीके से ही सबको दिखा दिया कि उसके भीतर कितनी चमक है। और यही बेमिसाल मोड़ था, जिसका किसी ने सोचा भी नहीं था।