बाप ने खेत गिरवी रख बेटे को पढ़ाया बेटा अफसर बनते बोला “मैं तुम्हें नहीं जानता”फिर बाप ने जो किया

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गाँव रामपुर की सुबहें मिट्टी की खुशबू और मेहनत के पसीने से शुरू होती थीं। वहीँ रहता था रामस्वरूप – पगड़ी में बंधी गरिमा, आँखों में धूप का धैर्य, और हथेलियों में खेत की दरारें।
उसका छोटा-सा खेत, बस दो बीघा, बाप-दादा की निशानी था। वही उसकी रगों में बहते खून जैसा था। हर सुबह वह खेत की मेड़ों पर खड़ा होकर कहता –
“चलो बेटा, आज फिर हल चलाएँगे। तू उगेगा तो मेरा बेटा भी बढ़ेगा।”

पत्नी राधा अब इस दुनिया में नहीं थी। कैंसर ने उसे ऐसे छीना कि कर्ज भी उसके दर्द से छोटा लगने लगा। पर जाते-जाते राधा से उसने एक वादा किया था –
“अविनाश को अफसर बनाऊँगा… चाहे अपनी साँस बेचनी पड़े।”

राधा के जाने के बाद, जब अविनाश सिर्फ तीन साल का था, रामस्वरूप ने खुद खाना बनाना सीखा, बेटे के बालों में तेल लगाना सीखा, और सबसे कठिन – मां की कमी को छुपाना सीखा। घर में बर्तन भले कम थे, लेकिन किताबें हमेशा रहतीं। फीस के लिए वह कभी खेत का अनाज बेचता, कभी रस्सी बटोरता, और कई बार दिन में खेत, रात में ईंट भट्ठे में काम करता।

गाँव के लोग हँसते –
“पढ़ाई से क्या होगा? पेट तो खेत जोतकर ही भरेगा।”
रामस्वरूप बस मुस्कुराता –
“पेट मैं जोत कर भर रहा हूँ… पर मेरे बेटे की आँखें कुछ और देख रही हैं।”


गिरवी रखी मिट्टी

जब अविनाश को शहर के इंटर कॉलेज में दाखिला लेना था, फीस 500 रुपये थी और जेब में 50 भी नहीं। साहूकार ने पूछा –
“क्या गिरवी रखेगा?”
रामस्वरूप ने एक छोटा डिब्बा आगे किया – उसमें उसके खेत की मिट्टी थी।
“ये मेरी जान है, इसे रख लो।”

खेत गिरवी गया, लेकिन बेटा स्कूल चला गया। पुरानी चप्पल में पैदल 4 किलोमीटर का सफर तय करता अविनाश, और शाम को पिता उसकी टूटी पट्टी सिलते।

कॉलेज आया, तो फीस दोगुनी। इस बार खेत का बचा हिस्सा भी गिरवी रखना पड़ा। लोग पागल कहते, पर रामस्वरूप ने आसमान की ओर देखकर कहा –
“अगर मेरा बेटा मेरा सपना नहीं समझेगा… तो क्या आसमान भी मुझसे रूठेगा?”


बड़ा आदमी, छोटा दिल

सालों की मेहनत रंग लाई। अविनाश अंग्रेजी बोलने लगा, लैपटॉप पर काम करने लगा, और एक नामी कंपनी में अफसर बन गया।
रामस्वरूप के मन में अब बस एक ख्वाहिश थी –
“एक बार उसके ऑफिस में बैठूँ, उसकी कुर्सी देखूँ… बस यही देखना बाकी है।”

कई साल बाद प्रमोशन पार्टी का निमंत्रण आया – होटल गैलेक्सी, लखनऊ।
रामस्वरूप ने नए कपड़े सिलवाए, नए जूते लिए, और साथ में खेत की मिट्टी का डिब्बा भी रखा – बेटा को देने के लिए।

होटल पहुँचा तो रिसेप्शन पर बोला –
“अविनाश जी से मिलना है… उनका बाप हूँ।”

कुछ देर बाद सूट-बूट में अविनाश आया। पर चेहरे पर ठंडापन था।
“तुम कौन? मैं तुम्हें नहीं जानता।”
और वह ऊपर चला गया।

रामस्वरूप के हाथ से मिट्टी का डिब्बा जैसे गिर ही गया हो… पर उसने बस चुपचाप होटल से बाहर आकर फुटपाथ पर बैठ, मूंगफली का पैकेट खोला… पर गले से एक दाना भी न उतरा। मिट्टी का डिब्बा वहीं रख दिया –
“शायद अब तुझे भी तेरे बेटे की ज़रूरत नहीं।”


मिट्टी की कसम

गाँव लौटकर रामस्वरूप चुप हो गया।
पर अगले ही दिन हल उठाया, मजदूरी शुरू की, और साथ ही गाँव के बच्चों को पढ़ाना भी।
“अगर मेरा बेटा मुझे ना पहचाने… तो मैं और बेटों को तैयार करूँगा, जो अपनी मिट्टी न भूलें।”

15 साल की मेहनत के बाद उसने साहूकार का सारा कर्ज चुका दिया। खेत वापस मिला, और उसी दिन खेत की पहली मिट्टी माथे से लगाकर बोला –
“अब तू भी आज़ाद है… और मैं भी।”

खेत के कोने में उसने एक छोटा-सा स्कूल खोला – “माटी का स्कूल”। सपना था – हर बाप के त्याग की पहचान बने।


टूटन और लौटना

शहर में अविनाश का करियर डगमगाने लगा। नौकरी गई, पत्नी ने तलाक दे दिया, सब कुछ बिक गया।
तभी पहली बार बाप की याद आई। उसने फोन किया –
“पापा, आप कैसे हैं?”
रामस्वरूप ने आवाज पहचान ली… पर बोला –
“अब मैं बाप नहीं… बस मिट्टी का आदमी हूँ। वो तब तेरा बाप था, जब तू मुझे जानता था।”

कुछ महीनों बाद अविनाश गाँव लौटा –
“बाबा, माफ कर दो, मैं सब कुछ खो चुका हूँ।”
रामस्वरूप ने बिना देखे कहा –
“तू कौन? मैं तुझे नहीं जानता।”

अविनाश रो पड़ा।
“मैं फिर से मिट्टी से शुरू करूँगा।”

रामस्वरूप ने कहा –
“अगर सच में बेटा है तो इस मिट्टी में बीज डाल। अगर अंकुर फूटे… तो मानूँगा तू फिर से पैदा हुआ है।”

तीन महीने बाद खेत में हरियाली थी। रामस्वरूप ने पहली बार कहा –
“मेरी धरती ने तुझे माफ किया… अब मैं भी करता हूँ, बेटा।”


आखिरी जीत

दोनों ने मिलकर गाँव में “माटी महोत्सव” शुरू किया, जहाँ हर बच्चा मंच पर अपने पिता का नाम लेता।
अविनाश अब अंग्रेजी नहीं बोलता, सूट नहीं पहनता। गले में खेत की मिट्टी तावीज़ की तरह लटकती है।

रामस्वरूप के अंतिम शब्द थे –
“मैंने खेत खोया, शरीर खोया, पर तुझ पर यकीन कभी नहीं खोया। तू मिट्टी में लौट आया… यही मेरी जीत है।”

उसके जाने के बाद अविनाश ने स्कूल का नाम बदलकर रखा –
“रामस्वरूप ज्ञानधाम – माटी के बेटों के लिए”
और कसम खाई –
“हर साल कम से कम एक ऐसा बच्चा तैयार करूँगा जो अपने बाप को कभी ना भूले।”

अब उसकी आँखों में सिर्फ एक वाक्य बसता है –
“जो बाप को नहीं जानता… वो खुद को भी नहीं जानता।”