भाभी के लालच और अजय की आत्मज्ञान की कहानी

अजय, एक साधारण भारतीय युवक, दो साल विदेश बिता कर पहली बार अपने वतन लौट रहा था। हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचकर वह तुरंत अपने शहर रायबरेली के लिए ट्रेन पकड़ लेता है। रास्ते में ट्रेन एक छोटे स्टेशन पर थोड़ी देर के लिए रुकती है। अजय सोचता है—“काफी समय है, कुछ खा लिया जाए।” वह प्लेटफॉर्म पर उतरता है और नजर पड़ती है उन तीन लोगों पर, जिनकी हालत देखकर उसके पैरों तले जमीन खिसक जाती है।

वहीं, बेंच पर फटे-पुराने कपड़ों में झुकी हुई कमर के दो बुज़ुर्ग—अजय के माता-पिता, और पास ही उसकी धर्मपत्नी—ज्योति, सब भीख मांग रहे थे। किसी ने भी अजय को नहीं पहचाना और उसके सामने ही भीख की अर्जी लगाई—”साहब, दो दिन से कुछ नहीं खाया, जरा मदद कीजिए।” अजय का दिल कांप उठा। ज्योति ने जैसे ही उठकर अपने पति को देखा, वो स्टेशन पर ही फूट-फूटकर रो पड़ी।

आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक ठीक-ठाक परिवार के लोग भीख मांगने को मजबूर हो गए?

बीते दिनों की सच्चाई

अजय के घर में दो बेटे—अजय छोटा, योगेश बड़ा। दोनों की शादी हो चुकी थी। लेकिन घर में अनहोनी की शुरुआत हुई अजय की भाभी—योगेश की पत्नी—से, जो बेहद तेजतर्रार, स्वार्थी और चालाक थी। अजय की शादी ज्योति से हुई, जो बेहद नेक और गरीब परिवार की सीधी-सादी लड़की थी।

शादी के बाद अजय बदल गया। वो अपनी पत्नी ज्योति की तरफ ध्यान नहीं देता था। वह अपनी भाभी की बातों में फंस गया था; भाभी ने अपने नैनों और मीठी बातों से अजय को अपने जाल में बुला लिया था। जब-जब ज्योति अपने पति से बात या स्नेह चाहती, अजय उसे डाँट देता, कभी-कभी मारपीट भी करता। ज्योति को अपने पति से कोई सुख न मिला।

भाभी के लालच की जड़ें और विदाई

अजय की भाभी को सिर्फ पैसों की फिक्र थी। उसने अजय को उकसाया—”विदेश जा, खूब कमा, फिर मुझे बुलाना, पैसा ही सबकुछ है।” अजय, उसकी बातों में आकर, सऊदी अरब जाने की तैयारी करने लगा। घर छोड़ने से पहले उसने अपने माता-पिता को बड़े भाई-भाभी के जिम्मे सौंपा—”मैं हर महीने रुपए भेजूंगा, बस मां-पापा की देखभाल करते रहना।”

लेकिन भाभी ने अपने पति योगेश को लालच दिया—”जब तक अजय बाहर है, मां-बाप से सारी प्रॉपर्टी, खेती अपने नाम करा लो।” योगेश ने माता-पिता को झूठ बोलकर तहसील ले गया, कागजों पर साइन करवा लिया, और घर-ज़मीन सब अपने नाम कर लिया। सबकुछ हथियाने के बाद, दोनों ने मां-बाप को घर से बाहर निकाल दिया। वही बुज़ुर्ग, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी बाल-बच्चों के लिए होम-समर्पित कर दी थी, अब स्टेशन पर भीख मांगने को मजबूर हो गए।

ज्योति का संघर्ष

उधर ज्योति भी अपने मायके जा चुकी थी, चचेरा भाई बाद में ताने मारने लगा, ‘‘काहे आई थी? कब तक रहोगी?” तंग आकर ज्योति अपना घर छोड़ बैठती है। वह इधर-उधर काम कर, पेट पालती, पर सब कुछ मुश्किल था। एक दिन भटकती हुई स्टेशन आ पहुंची, जहां अपने सास-ससुर को भीख मांगते देख फूट-फूटकर रो पड़ी। उसी दिन से वो सास-ससुर के साथ रहने लगी, खुद भी भीख मांगती, कभी ट्रेन में चना बेचती—सिर्फ़ दो वक्त उनकी सेवा और गुजर-बसर के लिए।

अजय की वापसी और सच्चाई का सामना

विदेश में दो साल बीतने के बाद अजय को घर की याद सताती है, फोन करने की कोशिश करता है, मगर कोई उत्तर नहीं। जैसे ही अपने घर पहुंचता है, देखता है—बंद मकान, ताला लटका हुआ। पड़ोसियों से पता चलता है कि भैया-भाभी सब बेचकर कहीं चले गए हैं और मां-बाप पैरपोंट की हालत में रेलवे स्टेशन पर हैं। अजय दौड़ता-भागता स्टेशन पहुंचता है, हालात देख घुटने टेक देता है।

दूर से देखने पर एक औरत अपना घूंघट संभाले आ रही है—ज्योति! अजय के पैरों में गिर जाती है, वही प्रेम, वही सम्मान, वही “पति-देव” मान। अजय फफक कर रो पड़ता है, पछतावा करता है—”मैंने तुम्हें कभी नहीं समझा, तुम्हें प्रताड़ित किया, मुझे माफ कर दो, अब मेरे पास कुछ नहीं बचा…”

माता-पिता भी रोते हैं—“हमें भैया-भाभी ने धोखा दिया, पर तुम्हारी पत्नी ने हमें इंसान बना कर रखा।” ज्योति मुस्कराकर कहती है, ‘‘गलती आपकी नहीं, भाभी ने ही सब किया। अब जब आपकी आंखें खुलीं, यही हमारे लिए सबसे बड़ा इनाम है।’’

नई शुरुआत…पसीने की रोटी

अब घर-कर्म, पैसा कुछ भी नहीं था—अजय, पत्नी और माता-पिता को लेकर दूसरे शहर चला गया। मंडी के पास किराए पर कमरा लिया, मंडी में पल्लेदारी करने लगा, कमाई से घर की जरूरत पूरी करने लगा। चार लोगों का खर्च निकालना चुनौती भरा, पर सब हिम्मत से जुट गए।

ज्योति ने सुझाया, ‘‘आप सब्जी की दुकान खुलवा दीजिए, मैं खुद बेचूंगी।” अजय मान गया, पिता मर्जी से कभी दुकान पर बैठ जाते, कभी मम्मी घर देखती। मेहनत से थोड़े-थोड़े पैसे बचने लगे। किराए से छोटा प्लॉट ख़रीद लिया, फिर धीरे-धीरे कुछ और बचत कर मकान भी बना लिया। मार्केट का अनुभव होने से अब अजय मंडी में खुद की खरीद-फरोख्त शुरू कर चुका था।

अजय का धंधा बढ़ने लगा, खुद की आढ़त खोल ली, और मेहनत व ईमानदारी से जितनी संपत्ति भाई ने छीनी थी, वो उससे अधिक बना ली। चारों सदस्य हंसीखुशी मेहनत से जीने लगे।

दूसरी ओर, योगेश-भाभी की दुर्दशा

उधर योगेश और उसकी पत्नी, चोरी-धोखे से मिली संपत्ति बेचकर ससुराल गए, पर जब पैसा खत्म हुआ तो ससुराल वालों ने निकाल दिया—”जो अपने मां-बाप का नहीं, वो हमारा क्या होगा?” अब योगेश-भाभी दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गए। भटकते-भटकते वे उसी मंडी में आ पहुंचे, जहां अजय अब समृद्ध और इज्जतदार कारोबारी बन चुका था।

मंडी में अजय को देख, योगेश-भाभी के कदम डगमगाए। सास-ससुर के पास झुकना चाह, पर अजय कपड़े झटककर बोला, ‘‘अब पास मत आना, जो किया उसका फल मिल गया!”

मगर माता-पिता बोल पड़े, ‘‘बेटा, माफ कर दो, हर कोई गलती करता है।’’ ज्योति ने भी पहल की—”यह भी परिवार का हिस्सा हैं, गलती का एहसास बहुत बड़ा शिक्षा है। इन्हें भी काम पर लगा दीजिए, ताकि ये भी सम्मान से जी सकें।’’

माफी और परिवार की असली जीत

अजय का गुस्सा भी अब शांत हो चुका था—”बात सच्ची है, जो बीत गया वह लौट नहीं सकता।” वह अपने भाई का भी काम शुरू करवाता है। समय के साथ दोनों भाई अपने-अपने काम में लग गए, पूरा परिवार फिर एक हो गया।

शिक्षा

यह कहानी बताती है—लालच का अंत बर्बादी है, और सच्चा संबंध, बीवी का प्रेम अथवा माता-पिता की दुआएं—सबसे बड़ी दौलत होती है। सुख-दुख जीवन का हिस्सा है; मेहनत, माफी और परिवार का साथ ही असली सफलता है।

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