गलती से गलत ट्रेन में बैठ गया लड़का, टीटी ने जब उसे उतारा तो स्टेशन पर जो मिला, उसने पलट दी किस्मत!

गलत ट्रेन की सही मंजिल: मोहन की कहानी

क्या कभी हमारी सबसे बड़ी गलती हमारी जिंदगी का सबसे सही फैसला बन सकती है? क्या किस्मत के बंद दरवाजे एक गलत ट्रेन के सफर से भी खुल सकते हैं?
यह कहानी है मोहन की। एक सीधा-सादा गांव का लड़का, जिसके कंधों पर अपने पूरे परिवार की उम्मीदों का बोझ था। वह एक ऐसी मंजिल के लिए निकला था, जहां उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी लड़ाई उसका इंतजार कर रही थी। पर वह गलती से एक गलत ट्रेन में बैठ गया।

जब एक सख्त टीटी ने उसे एक अनजान सुनसान स्टेशन पर उतार दिया तो उसे लगा कि उसकी दुनिया उजड़ गई है। उसका भविष्य खत्म हो गया है।
पर उसे क्या पता था कि उसी सुनसान स्टेशन पर, उसी वीरानी में उसकी किस्मत एक ऐसे शख्स के रूप में उसका इंतजार कर रही थी, जो उसकी जिंदगी को हमेशा के लिए बदलने वाला था।

गांव की जड़ें और सपनों का बोझ

बिहार का एक छोटा सा पिछड़ा गांव, हरिपुर। इसी गांव में मोहन अपने बूढ़े मां-बाप और एक छोटी बहन राधा के साथ रहता था। उनका परिवार पीढ़ियों से गरीबी और संघर्ष की चक्की में पिस रहा था।
पिता रामलाल अब बूढ़े हो चले थे और खेतों में मेहनत करने की ताकत उनमें नहीं बची थी। मां भी अक्सर बीमार रहती थी। घर की सारी जिम्मेदारी 22 साल के मोहन पर थी।
मोहन ने गांव के ही स्कूल से जैसे-तैसे 12वीं पास की थी। पर उसकी आंखों में एक सपना था—सरकारी नौकरी पाने का।
वह जानता था कि एक सरकारी नौकरी ही उसके परिवार को कर्ज, बीमारी और गरीबी के इस दलदल से बाहर निकाल सकती है।

उसने दिन-रात एक करके पढ़ाई की। वह खेतों में काम करता और रात में ढिबरी की रोशनी में घंटों पढ़ता। उसकी मेहनत रंग लाई। उसने रेलवे में क्लर्क की परीक्षा पास कर ली।
यह उसके और उसके परिवार के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। पूरे गांव में उसकी कामयाबी की चर्चा थी। अब बस आखिरी पड़ाव बाकी था—दिल्ली में होने वाला फाइनल इंटरव्यू।

सपनों की राह पर पहला कदम

जिस दिन दिल्ली से इंटरव्यू का बुलावा पत्र आया, उस दिन उनके घर में दिवाली जैसा माहौल था।
मां ने अपनी फटी हुई साड़ी के पल्लू से ₹100 का नोट निकालकर मोहन के हाथ में रखा। “बेटा, यह रख ले। रास्ते में कुछ खा लेना।”
पिता की आंखों में गर्व के आंसू थे। उन्होंने कहा, “जा बेटा, अब हमारी गरीबी के दिन खत्म होने वाले हैं।”
बहन राधा ने उसकी पुरानी सी शर्ट को धोकर और स्त्री करके उसके बैग में रखा।

मोहन जब घर से निकल रहा था तो उसके मन में एक अजीब सी घबराहट थी। वह पहली बार अपने गांव से इतनी दूर दिल्ली जैसे बड़े शहर में अकेला जा रहा था।
उसने अपने मां-बाप के पैर छुए और वादा किया कि वह उनकी उम्मीदों को टूटने नहीं देगा।

गलत ट्रेन की गलती

पटना स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। एक साथ कई ट्रेनें अलग-अलग प्लेटफार्म पर खड़ी थीं। चारों तरफ शोर और धक्का-मुक्की थी।
मोहन जो इस माहौल का आदि नहीं था, घबरा गया। उसके हाथ में दिल्ली जाने वाली संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस का टिकट था।
उसने एक कुली से पूछा, “भैया, दिल्ली वाली गाड़ी कहां लगेगी?” कुली ने जल्दी में प्लेटफार्म नंबर 5 की ओर इशारा कर दिया।
मोहन भागा, प्लेटफार्म नंबर 5 पर पहुंचा। वहां एक ट्रेन खड़ी थी। उसने जल्दी में ट्रेन का बोर्ड नहीं पढ़ा और एक जनरल डिब्बे में चढ़ गया।
कुछ ही देर में उसे एक सीट भी मिल गई। उसने अपनी सीट पर बैठकर एक गहरी सांस ली। उसे लगा कि अब उसकी मंजिल की राह आसान हो गई है।

ट्रेन अपनी रफ्तार से चल पड़ी। मोहन अपनी खिड़की वाली सीट पर बैठा, आने वाले कल के सुनहरे सपने देख रहा था।
घंटों बीत गए। ट्रेन अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी। रात हो चुकी थी। तभी डिब्बे में टिकट चेककर यानी टीटीई दाखिल हुआ।
वह एक अधेड़ उम्र का रौबदार चेहरे वाला इंसान था। उसका नाम था एस के सिंह। वह हर यात्री का टिकट बहुत ध्यान से देख रहा था।
जब वह मोहन के पास पहुंचा, तो मोहन ने गर्व से अपना टिकट उनकी ओर बढ़ाया।

टीटीई ने टिकट देखा और फिर मोहन को घूर कर देखा। “लड़के, यह टिकट तो दिल्ली का है। तुम इस ट्रेन में क्या कर रहे हो? यह ट्रेन तो हावड़ा जा रही है।”
यह सुनकर मोहन के पैरों तले जमीन खिसक गई। “क्या हावड़ा? नहीं साहब, यह गाड़ी तो दिल्ली जा रही है। कुली ने मुझे यही बताया था।”
टीटीई ने सख्ती से कहा, “कुली ने जो भी बताया हो, पर सच यह है कि तुम गलत ट्रेन में हो और बिना सही टिकट के यात्रा करना एक जुर्म है।”

मोहन का चेहरा सफेद पड़ गया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। वह रोते हुए बोला, “साहब, मेरा कल सुबह दिल्ली में इंटरव्यू है। मेरी पूरी जिंदगी इस पर टिकी है। अगर मैं वहां नहीं पहुंचा, तो मैं बर्बाद हो जाऊंगा। साहब प्लीज मेरी मदद कीजिए।”
उसने अपनी जेब से इंटरव्यू का कॉल लेटर निकालकर टीटीई को दिखाया।

एस के सिंह एक सख्त मिजाज के इंसान थे। पर मोहन की आंखों की सच्चाई और उसकी बेबसी देखकर उनका दिल एक पल के लिए पसीज गया।
पर वह नियम से बंधे थे। उन्होंने कहा, “देखो लड़के, मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता। ट्रेन को वापस तो नहीं मोड़ा जा सकता। नियम के अनुसार मुझे तुम्हें अगले स्टेशन पर उतारना होगा।”

“साहब ऐसा मत कीजिए। मैं कहां जाऊंगा? मेरे पास दूसरे टिकट के लिए पैसे भी नहीं हैं।” मोहन गिड़गिड़ाने लगा।
पर टीटी ने उसकी एक ना सुनी। कुछ ही देर में ट्रेन एक छोटे से अनजान स्टेशन पर आकर रुकी। स्टेशन का नाम था किशनपुर।
रात के 12:00 बज रहे थे। स्टेशन पर घना अंधेरा और एक भयानक सन्नाटा पसरा हुआ था। टीटी ने मोहन से कहा, “उतर जाओ।”
मोहन रोते हुए ट्रेन से उतर गया। उसके सपने, उसकी उम्मीदें सब कुछ जैसे उसी ट्रेन के साथ उससे दूर जा रहे थे।

जैसे ही वह उतरा, टीटीई ने अपनी जेब से 500 का एक नोट निकाला और मोहन के हाथ में रख दिया।
“यह रख लो। सुबह यहां से वापस पटना जाने वाली ट्रेन पकड़ लेना और आगे से ध्यान रखना।” इतना कहकर टीटी ने सीटी बजा दी और ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ गई।

मोहन उस 500 के नोट को हाथ में लिए उस सुनसान प्लेटफार्म पर अकेला खड़ा रह गया।
वह पूरी तरह टूट चुका था। उसकी सालों की मेहनत एक छोटी सी गलती की वजह से बर्बाद हो गई थी।
वह प्लेटफार्म की एक ठंडी बेंच पर बैठ गया और फूट-फूट कर रोने लगा। उसे अपने मां-बाप का चेहरा याद आ रहा था। वह उन्हें क्या जवाब देगा। वह अपनी किस्मत को कोस रहा था।

इंसानियत की परीक्षा

तभी उसकी नजर प्लेटफार्म के दूसरे कोने में पड़ी एक परछाई पर पड़ी। एक बूढ़ा सा आदमी जो शायद बेंच पर लेटा हुआ था, अचानक नीचे गिर पड़ा। वह दर्द से कराह रहा था।
स्टेशन पर उन दोनों के सिवा और कोई नहीं था। मोहन एक पल के लिए रुका। वह अपने दुख में इतना डूबा था कि उसे किसी और की परवाह नहीं थी।
पर फिर उसके अंदर की इंसानियत जागी। उसने सोचा, “मैं तो पहले ही बर्बाद हो चुका हूं। शायद इस बेचारे की मदद करके कुछ पुण्य ही कमा लूं।”

वह दौड़कर उस बूढ़े आदमी के पास पहुंचा। वह आदमी तेज बुखार में तप रहा था और बेहोशी की हालत में था।
मोहन ने उसे उठाकर बेंच पर लेटाया। उसने पास के एक नल से अपने रुमाल को गीला किया और उसके माथे पर पट्टियां रखने लगा।
उस बूढ़े आदमी की जेब से एक बटुआ निकल कर नीचे गिर गया। मोहन ने बटुआ उठाया। वह चाहता तो उसे लेकर भाग सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया।
उसने बटुआ खोला ताकि उसमें से कोई पहचान पत्र मिल सके। बटुए में कुछ पैसे और एक कार्ड था, जिस पर नाम लिखा था—सेठ रामनिवास गोयल। साथ में एक फोन नंबर भी था।
पर इस सुनसान स्टेशन पर फोन कहां से मिलता?

स्टेशन पर सिर्फ एक चाय की दुकान थी जो बंद पड़ी थी। मोहन ने उस बूढ़े आदमी की हालत देखी। उन्हें फौरन दवा की जरूरत थी।
उसने सोचा कि पास के गांव में शायद कोई दवा की दुकान मिल जाए। वह टीटीई के दिए हुए पैसों को लेकर उस अंधेरी रात में उस अनजान जगह पर मदद की तलाश में निकल पड़ा।
वह करीब 2 किलोमीटर पैदल चला। तब जाकर उसे एक छोटा सा गांव मिला। वहां उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया।
एक भले आदमी ने दरवाजा खोला। मोहन ने उसे सारी बात बताई। उस आदमी ने मोहन की मदद की।
वह उसे अपने साथ गांव के एक छोटे से क्लीनिक में ले गया, जहां से दवा मिली। मोहन वापस स्टेशन लौटा और उसने उस बूढ़े आदमी को दवा दी, पानी पिलाया।

वह पूरी रात अपनी भूख, प्यास, अपनी चिंता सब कुछ भुलाकर उस अनजान बूढ़े आदमी की सेवा में लगा रहा।

किस्मत की सुबह

सुबह जब सूरज निकला तो उस बूढ़े आदमी को होश आया। उनकी आंखों में अब दर्द की जगह एक हैरानी थी।
उन्होंने अपने सामने एक नौजवान लड़के को बैठे देखा। “बेटा, तुम कौन हो और मैं यहां कैसे?”
मोहन ने उन्हें पूरी बात बताई। यह सुनकर सेठ रामनिवास गोयल की आंखें भर आईं।
उन्होंने कहा, “बेटा, तुमने रात भर मेरी सेवा की। तुमने मेरी जान बचाई। मैं तुम्हारा यह एहसान कैसे चुकाऊंगा?”

तभी स्टेशन पर एक शानदार गाड़ी आकर रुकी। उसमें से कुछ लोग उतरे जो शायद सेठ जी को ही ढूंढ रहे थे।
वे सेठ जी को देखकर उनकी ओर भागे। पता चला कि सेठ रामनिवास गोयल उस इलाके के एक बहुत बड़े जाने-माने उद्योगपति और समाजसेवी थे।
वह पास के एक गांव में अपने एक चैरिटेबल अस्पताल का दौरा करने आए थे, जब उनकी तबीयत अचानक बिगड़ गई थी।

इनाम और नई मंजिल

सेठ रामनिवास ने अपने लोगों को रोका और मोहन से कहा, “नहीं, पहले मैं इस लड़के की कहानी सुनूंगा।”
उन्होंने मोहन से उसके बारे में पूछा। मोहन ने झिझकते हुए अपनी टूटी हुई उम्मीदों के साथ उन्हें अपनी पूरी कहानी सुनाई—गांव की गरीबी, मां-बाप के सपने, रेलवे की नौकरी, गलत ट्रेन और छूटे हुए इंटरव्यू के बारे में।

पूरी कहानी सुनकर सेठ रामनिवास कुछ देर के लिए खामोश हो गए। उनकी अनुभवी आंखों में एक अजीब सी चमक थी।
उन्होंने मोहन के कंधे पर हाथ रखा और बोले, “बेटा, तुम कहते हो कि तुम गलत ट्रेन में बैठ गए थे। पर मैं कहता हूं कि भगवान ने तुम्हें बिल्कुल सही ट्रेन में बिठाया था। वह तुम्हें दिल्ली नहीं, बल्कि मेरे पास भेजना चाहता था।”

उन्होंने अपने मैनेजर को फोन किया। उनकी आवाज में एक ऐसा अधिकार था जिसे कोई नहीं टाल सकता था।
उन्होंने कहा, “पता करो रेलवे में क्लर्क की भर्ती का इंचार्ज कौन है? मुझे अभी इसी वक्त उस विभाग के चेयरमैन से बात करनी है।”
कुछ ही मिनटों में फोन पर देश के रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन थे।

सेठ रामनिवास ने फोन पर कहा, “चेयरमैन साहब, मैं रामनिवास गोयल बोल रहा हूं। आपके विभाग में क्लर्क के पद के लिए आज एक इंटरव्यू था। एक लड़का जिसका नाम मोहन है, वह इंटरव्यू नहीं दे पाया।”
चेयरमैन ने कुछ कहने की कोशिश की, पर सेठ जी ने उन्हें रोक दिया।
उन्होंने कहा, “वह इसलिए नहीं पहुंच पाया क्योंकि वह यहां एक अनजान स्टेशन पर मेरी जान बचाने में लगा हुआ था। एक लड़का जिसके अपने भविष्य का सवाल था, उसने अपनी परवाह ना करके एक अनजान बूढ़े की सेवा की।”

उन्होंने आगे कहा, “साहब, 30 मिनट का इंटरव्यू किसी की काबिलियत तय नहीं कर सकता। पर जो इंसान अपनी सबसे बड़ी मुसीबत में भी इंसानियत नहीं छोड़ता, उसका चरित्र सोने की तरह खरा होता है।
अगर आपके विभाग को ऐसे ईमानदार और सच्चे कर्मचारियों की कद्र है तो आप उस लड़के को यह नौकरी देंगे। और अगर नहीं तो मैं उसे अपनी कंपनी में इससे 10 गुना बड़ी नौकरी दूंगा। फैसला आपका है।”

फोन के दूसरी तरफ सन्नाटा छा गया। देश के इतने बड़े उद्योगपति की सिफारिश कोई कैसे टाल सकता था।
चेयरमैन ने फौरन कहा, “सेठ जी, आप चिंता ना करें। उस लड़के की नौकरी पक्की है। हम उसके लिए एक विशेष नियुक्ति पत्र जारी करेंगे।”

मोहन की जीत

यह सुनकर मोहन के खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह रोते हुए सेठ रामनिवास के पैरों पर गिर पड़ा।
सेठ जी ने उसे उठाया और गले से लगा लिया। “बेटा, रो मत। यह तुम्हारी नेकी का फल है। तुमने अपनी एक मंजिल छोड़ी, पर भगवान ने तुम्हें तुम्हारी असली किस्मत से मिला दिया।
आज से तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरी है। तुम्हारी बहन की शादी मैं करवाऊंगा।”

उस दिन के बाद मोहन की जिंदगी सचमुच पलट गई। उसे रेलवे में नौकरी मिल गई।
सेठ रामनिवास ने उसके परिवार को कर्ज से मुक्त कर दिया और उसकी बहन की शादी भी बड़ी धूमधाम से करवाई।

कुछ महीने बाद जब मोहन अपनी नौकरी पर जा रहा था, तो ट्रेन में उसकी मुलाकात उसी टीटी एस के सिंह से हुई।
मोहन ने उन्हें पहचाना और उनके पैर छू लिए। उसने उन्हें उस रात के ₹500 लौटाए और अपनी पूरी कहानी सुनाई।
पूरी बात सुनकर एस के सिंह की आंखें भी नम हो गईं। उन्होंने मोहन को गले लगा लिया और बोले, “बेटा, मैंने तो बस अपना फर्ज निभाया था। पर तुम्हारी अच्छाई ने तो कमाल कर दिया।
मुझे खुशी है कि मेरी एक छोटी सी मदद किसी की जिंदगी को इतना सुंदर बना गई।”

सीख और समापन

तो दोस्तों, मोहन की यह कहानी हमें सिखाती है कि जिंदगी में कभी-कभी गलत रास्ते भी हमें सही मंजिल तक पहुंचा देते हैं।
बशर्ते हमारी नियत और हमारे कर्म नेक हों। इंसानियत का एक छोटा सा काम भी कभी व्यर्थ नहीं जाता।

अगर मोहन की इस कहानी ने आपके दिल में उम्मीद की एक नई लौ जलाई है, तो इसे लाइक करें, कमेंट करें और बताएं कि आप किस्मत के इस खेल के बारे में क्या सोचते हैं।
इस कहानी को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें और ऐसी ही प्रेरणादायक कहानियों के लिए हमारे चैनल को सब्सक्राइब करना ना भूलें।

धन्यवाद।