पार्टी के दौरान दुल्हन को मिली एक लड़की || फिर जान बचाने का बदला चुकाने के लिए दूल्हे ने मांगा कुछ ऐसा
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सैलाब में उम्मीद: बाबा बैरागीनाथ और अनविता की कहानी
महाराष्ट्र के चंद्रपुर गांव में उस रात आसमान फटा था। दो दिनों तक लगातार बारिश ने गांव की हर चीज़ को तहस-नहस कर दिया था। गलियों में पानी और मिट्टी का सैलाब बह रहा था, कच्चे मकान ढह चुके थे, मवेशी डूब गए थे और हर तरफ चीख-पुकार थी। लोग अपने बच्चों को कंधे पर बिठाकर ऊँची जगह की ओर भाग रहे थे, कोई छत से लिपटकर जान बचा रहा था, तो कोई टूटे दरख्तों की जड़ों से चिमटा हुआ था। पूरा गांव एक ऐसी कयामत का मंजर पेश कर रहा था जिसका तसव्वुर भी डरावना था।
इसी तबाही के बीच, गांव के पुराने मंदिर के पास एक बूढ़ा फकीर खड़ा था—बाबा बैरागीनाथ। सफेद लंबे बाल, झुर्रियों भरा चेहरा, आंखों में धूप और धुएं की कालिख, बदन पर मैले-कुचैले कपड़े, नंगे पांव और हाथ में घिसी लकड़ी की छड़ी। गांव के लोग उसे कभी पागल मानते, कभी वली या साधु। लेकिन आज वह बाबा अपनी पहचान बदलने वाला था।
अचानक बाबा की नजर सैलाब की लहरों पर पड़ी, जहां कोई चीज़ तेजी से बह रही थी। करीब आने पर उसका दिल दहल गया—वह एक जवान लड़की थी, जो पानी में डूबने ही वाली थी। बाबा के हाथ कांप गए, उम्र ढल चुकी थी, जिस्म कमजोर था, लेकिन उसने अपनी छड़ी फेंकी और पानी में कूद गया। ठंडे पानी ने उसकी सांसें रोक दी, मगर बाबा ने हिम्मत ना हारी। वह लहरों को चीरता हुआ लड़की तक पहुंचा। लड़की नीम बेहोश थी, चेहरा थकन और खौफ से भरा था, नाक और मुंह में पानी भर चुका था।
बाबा ने पूरी ताकत से उसका हाथ पकड़ा और डूबती आवाज़ में कहा, “बेटी हिम्मत करो, भगवान बड़ा है।” किसी चमत्कार की तरह दोनों बहते-बहते एक टूटी झोपड़ी के दरवाजे से टकराए, बहाव की रफ्तार कम हुई और उन्हें सहारा मिल गया। बाबा ने लड़की को दहलीज से ऊपर खिसकाया, फिर खुद भी किनारे पर आ बैठे। लड़की की पलकें बोझिल थीं, सांस टूटी-टूटी सी चल रही थी। बाबा ने उसके चेहरे के पास जाकर कांपते हाथों से कनपटी सहलाई, गीले बाल एक तरफ किए और धीरे से बोले, “बेटी, आंखें खोलो। हिम्मत करो। मैं यहीं हूं।”
लड़की ने जरा सी जुंबिश की, जैसे बहुत दूर से आवाज़ सुन रही हो। वह बस इतना कह पाई, “आप… आपने मुझे…” और फिर गर्दन ढलक गई। बाबा ने उसे करवट के बल लिटाया, अपनी धोती का साफ हिस्सा फाड़ा और उसकी पेशानी पर रख दिया। फिर कंधे की पुरानी शाल उतारकर आधी उस पर डाल दी, ताकि बदन की कपकपाहट कम हो। उसकी कलाई थामी तो नब्ज़ कमजोर थी, मगर चल रही थी। बाबा ने उसे सहारा देकर उठाया और मंदिर की ओर बढ़ने लगे।
मंदिर के दरवाजे पर पहुंचकर बाबा ने लकड़ी की चौखट थामी, सांस बराबर की और लड़की को अंदर ले आए। मंदिर के हाल में एक कोने पर पुरानी चटाई थी, पास ही पीतल का लोटा रखा था। बाबा ने चटाई सीधी की, लड़की को टिकाया और झोली से छोटा कपड़ा निकाला। लोटे से पानी हथेली में लिया और बूंद-बूंद उसके होंठों पर लगाया। कुछ देर बाद लड़की की पलकें जरा सी उठीं, उसने सुस्त आवाज़ में पूछा, “मैं कहां हूं?”
बाबा ने उसके सिर के नीचे कपड़ा रखा और नरमी से कहा, “बेटी, तुम अब महफूज़ हो। परमात्मा ने तुम्हें मौत के मुंह से वापस भेजा है।” लड़की ने अपना नाम बताया—अनविता। उसने कहा, “घरवाले कहां हैं, मुझे नहीं मालूम। सब कुछ बिखर गया। मैं बस बहती चली गई।” बाबा ने उसे तसल्ली दी, “अभी तुम्हारी सांस और हिम्मत ज़रूरी है। बाकी सबका रास्ता खुद बन जाएगा। मैं तुम्हारे साथ हूं।”
बाबा ने गुड़ का छोटा टुकड़ा निकालकर उसकी जबान पर रखा, “इससे जान में जान आएगी।” अनविता ने डली मुंह में दबा ली। बाबा ने उसके पैरों की तरफ देखा, एड़ी पर खराश थी। धोती के टुकड़े से बांध दिया। वक्त थोड़ा गुजरा तो अनविता की सांसें संभल गईं। बाबा दीवार से टेक लगाकर बैठ गए, हाथ उसके कंधे के पास रखे थे कि अगर करवट बदले तो गिर न जाए।
मंदिर की छत टूटी थी, मगर कोना सूखा था। रात धीरे-धीरे बीतती रही। कहीं दूर से लोगों की पुकार, कभी खामोशी। बाबा ने उस खामोशी में भी अनविता की कमजोर सांसों की डोर थामी रखी। सुबह की रोशनी जब पतली दरार से आई तो लड़की ने पहली बार सीधा बैठने की कोशिश की। होठ अब भी नीले थे, चेहरे पर थकन थी, मगर निगाह में नई जान झलकने लगी। बाबा ने सहारा दिया, “बस यही चाहिए—हिम्मत। आगे का कदम अब हम दोनों साथ रखेंगे।”
अनविता ने पूछा, “मैं कहां हूं?” बाबा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “बेटी, इतना याद रखो कि तुम जिंदा हो। भगवान ने तुम्हें बचा लिया है। बाकी सवालों के जवाब वक्त के साथ मिलेंगे।” यह सुनकर अनविता की आंखों में आंसू आ गए, “मेरे मम्मी-पापा कहां होंगे?” बाबा ने दुआ मांगी कि बच्ची अपने मां-बाप को देख सके।
बाहर बारिश थम चुकी थी, मगर गांव की गलियां अब भी दलदल में डूबी थीं। बाबा ने छड़ी हाथ में ली और अनविता को सहारा देकर खड़ा किया, “चलो बेटी, कोई और महफूज़ जगह ढूंढनी होगी।” दोनों पानी से भरी गलियों से गुजरे। रास्ते में टूटे मकान, बिखरा सामान, और कई लाशें देखकर अनविता का दिल कांप गया। वह आंखें बंद कर लेती, मगर दिल की धड़कन तेज हो जाती।
कुछ फासले पर ऊंची जगह पर लोगों का जत्था था। बाबा और अनविता जैसे ही पहुंचे, सब देखने लगे। एक आदमी ने पुकारा, “अरे यह तो बाबा बैरागीनाथ हैं।” बाबा ने जवाब दिया, “परमात्मा ने अभी जीवन बाकी रखा है। यह लड़की भी उसी की देन है। मैंने इसे मौत के मुंह से निकाला है। इसकी हिफाजत अब हमारी जिम्मेदारी है।” लोगों में सरगोशियां हुईं, कुछ हमदर्द थे, कुछ सख्त।
अनविता ने उन नजरों को महसूस किया तो बाबा का हाथ और मजबूती से थाम लिया। बाबा ने तसल्ली दी, “घबराओ मत बेटी, मैं हूं ना।” तभी एक आदमी बोला, “गांव के लोग अपनी जान बचा रहे हैं, यह लड़की कौन जाने कहां से आई है। अजनबी पर भरोसा आसान नहीं।” अनविता रोते हुए बोली, “मैं अपने परिवार से बिछड़ गई हूं, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाऊंगी।” बाबा की आवाज़ गूंज उठी, “अगर यह तुम्हारी बेटी होती तो क्या तुम यूं शक करते? आज यह बच्ची हमारे रहम की मोहताज है।”
बाबा की बात सुनकर सब खामोश हो गए। एक बुजुर्ग औरत आगे आई, प्यार से अनविता के सिर पर हाथ रखा, “बेटी, आओ मेरे पास बैठो। यह वक्त इंसानियत का है।” अनविता ने शुक्रगुज़ारी के आंसू बहाए, उस औरत का हाथ चूमा। दिन ढलने लगा, लोग पनाहगाहें बनाने लगे, बच्चे भूख और खौफ से बिलख रहे थे। बाबा भी सबके साथ लगे रहे, बच्चों को गोद में उठाते, पानी भरते, बड़ों को हौसला देते।
शाम के करीब, एक नौजवान लड़का दौड़ता हुआ आया, “नदी का पानी फिर बढ़ रहा है, ऊँची पहाड़ी पर जाना होगा।” सब घबराकर बच्चों को सीने से लिपटाने लगे, मर्दों ने सामान समेटा। बाबा ने अनविता का हाथ थाम लिया, “हिम्मत करो, अब हमें एक और सफर पर निकलना होगा।” अंधेरी रात उतरने लगी, लोग पहाड़ी की तरफ बढ़े। रास्ता मुश्किल था, पानी रुकावट बन रहा था। अनविता के कदम लड़खड़ाते, मगर बाबा के कंधे पर हाथ रखकर हिम्मत मिलती।
रास्ते में कई बच्चे फिसल कर गिर जाते, माएं चीख उठतीं। अनविता भी एक बार कीचड़ में फिसल गई, हाथ छिल गए, खून रिसने लगा। बाबा ने सहारा दिया, “बेटी, हिम्मत मत हारना। रास्ता मुश्किल जरूर है, मगर अंजाम बेहतर होगा।” अनविता ने आंसू पोंछे, जख्मी हाथों को संभालते हुए दोबारा कदम बढ़ाए। उसके दिल में नया यकीन जन्म ले रहा था—जब तक बाबा साथ हैं, वह हार नहीं मानेगी।
कई घंटों की मशक्कत के बाद सब पहाड़ी के दामन तक पहुंचे, वहां सूखी जमीन का टुकड़ा था। सांसे फूली थीं, बदन कांप रहे थे, मगर ऊपर चढ़ना बाकी था। एक नौजवान ने डरते हुए कहा, “बाबा, ऊपर जाना खतरनाक है।” बाबा ने छड़ी जमीन पर टिकाई, “यही वक्त है, अगर अभी ना गए तो पानी हमें यहीं ले जाएगा। हिम्मत करो। परमात्मा हमारे साथ है।”
सबने एक दूसरे को देखा, फिर पहाड़ी पर चढ़ने लगे। अनविता बार-बार रुक जाती, पैरों में कांटे और पत्थर चुभ रहे थे, कपड़ों पर कीचड़, हाथ जख्मी। मगर बाबा हर बार उसे थाम कर ऊपर खींच लेते। अनविता ने सोचा, “यह बूढ़ा आदमी अपनी उम्र के बावजूद मेरे लिए इतनी मशक्कत कर रहा है।” कई घंटों बाद सब महफूज़ जगह पहुंचे, वहां पुराने दरख्त और एक कच्चा डेहरा था। रात बेहद सर्द थी, कपड़ों से पानी टपक रहा था, बच्चे भूख से बिलख रहे थे।
अनविता ने बाबा से पूछा, “क्या हम कभी बच सकेंगे?” बाबा ने आसमान की तरफ देखा, “बेटी, जिंदगी का भेद भगवान के हाथ में है। हमें बस अपनी हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए।” इतने में पहाड़ी के दूसरे हिस्से से रोशनी दिखी, शायद वहां भी लोग बचे थे। बाबा ने सबको तसल्ली दी, छड़ी के सहारे उस ओर चले। करीब जाकर देखा, तीन-चार अजनबी आग जलाकर बैठे थे। उनमें से एक लंबा आदमी बोला, “यह लड़की रोज तुम्हारे साथ है, कहीं यह कोई शगुन तो नहीं?”
अनविता खौफजदा हो गई, बाबा ने कहा, “यह मासूम है। सैलाब ना मजहब देखता है ना घर। यह वक्त इंसानियत का है।” बाकी लोगों ने हमदर्दी से आग के पास बिठा लिया। अनविता ने आग के करीब बैठते ही उंगलियां गर्मी की तरफ बढ़ाई, आंखों से आंसू रुके नहीं। बाबा ने सिर पर हाथ रखा, “बेटी, डर छोड़ दो। जब तक सांस बाकी है, उम्मीद भी बाकी है।”
रात का एक पहर गुजर गया, सब सो गए, मगर अनविता की आंखों में नींद नहीं थी। वह बार-बार आग को घूरती, सोचती—क्या मैं वाकई महफूज़ हूं? या यह पहाड़ी मेरा दूसरा इम्तिहान है। उसने बाबा से कहा, “बाबा जी, वह लंबा आदमी मुझे अच्छा नहीं समझता।” बाबा बोले, “इस दुनिया में सब नेक नहीं होते, हमें मोहतात रहना होगा।”
इतने में पहाड़ी के नीचे से आवाज़ आई, पानी का बहाव तेज हो रहा था। वही लंबा आदमी बोला, “अगर हम ऊपर नहीं गए तो सब डूब जाएंगे, इस लड़की को यहीं छोड़ देना चाहिए।” अनविता कांपते हुए बाबा का हाथ पकड़कर उनके करीब हो गई। बाबा की आंखों में गुस्से की आग थी, “शर्म करो, यह बच्ची है कोई बोझ नहीं। भगवान के नाम पर अगर किसी ने इसे नुकसान पहुंचाया तो पहले मुझे पार करना होगा।”
सन्नाटा छा गया, मगर अनविता के दिल में नया सवाल था—क्या मैं वाकई महफूज़ हूं? रात की ठंडी हवा में यह सवाल राज में छुपा रहा। आखिरकार सूरज की पहली किरण ने पहाड़ी को छुआ, सबके दिलों में उम्मीद जागी। लोगों ने सामान समेटा और पहाड़ी से नीचे उतरने लगे। घाटी में एक कच्चा रास्ता था, शायद किसी गांव की तरफ जाता था।
कई घंटों के कठिन सफर के बाद एक छोटा सा गांव दिखाई देने लगा। अनविता की आंखों से आंसू बह निकले, बाबा का हाथ थामा, “बाबा जी, यह जगह जानी-पहचानी लग रही है।” बाबा मुस्कुराए, “हां बेटी, यही वो गांव है जिसकी तलाश में तकदीर तुम्हें यहां लाई।” अनविता दौड़ती हुई गांव के बीच पहुंची, एक कच्ची दीवार के पास उसकी मां बैठी थी। अनविता की चीख गूंज गई, “अम्मी!” मां ने उसे पहचान लिया, “मेरी बच्ची, तू जिंदा है?”
दोनों दहाड़े मार कर रोने लगीं। उसी दौरान झोपड़ी से उसके पिता बाहर आए, बेटी को देखकर आंखों में मोहब्बत की चमक लौट आई। “मेरी अनविता, मेरी जान!” अनविता पिता के कदमों में झुक गई, “पापा, मैंने सोचा था कभी आपसे नहीं मिल सकूंगी।” पिता ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया।
बाबा वीरागीनाथ यह मंजर देख रहे थे, चेहरे पर सुकून भरी मुस्कान थी। अनविता उनके कदमों में झुक गई, “बाबा जी, यह सब आपकी दुआ और हिम्मत से मुमकिन हुआ।” बाबा ने सिर पर हाथ रखा, “बेटी, मेरा काम बस तुम्हें मंजिल तक पहुंचाना था, असल मुहाफिज तो भगवान है।”
गांव के लोग भी जमा हो गए, सबने बाबा की हिम्मत और अनविता की दुआ की तारीफ की। वही लंबा आदमी भी एक कोने में था, उसकी आंखों में नरमी और पछतावे के आसार थे। गांव में खुशखबरी फैल गई—बाढ़ थम चुकी थी, नई जिंदगी के बीज फूटने लगे। सूरज की किरणें बस्ती पर फैल चुकी थीं, अनविता मां की गोद में थी, पिता के कंधों का सहारा लिए खड़ी थी। उसने आसमान की तरफ देखा, आंखों में चमकते आंसुओं के साथ धीरे से कहा, “शुक्र है भगवान, तूने मेरी दुआ सुन ली।”
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