बेटी को लेने गया पिता: अपमान से सम्मान तक का सफर

सफेद हवेली के सामने टैक्सी आकर रुकी। अविनाश शर्मा बाहर निकले। साधारण कुर्ता पहने, उनकी आंखों में गुस्से और चिंता के भाव साफ झलक रहे थे। हवेली के गेट पर खड़े नौकर ने कहा, “मालकिन अंदर हैं।” अविनाश ने गुस्से को दबाते हुए कहा, “जरूरत नहीं, बात यहीं होगी।”

हवेली की ऊपरी मंजिल पर बालकनी से शालिनी देवी नीचे उतरीं। काली साड़ी पहने, चेहरे पर वही पुराना घमंड। उन्होंने व्यंग्य भरे स्वर में कहा, “तो बेटी को लेने आए हो?”
अविनाश ने शांत स्वर में जवाब दिया, “हां, क्योंकि अब वह यहां बहू नहीं, कैदी लगती है।”

इतने में अंदर से आन्या बाहर आई। उसके चेहरे पर उदासी और आंखों में आंसू थे। उसके पीछे अर्जुन भी बाहर आया, लेकिन उसके चेहरे पर झिझक और अपराधबोध साफ दिख रहा था। अविनाश ने अपनी बेटी से पूछा, “बोलो बेटा, क्या इतना बुरा सुलूक किया गया?”

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आन्या ने कांपती आवाज में कहा, “पापा, मुझे कमरे में बंद कर दिया गया था, क्योंकि मैंने कहा था कि मैं नौकरी जारी रखना चाहती हूं।” यह सुनते ही अविनाश का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने बेटी का हाथ पकड़ा और कहा, “चलो, अब बस।”

शालिनी देवी गुस्से में चिल्लाई, “अगर आज गई तो कभी मत लौटना।”
अविनाश ने मुड़कर कहा, “मैं अपनी बेटी को ले जा रहा हूं, लेकिन दरवाजा बंद नहीं कर रहा। शायद कभी आपको भी सच नजर आ जाए।”

आन्या ने एक बार पीछे मुड़कर देखा, फिर सिर झुका लिया। अर्जुन की आंखों से पहली बार आंसू निकले, लेकिन उसने कदम नहीं बढ़ाए। टैक्सी धीरे-धीरे सड़क पर बढ़ने लगी। रास्ते में खामोशी थी। अविनाश ने धीरे से कहा, “बेटी, कुछ घर इज्जत से नहीं, दिल से बचाए जाते हैं।”

आन्या की आंखों से आंसू गिरने लगे, लेकिन इस बार ये आंसू दर्द के नहीं, बल्कि राहत के थे।

एक नई शुरुआत

रात को मल्होत्रा हाउस में आन्या चुपचाप अपनी मां की गोद में सो गई। अविनाश बालकनी में खड़े थे। उनके मन में एक ही विचार था: “अब लड़ाई इंसानियत की होगी, न कि दहेज या अहम की।”

दूसरी तरफ अर्जुन अपनी मां के कमरे के बाहर बैठा था। उसके हाथ में फोन था, लेकिन उसने कॉल नहीं किया। बस धीरे-धीरे लिखा:
“माफ कर दो, आन्या। अब मैं डरूंगा नहीं।”

उस रात किसी ने न खाना खाया, न सोया। पर तीनों की जिंदगी बदलने का वक्त शुरू हो चुका था।

सुबह की पहली किरण के साथ, आन्या की आंखें खुलीं। उसने टेबल पर पड़े फोन को देखा। अर्जुन की 10 मिस कॉल्स थीं। उसने स्क्रीन पर उंगली रखी, लेकिन कॉल नहीं उठाया।

अविनाश दरवाजे पर आए और धीमी आवाज में बोले, “बेटी, आज एक मीटिंग रखी है। तुम्हें चलना होगा।”
“मीटिंग?”
“हां, ससुराल वालों के साथ। बिना लड़े, बिना बदले, बस बात करनी है।”

सच का सामना

दो घंटे बाद, एक काउंसलिंग सेंटर के छोटे से कमरे में चार कुर्सियां लगी थीं। एक तरफ आन्या और अविनाश बैठे थे, दूसरी तरफ अर्जुन और शालिनी। काउंसलर ने कहा, “यहां कोई बहस नहीं होगी। सिर्फ सुनना होगा।”

शालिनी ने नाराजगी से कुर्सी पीछे धकेल दी। “हमारे घर की बहू काउंसलिंग सेंटर में बैठेगी? यह शर्म की बात है।”
अविनाश ने शांत स्वर में कहा, “कभी-कभी शर्म सच्चाई सुनने में नहीं, गलत किया मानने में होती है।”

काउंसलर ने आन्या से कहा, “तुम बताओ।”
आन्या ने कांपते हुए कहा, “हर दिन मुझे कहा गया कि मेरे पापा ने मेरी परवरिश में कमी की है। मेरा फोन छीन लिया गया। मेरी नौकरी छुड़वा दी गई। मैं हंसना भूल गई। बस घर में कैद होकर रह गई।”

शालिनी ने ठहाके लगाते हुए कहा, “अगर नौकरी करने की जिद थी, तो घर टूटना ही था।”
अविनाश ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “घर विश्वासघात से टूटता है, नौकरी से नहीं।”

अर्जुन अब तक चुप था। उसने सिर झुकाकर कहा, “मां, मैं जानता हूं कि आप गलत नहीं सोचतीं, लेकिन आपका तरीका गलत था। मैं आन्या से प्यार करता हूं, लेकिन मैं हमेशा डरता रहा कि आप क्या कहेंगी।”
शालिनी ने गुस्से में कहा, “तो अब मुझसे सवाल उठ रहे हैं?”
अर्जुन ने शांत स्वर में जवाब दिया, “नहीं मां, बस अब सही-गलत पहचान रहा हूं।”

माफी और बदलाव की राह

काउंसलर ने कहा, “समाधान तभी होगा, जब गलती मानी जाए।”
शालिनी ने कंधे झटकते हुए कहा, “हमने कुछ गलत नहीं किया।”

अविनाश ने एक कागज निकाला और कहा, “यह आपके घर के सीसीटीवी फुटेज हैं। इसमें साफ दिख रहा है कि आपने दरवाजा बंद करते वक्त क्या कहा। क्या यह सुधार था?”

कमरे में सन्नाटा छा गया। शालिनी की निगाहें नीचे झुक गईं। अविनाश ने धीरे से कहा, “मैं पुलिस या अदालत नहीं लाया, क्योंकि मुझे रिश्ता बचाना था। अगर आप बदलने को तैयार हैं, तो हम माफ करने को तैयार हैं।”

आन्या ने कहा, “मैं सिर्फ इतना चाहती हूं कि मुझे अपने निर्णय खुद लेने की आज़ादी मिले। मैं कभी बुरा नहीं चाहती थी।”
अर्जुन ने कहा, “मैं उसके सपनों के साथ खड़ा रहना चाहता हूं। मां, अगर आप इजाजत दें, तो हम फिर से शुरुआत कर सकते हैं।”

शालिनी ने कुछ नहीं कहा। बस धीरे से बोली, “मुझे समय चाहिए।”
आन्या दरवाजे तक पहुंची और धीरे से कहा, “मुझे भी समय चाहिए।”

सुखद अंत

कुछ हफ्तों बाद, आन्या ने “सखी” नाम से एक नई पहल शुरू की, जो उन महिलाओं के लिए थी, जो शादी के बाद अपने करियर से समझौता कर लेती हैं।

अर्जुन ने अपनी मां से कहा, “मैं सखी के प्रोग्राम से जुड़ना चाहता हूं। हमारी कंपनी वहां की महिलाओं को ट्रेनिंग दे सकती है।”
शालिनी ने कुछ देर सोचा और कहा, “अगर वह तुम्हारे जरिए कुछ अच्छा कर रही है, तो शायद मैं गलत नहीं थी, बस देर से समझ पाई।”

कुछ महीनों बाद, हवेली में “सखी” की नई शाखा का उद्घाटन हुआ। शालिनी ने मंच पर खड़े होकर कहा, “मैंने अपनी बहू से सीखा कि इज्जत उम्र या पद से नहीं, इंसाफ से मिलती है। आज मैं अपनी हर गलती का परिणाम सुधार में दिखा रही हूं।”

तालियां गूंज उठीं। आन्या ने आगे बढ़कर शालिनी को गले लगाया। अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा, “मां, अब यह घर सच में घर लग रहा है।”

संदेश

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