“एक लावारिस बूढ़ा कौमा में था, नर्स ने रात-दिन उसकी सेवा की – जब वह ठीक हुआ तो उसने…”

सच्ची सेवा की मिसाल: एक नर्स, एक लावारिस मरीज और किस्मत का चमत्कार

जयपुर के गुलाबी शहर में शाही विरासत और आधुनिकता का अद्भुत संगम है। वहीं, सिविल लाइंस के एक आलीशान बंगले में रहते थे 70 वर्षीय हीरा व्यापारी श्री जगमोहन डालमिया। दौलत, शोहरत, इज्जत—सब कुछ होने के बावजूद उनकी जिंदगी तन्हा थी। पत्नी का निधन हो चुका था, बेटे विदेश में अपने-अपने कारोबार में व्यस्त थे और पिता को याद करने की भी फुर्सत नहीं थी।

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हर सुबह जगमोहन जी साधारण कपड़ों में पार्क में सैर करने जाते थे। एक दिन अचानक उनके सीने में दर्द उठा, सिर में चोट लगी और वे वहीं बेहोश हो गए। पहचान पत्र या फोन ना होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। उन्हें सरकारी अस्पताल ले जाया गया, जहाँ सिर की चोट के कारण वे गहरे कोमा में चले गए। पुलिस ने पहचान की कोशिश की, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। वे एक लावारिस मरीज घोषित कर दिए गए।

अस्पताल की भीड़ में उनकी हालत बिगड़ती रही। आखिरकार उन्हें दिल्ली के एम्स अस्पताल में रेफर कर दिया गया। वहाँ उनकी मुलाकात हुई स्नेहा से—28 साल की एक नर्स, केरल के छोटे से गाँव की बेटी, जिसने अपनी मेहनत से देश के सबसे बड़े अस्पताल में नौकरी पाई थी। स्नेहा अपनी सफेद वर्दी को सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि इंसानियत का सबसे बड़ा फर्ज मानती थी। जब उसने उस बेसुध बुजुर्ग को देखा, तो उसमें उसे अपने पिता का अक्स दिखा। उसने मन ही मन ठान लिया—जब तक ये बाबा हैं, मैं इनकी बेटी बनकर सेवा करूंगी।

स्नेहा ने दिन-रात जगमोहन जी की सेवा की। अपने पैसों से उनके लिए फल और जूस लाती, शरीर साफ करती, कहानियाँ सुनाती, भजन गाती। अस्पताल का स्टाफ उसका मज़ाक उड़ाता, लेकिन वह अडिग रही। महीनों बीत गए—एक महीना, दो महीने, छह महीने। जगमोहन जी कोमा में ही रहे। उनके बेटे विदेश में व्यस्त थे, उन्हें पिता की खबर तक नहीं थी।

अस्पताल प्रशासन दबाव डालने लगा कि अब इस बिस्तर को किसी और मरीज को दें, लेकिन स्नेहा हर बार कुछ और समय की मोहलत मांग लेती। सात महीने की अंधेरी रात के बाद एक दिन चमत्कार हुआ। स्नेहा ने देखा कि जगमोहन जी की उंगलियाँ हिल रही हैं, पलकें कांप रही हैं। डॉक्टरों ने इसे मेडिकल मिरेकल मान लिया। धीरे-धीरे उनकी याददाश्त लौटी, और सबसे पहले उन्होंने स्नेहा का चेहरा देखा—आंसुओं से भीगा हुआ, फरिश्ते जैसा।

जब जगमोहन जी को सब कुछ याद आया, उन्होंने अपने बेटों के बारे में पूछा। स्नेहा ने सच बता दिया: “आप सात महीने से लावारिस मरीज की तरह यहाँ पड़े थे।” जगमोहन जी को अपनी दौलत पर नहीं, बेटों की बेरुखी पर अफसोस हुआ। उन्होंने स्नेहा से पूछा, “तुमने मेरी सेवा क्यों की?” स्नेहा बोली, “इंसानियत को जानती हूँ बाबा, आप में अपने पिता को देखा।”

जगमोहन जी ने मन ही मन फैसला किया—यह लड़की सिर्फ नर्स नहीं, इस घर की लक्ष्मी है। उन्होंने अपने मैनेजर को बुलाया, मीडिया में खबर फैल गई, बंगले में खुशियों की बहार लौट आई। जगमोहन जी ने स्नेहा को अपने साथ घर ले जाने का आग्रह किया। जब वे पूरी तरह स्वस्थ हो गए, तो अपने दोनों बेटों को भारत बुलाया। बड़े बेटे रोहन की अकड़ कायम रही, लेकिन छोटे बेटे साहिल को सच्चा पश्चाताप हुआ।

एक शाम जगमोहन जी ने साहिल और स्नेहा को बुलाया। बोले: “स्नेहा, तुम इस घर की बहू बनो। साहिल, अगर तुम अपने गुनाहों का प्रायश्चित करना चाहते हो, तो इस देवी जैसी लड़की को पत्नी के रूप में स्वीकार करो।” साहिल ने हाथ जोड़कर कहा, “पापा, मैं इतना भाग्यशाली कहाँ कि स्नेहा जी मुझे मिले।” स्नेहा ने पिता की इल्तजा देखी, सिर झुका दिया।

उस दिन बंगले में शहनाई बजी, जगमोहन जी ने स्नेहा की शादी साहिल से कर दी। घर की सारी चाबियाँ स्नेहा को सौंपते हुए बोले, “आज से इस परिवार की मालकिन तुम हो बहू।” रोहन गुस्से में घर छोड़ गया, लेकिन साहिल और स्नेहा ने मिलकर डालमिया जेम्स को सिर्फ दौलत नहीं, इंसानियत और सेवा की विरासत बना दिया।

यह कहानी सिखाती है कि निस्वार्थ सेवा का फल देर से मिले, लेकिन मिलता जरूर है—इतना कि आपकी झोली छोटी पड़ जाए। स्नेहा ने सिर्फ एक मरीज नहीं, इंसानियत की सेवा की और किस्मत ने उसे वह रुतबा दिया जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी।

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