एक लावारिस बूढ़ा कौमा में था, नर्स ने रात-दिन उसकी सेवा की। कुछ माह बाद जब वो ठीक हुआ तो उसने उसके…
निस्वार्थ सेवा की कहानी: स्नेहा और लावारिस बादशाह
क्या होता है जब किसी इंसान की जिंदगी एक अनजानी सांस की डोर से बंध जाती है? क्या सेवा का कोई मोल होता है या यह इबादत है जिसका सिला ऊपरवाला अपनी सबसे नायाब नेमत से देता है?
यह कहानी है एक लावारिस बेजान जिस्म की, जिसे दुनिया ने गुमनाम मरीज समझकर छोड़ दिया था, और एक ऐसी नर्स की, जिसके लिए उसकी सफेद वर्दी सिर्फ नौकरी नहीं, इंसानियत का सबसे पाक फर्ज थी।
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जयपुर का अकेला बादशाह
जयपुर के सबसे पौश इलाके सिविल लाइंस में एक विशाल बंगले में रहते थे श्री जगमोहन डालमिया। 70 साल के डालमिया देश के सबसे बड़े हीरा व्यापारियों में शुमार थे। दौलत, शौहरत, इज्जत—सब कुछ था, मगर दिल में तन्हाई थी। पत्नी का देहांत हो चुका था, दोनों बेटे विदेश में अपने कारोबार में व्यस्त। डालमिया जी की दुनिया अब अखबार, सुबह की सैर और पुरानी यादों तक सिमट गई थी।
एक हादसा, एक नई शुरुआत
एक सुबह पार्क में सैर करते वक्त उनके सीने में तेज दर्द उठा, और वह गिर पड़े। सिर में गहरी चोट आई। पहचान-पत्र या फोन ना होने के कारण कोई उन्हें पहचान नहीं सका। एंबुलेंस आई, उन्हें सरकारी अस्पताल ले गई। वहां पता चला, उन्हें सिर में चोट की वजह से सेरेब्रल हेमरेज हुआ है। हालत नाजुक थी, वो कोमा में चले गए। कोई रिश्तेदार नहीं, कोई पहचान नहीं—लावारिस मरीज घोषित कर दिए गए।
स्नेहा: सेवा की देवी
दिल्ली के एम्स अस्पताल के जनरल वार्ड में उनकी मुलाकात हुई स्नेहा से। केरल के एक छोटे गांव की बेटी, जिसने गरीबी के बावजूद मेहनत से नर्सिंग की पढ़ाई पूरी की थी। स्नेहा के लिए मरीज सिर्फ मरीज नहीं, परिवार थे। लावारिस बुजुर्ग को देखकर उसे अपने पिता की याद आ गई। उसने मन ही मन ठान लिया—जब तक ये बाबा हैं, मैं इनकी बेटी बनकर सेवा करूंगी।
स्नेहा ने दिन-रात उनकी सेवा की, बिना किसी उम्मीद के। वह उनके शरीर की सफाई करती, खाना खिलाती, उनसे बातें करती, कहानियां सुनाती। बाकी स्टाफ उसका मजाक उड़ाता, मगर स्नेहा पर कोई असर नहीं पड़ा।
महीनों गुजर गए—1, 2, 6, 7 महीने। जगमोहन डालमिया बेसुध पड़े रहे। उनके बेटे विदेश में, किसी को खबर नहीं कि उनका पिता जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है।
चमत्कार की सुबह
7 महीने बाद एक सुबह, स्नेहा को लगा जगमोहन जी की उंगलियों में हल्की हरकत हुई। डॉक्टरों को बुलाया गया, और फिर हुआ चमत्कार—जगमोहन जी ने आंखें खोलीं। धीरे-धीरे याददाश्त लौटने लगी। सबसे पहले उन्होंने स्नेहा का चेहरा देखा—आंसुओं से भीगा हुआ, एक फरिश्ते जैसा।
कुछ हफ्तों में जगमोहन जी स्वस्थ हो गए। उन्होंने स्नेहा से पूछा, “बेटी, तुमने मेरी इतनी सेवा क्यों की?”
स्नेहा ने मुस्कुराकर कहा, “मैं आपको नहीं जानती थी बाबा, लेकिन इंसानियत को जानती हूं। मैंने सिर्फ अपना फर्ज निभाया।”
इनाम नहीं, विरासत
जगमोहन जी ने अपने पुराने मैनेजर को बुलाया। मीडिया में खबर फैल गई—हीरा व्यापारी जिंदा हैं!
अस्पताल से छुट्टी मिलते ही जगमोहन जी ने स्नेहा से कहा, “तुम मेरे साथ मेरे घर चलोगी।”
स्नेहा ने बहुत मना किया, लेकिन जगमोहन जी की जिद के आगे हार गई।
जयपुर के बंगले में उन्होंने अपने बेटों को कनाडा से बुलाया। बेटे हैरान, शर्मिंदा थे। जगमोहन जी ने सबको ड्राइंग रूम में बुलाया, और साहिल से पूछा, “7 महीने तक मैं जिंदगी और मौत के बीच था, तुम लोगों ने एक बार भी खबर नहीं ली?”
साहिल रो पड़ा, “पापा, मैं कमजोर पड़ गया, माफ कर दीजिए।”
एक नई शुरुआत
जगमोहन जी ने साहिल और स्नेहा का हाथ पकड़कर कहा, “स्नेहा ने सिर्फ मरीज की सेवा नहीं की, बल्कि इस घर की लक्ष्मी बनकर आई है। मैं चाहता हूं कि तुम इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करो।”
साहिल ने हाथ जोड़कर कहा, “मैं इतना भाग्यशाली कहां कि स्नेहा जी मुझे मिले।”
स्नेहा भी मना नहीं कर पाई। उस दिन बंगले में सालों बाद शहनाई बजी।
शादी के बाद जगमोहन जी ने घर की सारी चाबियों का गुच्छा स्नेहा को देते हुए कहा, “आज से इस घर की और कारोबार की मालकिन तुम हो बहू।”
कहानी का सबक
स्नेहा ने अपनी ममता और सेवा से ना सिर्फ घर को, बल्कि साहिल को भी बदल दिया। डालमिया जेम्स अब सिर्फ दौलत की नहीं, इंसानियत और सेवा की विरासत बन गया।
सीख:
निस्वार्थ सेवा का फल देर से मिलता है, लेकिन इतना मिलता है कि आपकी झोली छोटी पड़ जाए।
यह कहानी उन औलादों को भी सबक देती है जो अपने मां-बाप को बोझ समझते हैं।
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