“करोड़पति पति ने सबके सामने उड़ाया पत्नी का मजाक, अगले दिन पत्नी ने जो किया देख पति फूट-फूट कर रो पड़ा!”

दीप्ति की पहचान: एक पत्नी से नवजीवन तक

पटना शहर की सबसे ऊँची इमारत के आलीशान बैंक्वेट हॉल में सितारों की महफिल सजी थी। क्रिस्टल झूमरों की रोशनी, शैंपेन के जाम, महंगे इत्र और कामयाबी की खुशबू से हवा महक रही थी। यह जश्न था चंद्रकांत सिंह के अंतरराष्ट्रीय अनुबंध जीतने का। महंगी इटालियन सूट में वह किसी राजा की तरह लग रहा था, मगर उसके चेहरे पर आत्मविश्वास नहीं, अहंकार था।

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हर तारीफ पर विजय मुस्कान, हर हाथ मिलाने में शान, और उसके पीछे एक साया—उसकी पत्नी दीप्ति। दीप्ति ने खूबसूरत, मगर साधारण सिल्क की साड़ी पहनी थी। उसकी मुस्कान शांत थी, मगर आँखों में खुद को इस चकाचौंध से अलग महसूस करती थी। जहाँ चंद्रकांत इस महफिल का सूरज था, वहीं दीप्ति शांत चाँद थी, जिसकी रोशनी सूरज की चमक में खो जाती थी।

पिछले दस सालों में दीप्ति ने अपनी इच्छाओं, सपनों और पहचान को एक संदूक में बंद कर दिया था। वह चंद्रकांत की सफलता की मूक वास्तुकार थी। जब चंद्रकांत दिन-रात कंपनी में लगा था, दीप्ति ने घर, परिवार, कर्मचारियों के परिवार—सबको जोड़े रखा। उसने अनजाने में ही कंपनी की नींव में वफादारी और विश्वास का सीमेंट भर दिया था।

लेकिन आज…

चंद्रकांत ने अपना भाषण शुरू किया, अपने सफर का बखान, पार्टनर्स का शुक्रिया, तालियों की गड़गड़ाहट। फिर उसकी नजर दीप्ति पर पड़ी। उसने कहा, “मैं अपनी पत्नी दीप्ति का भी शुक्रिया अदा करना चाहूंगा।” दीप्ति की आँखें नम हो गईं। चंद्रकांत ने आगे कहा, “जब मैं करोड़ों की डील कर रहा होता था, दीप्ति घर पर डिनर तय करती थी।” वह हँसा, मेहमान भी हँसे। दीप्ति की मुस्कान फीकी पड़ गई। चंद्रकांत ने और मजाक किया—”दीप्ति साधारण परिवार से है, महंगी साड़ी पहनने में डरती है।”

हॉल में ठहाका गूंजा। दीप्ति का चेहरा सफेद पड़ गया। जिस पति के लिए उसने सब कुछ समर्पित किया, उसी ने आज उसे भरी महफिल में मजाक बना दिया। यह उसकी पहचान, अस्तित्व और आत्मसम्मान पर हमला था। उसने चुपचाप हॉल से बाहर निकल गई। उसकी विदाई किसी तूफान से पहले की खामोशी थी।

रात…

चंद्रकांत जब देर रात घर लौटा, दीप्ति गायब थी। अलमारी में कपड़े, गहने, सब अपनी जगह, बस दीप्ति नहीं। एक नोट—”मैं वह पहचान ढूंढने जा रही हूँ, जिसे मैंने तुम्हारे नाम के पीछे कहीं खो दिया था।” चंद्रकांत का नशा उतर गया। उसने दीप्ति को ढूंढा, मायके, सहेलियों के घर, कहीं नहीं मिली।

अगले दिन…

कंपनी की साइट्स पर काम ठप। पुराने, वफादार कर्मचारी काम पर नहीं आए। करोड़ों का नुकसान। राम सिंह ने कहा, “आपने भौजी दीप्ति का नहीं, हम सबकी इज्जत का अपमान किया है। हम उस छत के लिए मेहनत नहीं कर सकते जिसकी नींव की कोई इज्जत ना हो।” चंद्रकांत को एहसास हुआ—यह दीप्ति की मूक क्रांति थी।

शाम…

दीप्ति की पुरानी डायरी मिली—हर कर्मचारी के परिवार का ब्यौरा, उनकी जरूरतें, उनकी खुशियाँ, दुख। यह वही परिवार था, जिसे दीप्ति ने जोड़ा था। चंद्रकांत फूट-फूटकर रो पड़ा। उसे अहसास हुआ—उसने अपनी रानी नहीं, अपने राज्य की आत्मा खो दी।

महीनों बाद…

चैरिटेबल ट्रस्ट ‘नवजीवन’ की फाइल मिली। दीप्ति ने बेसहारा औरतों-बच्चों के लिए शुरू किया था। चंद्रकांत वहाँ पहुँचा। दीप्ति साधारण साड़ी में, आत्मविश्वास से भरी, बच्चों को पढ़ाती, महिलाओं को हुनर सिखाती। वह अब सिर्फ उसकी पत्नी नहीं, बल्कि सैकड़ों की प्रेरणा थी।

चंद्रकांत ने माफी माँगी, कंपनी की 50% हिस्सेदारी और ट्रस्ट के लिए जमीन दी। दीप्ति ने कहा, “मुझे दौलत या कंपनी नहीं चाहिए, मुझे वह चंद्रकांत चाहिए जिससे मैंने शादी की थी—जो मुझे साथी समझता था, जायदाद नहीं।”

दीप्ति ने उसका हाथ थामा। नवजीवन के आंगन में तालियाँ बजीं—दो टूटे दिलों के जुड़ने की खुशी में। चंद्रकांत अब दीप्ति का साथी था, बिजनेस पार्टनर था। नवजीवन अब दोनों का मिशन बन गया।

यह कहानी सिखाती है—रिश्ते दौलत से नहीं, सम्मान और विश्वास से बनते हैं।

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