“गरीब बच्चे ने डॉक्टर का खोया हुआ पर्स लौटाया, लेकिन बदले में जो मिला उसने उसकी ज़िन्दगी ही बदल दी – इंसानियत की मिसाल!”
अर्जुन की कहानी — बनारस की गलियों से एक नया परिवार
सुबह का वक्त था। बनारस की भीड़भाड़ वाली गलियों में सूरज की किरणें उतर रही थीं। घाट पर साधुओं की आवाजें गूंज रही थीं—हर हर महादेव। बगल में फूलों की दुकान, दूसरी तरफ चाय वाला और कोने में वही पुरानी सीढ़ियों वाली गली, जहां हर सुबह एक 12 साल का लड़का बैठता था—अर्जुन।
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अर्जुन, जिसे कोई मां कहकर पुकारने वाला नहीं था, जिसे कोई स्कूल भेजने वाला नहीं था, जिसे रात में कंबल उड़ाकर सुलाने वाला कोई नहीं था। वह अकेला था, लेकिन अंदर से बहुत मजबूत। उसके कपड़े हमेशा पुराने रहते, लेकिन उसकी आंखों में सच्चाई और उम्मीद की चमक होती थी। अर्जुन ना भीख मांगता था, ना चोरी करता—बस घाट पर जूते पॉलिश करता और ठेले वालों की मदद कर देता। जो भी पैसे मिलते, उसी से अपने लिए एक वक्त की रोटी ले आता।
उसके पिता ने एक बात सिखाई थी—”बेटा, भले ही पेट खाली हो, लेकिन हाथ गंदे नहीं होने चाहिए।” अब पिता नहीं थे, मां बहुत पहले कहीं खो गई थी। अर्जुन की पूरी दुनिया थी बनारस की गलियां, घाट की भीड़ और ऊपर आसमान।
एक दिन अर्जुन घाट की सीढ़ियों पर बैठा जूते चमका रहा था। तभी एक भारी-भरकम आदमी—नीली शर्ट, महंगे जूते—तेजी से निकला। अर्जुन ने देखा, उस आदमी का बटुआ गिर गया। वह दौड़ पड़ा, भीड़ और सीढ़ियों के बीच ऑटो के पीछे भागा। आखिरकार सिग्नल पर ऑटो रुका। अर्जुन ने हांफते हुए कहा, “साहब, आपका बटुआ गिर गया था।” आदमी ने बटुआ लिया, खोला—अंदर कैश, मेडिकल रिपोर्ट्स, और एक कीमती कार्ड था। वह आदमी डॉक्टर समीर त्रिपाठी थे, शहर में इज्जतदार। लेकिन ऐसी ईमानदारी पहली बार देखी थी।
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“अर्जुन।”
“घर पर कौन है?”
“कोई नहीं साहब, अकेला हूं।”
समीर ने अर्जुन का हाथ पकड़ा और कहा, “चलो मेरे साथ, बस खाना खा लेना। कोई जबरदस्ती नहीं।” अर्जुन थोड़ा झिझका, लेकिन समीर के चेहरे पर अपनापन था। कार में बैठते ही अर्जुन ने खिड़की से बनारस की गलियों को देखा—सब पीछे छूट रहे थे। बंगले के सामने पहुंचा तो उसकी आंखें खुली रह गईं। अंदर खूबसूरत गार्डन, चमकती लाइटें। डाइनिंग टेबल पर गरमागरम रोटियां, सब्जी, चावल और मीठा। अर्जुन की आंखें नम हो गईं। “साहब, आधा खाना पैक करवा सकता हूं?”

“क्यों बेटा?”
“आदत है साहब, पहले खा लेता था, बाद में भूख लगती तो खुद को समझा लेता—नहीं, खाना बचा है।”
समीर के लिए यह एक वाक्य नहीं, एक पूरी कहानी थी। उन्होंने प्यार से कहा, “आज के बाद तुम्हें कुछ छुपाकर रखने की जरूरत नहीं है। अर्जुन, जो मेरा है, वह अब तुम्हारा भी है।” उस रात अर्जुन को मुलायम चादर, सिरहाना और छत मिली। लेकिन उसकी आंखों में मां की छवि थी—कहां चली गई थी, क्या कभी मिलेगी?
अगली सुबह समीर ने अर्जुन को नया कपड़ा दिया। “अब तुम मेरे बेटे जैसे हो, फटे कपड़ों में नहीं जाओगे।” अर्जुन ने पहली बार खुद को आईने में देखकर मुस्कुरा दिया। समीर ने अर्जुन को अपने हॉस्पिटल के केबिन में बैठाया—”यह अर्जुन है, ईमानदारी की मिसाल।” स्टाफ के चेहरे पर आदर था, अर्जुन को अपना सा लगने लगा था।
एक दिन समीर अर्जुन को स्कूल में दाखिले के लिए ले जा रहे थे। तभी एक महिला हॉस्पिटल के बाहर समीर से टकराई—फटे कपड़े, उलझे बाल, आंखों में चिंता। उसने अर्जुन को देखा और चीख पड़ी—”अर्जुन!”
अर्जुन की सांसें थम गईं। वही चेहरा, धुंधली याद में छपा हुआ—”मां…”
महिला ने अर्जुन को कसकर गले लगा लिया, “मैं तुझे ढूंढ-ढूंढ के थक गई थी बेटा, तू अचानक चला गया, मुझे लगा तुझे खो चुकी हूं।”
अर्जुन पत्थर बना खड़ा रहा—”तू मेरी मां कैसे हो सकती है, अगर होती तो छोड़कर क्यों चली गई थी?”
समीर ने महिला को किनारे ले जाकर पानी दिया। नाम पूछा—”रीमा यादव। गरीबी, घरेलू हिंसा, बीमारी… एक दिन दवाई लेने गई थी, अर्जुन सो रहा था, लौटी तो वह नहीं था। पागल हो गई थी, हर जगह ढूंढा… कोई पता नहीं चला।”

समीर ने अर्जुन से पूछा, “बेटा, यह तुम्हारा फैसला है, क्या तुम अपनी मां को फिर से अपनाना चाहते हो?”
अर्जुन की आंखें भर आईं—”मैं उन्हें माफ कर सकता हूं, लेकिन मेरे दिल में आपका भी हिस्सा है। आपने मुझे छत दी, खाना दिया, स्कूल भेजा, बाप जैसा साथ दिया। अब मैं किसी एक को नहीं खो सकता।”
समीर मुस्कुराए—”शायद हम दोनों मिलकर अर्जुन की परवरिश कर सकते हैं। मां की ममता और पिता की जिम्मेदारी साथ हो तो बच्चा कभी अकेला नहीं होता।”
रीमा ने हाथ जोड़ लिए—”डॉक्टर साहब, आप फरिश्ता हैं। मेरे बेटे को आप जैसा इंसान मिला, मुझे मेरा बच्चा दोबारा मिल गया।”
कुछ महीनों बाद अर्जुन स्कूल में अच्छे नंबर ला रहा था। समीर ने उसे कानूनी तौर पर गोद लिया, रीमा भी अब उनके घर में रहती थी। तीनों मिलकर एक नया परिवार बन गए थे—जो खून से नहीं, सच्चाई और प्यार से जुड़ा था।
रेडियो पर एक दिन इंटरव्यू आया—”आज हमारे साथ हैं डॉ. समीर त्रिपाठी, जिन्होंने एक सड़क पर रहने वाले लड़के की जिंदगी बदल दी।”
अर्जुन मुस्कुरा रहा था, रीमा की आंखों में आंसू थे, और समीर का चेहरा गर्व से दमक रहा था।
सीख:
रिश्ते खून से नहीं, कर्म और भावना से बनते हैं।
इंसानियत जिंदा है, बस उसे जीने की जरूरत है।
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जय हिंद, जय इंसानियत!
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