गरीब बुजुर्ग को किसी ने खाना नहीं दिया, एक छोटे बच्चे ने दिया.. जब नाम पूछा तो वो निकला

अशोक प्रसाद की कहानी — इंसानियत, पहचान और सम्मान का असली सबक

पटना के पुराने बाजार मालगोदाम चौक की दोपहर,
चिलचिलाती धूप में भी भीड़भाड़ कायम थी।
ठेलों की खुशबू, रिक्शों की आवाज,
इसी भीड़ में एक बूढ़ा आदमी लड़खड़ाते कदमों से आया।
फटे कपड़े, टूटी चप्पलें, झुर्रियों भरा चेहरा —
पर आंखों में गहराई थी।

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वो सबसे पहले समोसे वाले के पास गया —
“बेटा, कुछ खाने को दे दे। दो दिन से कुछ नहीं खाया…”
विक्रेता ने घूरा, इशारा किया — “चल हट!”
बूढ़ा चुपचाप आगे बढ़ गया।
छोले कुलचे वाले पर भी वही कोशिश, वही ताना —
“काम क्यों नहीं करता बुड्ढा?”
“हराम की खाने आए हैं ये लोग!”

लेकिन वो बुजुर्ग किसी से लड़ता नहीं था।
बस विनम्रता से कहता —
“भूख लगी है बेटा, खाना नहीं मांग रहा, इंसानियत मांग रहा हूं।”

पास की पान दुकान के बाहर 17 साल का अंकित यह सब देख रहा था।
गरीब परिवार से, लेकिन संस्कारों से अमीर।
अंकित ने बुजुर्ग को अपने छोले भटूरे के ठेले पर बुलाया —
“बाबा, आइए… बैठिए, अभी खाना परोसता हूं।”

बूढ़े ने उसकी ओर देखा —
जैसे बहुत दिनों बाद किसी ने इंसान की तरह देखा हो।
अंकित ने गर्म भटूरे-छोले और ठंडा पानी परोसा —
“खाइए बाबा, पेटभर खाइए।”
बुजुर्ग की आंखें नम हो गईं —
“बेटा, तेरा भला हो। तूने सिर्फ खाना नहीं, तन्हाई में सहारा दे दिया।”

अंकित ने पूछा —
“बाबा, आपका नाम क्या है?”
बुजुर्ग ने लंबी सांस ली —
“नाम रखा था देश ने, पर अब कोई याद नहीं करता।
मेरा नाम अशोक प्रसाद है।”

यह सुनते ही आसपास के दुकानदार, मिठाई वाले, पान वाले —
सब हैरान।
“अशोक प्रसाद… वो आईएएस, जो 90 के दशक में जिले का नाम रोशन करते थे, सचिवालय में पोस्टेड थे,
पत्नी-बेटा एक्सीडेंट में…”
बातें वहीं अटक गईं।

तभी ट्रैफिक हवलदार मनोहर दौड़ता आया,
सीधा सलाम ठोका —
“सर, आपने ही कहा था — ईमानदारी वर्दी से नहीं, नियत से मापी जाती है।
आप हमारे आदर्श थे…”

बुजुर्ग मुस्कुराने की कोशिश करते हैं —
“अब मैं सिर्फ एक नाम हूं, जिसे कोई नहीं पहचानता।”

अंकित हैरान —
“बाबा, आप वाकई में आईएएस थे?”
बूढ़े ने सिर झुकाया —
“हूं नहीं बेटा, अब नहीं हूं।
जब परिवार चला गया, तो पद, पहचान सब साथ ले गए।”

अब भीड़ में फुसफुसाहट —
“यह वही हैं, जिन्होंने बिहार में शिक्षा के लिए क्रांति लाई थी, मुख्यमंत्री के सलाहकार बने थे…
फिर एक दिन अचानक गायब हो गए…”

एक वृद्ध महिला बोली —
“मैंने इनके बारे में अखबार में पढ़ा था।
पत्नी-बेटे की मौत के बाद इन्होंने सब छोड़ दिया था।”

एक दुकानदार बोला —
“हमने इन्हें भीख मांगते देखा, शर्म नहीं आई।
आज पता चला इंसान की असली पहचान क्या होती है।”

अशोक प्रसाद की आंखों में अब नमी नहीं,
एक शांत स्वीकार था —
“गांव की सीमा से बाहर, पहाड़ों में अकेले अपने दुख के साथ चला गया था।
अब मुझे पहचान की जरूरत नहीं रही।”

अंकित थाली हाथ में पकड़े खड़ा था,
उस थाली में आज सिर्फ खाना नहीं, इंसानियत परोसी गई थी।

भीड़ में से एक आदमी आगे आया —
“सर, हम शर्मिंदा हैं, हमने आपको नहीं पहचाना।”
बूढ़े ने गहरी सांस ली —
“अगर किसी को पहचानना है, तो उसके कपड़ों से नहीं, उसकी नजरों से पहचानो।
भूखा इंसान चोर नहीं होता, गरीब इंसान छोटा नहीं होता।”

हवलदार मनोहर ने फोन उठाया —
“इनकी सुरक्षा, इलाज की व्यवस्था होनी चाहिए…”
लेकिन अशोक प्रसाद ने हाथ उठा दिए —
“नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए।
इस लड़के ने जो दिया, वही सबसे बड़ा सम्मान है।”

अंकित भावुक हो चुका था —
“बाबा, आप मेरे लिए भगवान से कम नहीं।
आज आपने मेरी जिंदगी बदल दी।”

अशोक जी ने अंकित के सिर पर हाथ फेरा —
“तेरा भविष्य उज्ज्वल हो बेटा।
किसी को छोटा मत समझना।
इंसानियत को अपनाने वाला ही सच्चा बड़ा आदमी होता है।”

भीड़ तालियों से गूंज उठी।
मालगोदाम चौक की चहल-पहल अब थम चुकी थी।
अब वहां एक सम्मान से भरी खामोशी थी।

अशोक प्रसाद वहीं स्टूल पर बैठ गए,
आसपास वही लोग थे, जो कुछ देर पहले दुत्कार रहे थे,
अब सिर झुकाए खड़े थे।

अंकित ने कहा —
“बाबा, चलिए मेरे घर, मां बहुत अच्छी है…”
अशोक जी मुस्कुराए —
“तेरा दिल बहुत बड़ा है, बेटा।
पर अब मुझे कहीं और जाना है।
अब मैं उस मोड़ पर हूं, जहां नाम, पद, पहचान सब पीछे छूट जाते हैं —
सिर्फ यादें साथ रहती हैं।”

हवलदार बोला —
“सर, चाहे तो सरकारी सम्मान से वापस ले जा सकते हैं, मुख्यमंत्री कार्यालय तक खबर पहुंचाऊं…”
अशोक प्रसाद ने पहली बार थोड़ा ऊंचा स्वर किया —
“अगर सम्मान सिर्फ पहचान देखकर मिलता है,
तो वह सम्मान नहीं, सौदा होता है।”

भीड़ में कुछ लोगों की आंखें भर आईं।

तभी एक छोटी बच्ची बोली —
“पापा, ये बाबा इतने स्पेशल क्यों हैं?”
पिता ने कहा —
“बेटा, ये वही लोग हैं, जो सिखाते हैं इंसान कितना बड़ा है।
वह कपड़ों से नहीं, कर्मों से पता चलता है।”

अशोक जी ने बच्ची को देखा —
“मैं स्पेशल नहीं हूं बिटिया,
तू बन सकती है,
अगर हर भूखे को खाना, हर दुखी को सहारा देना सीख जाए।”

भीड़ दो हिस्सों में बंट चुकी थी —
एक हिस्सा शर्मसार, दूसरा प्रेरित।

अंकित ने थाली स्टूल के नीचे रख दी —
“बाबा, यह थाली मैं नहीं धोऊंगा,
यह मेरी पूजा की थाली है।”

अशोक जी बोले —
“शब्द नहीं, भावना पूजा बन जाती है बेटा।”

धीरे-धीरे उठने की कोशिश की,
अंकित ने सहारा दिया,
पर अशोक जी बोले —
“अब तू नहीं, मैं तुझे सहारा दूंगा।
चल बेटा, इस भीड़ को सिखा दे कि इज्जत कैसी होती है।”

स्टूल पर खड़े होकर बोले —
“मैं अशोक प्रसाद, पूर्व आईएएस अधिकारी,
आज आपसे कुछ नहीं मांगता —
ना खाना, ना आदर, ना पहचान।
बस यह वादा चाहिए,
अगली बार जब कोई फटे कपड़ों, थके चेहरे के साथ आपसे कुछ मांगे,
तो सवाल मत कीजिए,
इज्जत दीजिए,
क्योंकि हो सकता है,
वह भी कभी आपके जैसा ही रहा हो या उससे भी बड़ा।
इंसान की कीमत उसकी पोशाक से नहीं,
उसके व्यवहार और इतिहास से होती है।
इज्जत देना सीखिए, क्योंकि सामने वाला कोई भी हो सकता है।”

सीख:
इंसानियत सबसे बड़ी पहचान है।
हर भूखे को खाना, हर दुखी को सहारा — यही असली सम्मान है।
इज्जत कपड़ों से नहीं, कर्मों से दीजिए।

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जय इंसानियत, जय सम्मान!