एक मार्मिक कहानी: मां का त्याग, बेटे का धोखा और आत्मनिर्भरता की जीत

बहुत साल पहले बिहार के एक छोटे से गांव में सावित्री देवी नाम की एक मां रहती थी। उसका जीवन सिर्फ एक ही सपने पर टिका था — उसका बेटा रोहित बड़ा आदमी बने। उसने खेतों में मजदूरी की, अपने गहने बेच दिए, भूख और नींद की परवाह किए बिना बेटे की पढ़ाई-लिखाई में अपना सब कुछ लगा दिया। खुद फटे कपड़े पहनती, मगर बेटे को अच्छे कपड़े दिलाती। मां का दिल बस यही चाहता था कि उसका बेटा हर सपना पूरा करे।

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समय बीता, मेहनत रंग लाई। रोहित बड़ा आदमी बन गया, शहर में घर, पैसा, शोहरत सब मिल गया। मगर जैसे-जैसे रोहित सफल होता गया, मां उसके लिए बोझ बनने लगी। उसकी पत्नी रीना अक्सर ताने देती — “घर छोटा है, खर्चा बड़ा है, आपकी मां कब तक हमारे साथ रहेंगी?” धीरे-धीरे रोहित के मन में भी यही बात घर करने लगी। एक दिन उसने ठान लिया कि मां से छुटकारा पाना ही होगा।

सीधे गांव की मां को बाहर निकालना समाज में बदनामी का डर था, इसलिए उसने एक योजना बनाई। मां से कहा — “मां, तुम्हारी बरसों की तमन्ना पूरी करने का समय आ गया है। मैं तुम्हें बाबा वैद्यनाथ धाम के दर्शन कराने ले चलूंगा।” मां की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। उन्होंने बेटे को गले लगाया, आशीर्वाद दिया और भोलेनाथ की पूजा के लिए अपनी सबसे अच्छी साड़ी, बेलपत्र, चावल और माला पोटली में रख ली।

देवघर पहुंचकर, मंदिर परिसर की सीढ़ियों पर रोहित ने मां को बैठाया — “आप यहीं बैठिए, मैं प्रसाद और पूजा की पर्ची लेकर आता हूं।” सावित्री देवी बेटे पर पूरा भरोसा कर सीढ़ियों पर बैठ गईं, मंदिर की ओर देखती रहीं, मन ही मन बाबा का नाम जपती रहीं। लेकिन वक्त बीतता गया — आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटे, सूरज ढल गया। रोहित वापस नहीं आया।

रात हो गई, भीड़ छंट गई, मंदिर के बाहर सन्नाटा छा गया। अब सावित्री देवी को समझ आ गया कि बेटा उन्हें छोड़कर चला गया है। मगर मां का दिल अजीब होता है — धोखा साफ दिखते हुए भी वह बेटे के लिए दुआ ही करती है — “भोलेनाथ, मेरा रोहित जहां भी रहे, सुखी रहे।”

ठंडी रात में मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी सावित्री देवी को एक पुजारी और समाजसेवी मीरा ने सहारा दिया। मीरा उन्हें अपने घर ले गई, खाना-पानी दिया। मां ने पहली बार महसूस किया कि अजनबियों के बीच भी कोई अपना हो सकता है। मीरा ने कहा — “मां, जिंदगी किसी एक इंसान के सहारे नहीं रुकती। भगवान ने तुम्हें दूसरा रास्ता दिखाया है।”

सावित्री देवी ने मंदिर के बाहर फूल बेचने का काम शुरू किया। पहले दिन झिझक थी, मगर धीरे-धीरे श्रद्धालुओं में उनकी मासूमियत और आशीर्वाद की चर्चा फैल गई। उनकी दुकान चल निकली, सम्मान मिला, पैसे की कमी नहीं रही। अब वह किसी पर निर्भर नहीं थीं, बल्कि आत्मनिर्भर थीं।

बरसों बाद, एक दिन उसी मंदिर परिसर में रोहित आया — कारोबार में नुकसान, घर टूटने की कगार पर, पत्नी भी छोड़ गई। मां को दुकान पर बैठा देखा तो फूट-फूट कर रो पड़ा — “मां, मुझे माफ कर दो।” सावित्री देवी ने बेटे के सिर पर हाथ रखा — “बेटा, मां अपने बच्चों को कभी श्राप नहीं देती। जिस दिन तूने मुझे छोड़ा, उसी दिन मैंने तुझे माफ कर दिया। लेकिन इंसान के कर्म ही उसका भाग्य लिखते हैं। अब मेरा घर यही है, मेरा परिवार यही है। मैं तेरे साथ नहीं जाऊंगी।”

रोहित पछतावे के बोझ से टूट गया। मां ने अंतिम बार कहा — “अगर तुझे सच में मेरी माफी चाहिए तो जा और अपने कर्म बदल। माता-पिता को बोझ समझना सबसे बड़ा अपराध है। भगवान तुझे सुधरने का अवसर दे। यही मेरी अंतिम दुआ है।”

अब सावित्री देवी मंदिर के बाहर फूल बेचती हैं, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देती हैं। उनका दर्द अब आत्मविश्वास और संतोष में बदल गया है। समाज उन्हें आत्मनिर्भर मां के रूप में जानता है।
कहानी यही सिखाती है — माता-पिता को कभी बोझ मत समझो। जिनसे तुम मुंह मोड़ते हो, वही भगवान उन्हें और मजबूत बना देते हैं।

आपकी राय क्या है? क्या मां का फैसला सही था? अगर आप मां की जगह होते, तो क्या यही करते? अपनी सोच कमेंट में जरूर लिखें।