तुम लोग देश द्रोही हो, दोस्तों के द्वारा किये गए अपमान का बदला लेने के लिए दोस्त बना फौजी, फिर जो

सलीम और राकेश – दोस्ती, गलतफहमी और देशभक्ति की कहानी

क्या दोस्ती मजहब की दीवारों से ऊँची होती है?
क्या बचपन के वादे और साथ में मनाई ईद-दिवाली की रौनक किसी एक गलतफहमी में बिखर सकती है?

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यह कहानी है कानपुर के दुबई नगर मोहल्ले की, जहाँ छह दोस्तों की टोली – सलीम, राकेश, अमित, विक्रम, संदीप और पवन – की दोस्ती मोहल्ले भर में मिसाल थी।
सलीम खान – एक सीधा-सादा मुस्लिम लड़का, जिसकी मुस्कान में सच्चाई थी और दिल में सबके लिए प्यार।
राकेश चौहान – उसका जिगरी दोस्त, थोड़ा गुस्सैल लेकिन दिल का साफ।
दोनों के घरों में एक-दूसरे के लिए हमेशा जगह थी। सलीम की माँ के सेवईं, राकेश के घर के लड्डू – उनकी दोस्ती में स्वाद भी था और अपनापन भी।

उनकी दुनिया कॉलेज, गंगा के घाट और राकेश की दुकान के बाहर की बेंच तक सिमटी थी।
सलीम का सपना इंजीनियर बनना था, राकेश अपने पिता का बिजनेस संभालना चाहता था।
मजहब उनके बीच कभी दीवार नहीं बना। दिवाली हो या ईद, वे एक-दूसरे के घर सबसे पहले पहुँचते थे।
सलीम की माँ सबको शीर खुरमा खिलाती, राकेश की माँ के साथ दीये सजाता।

लेकिन वक्त बदल रहा था।
देश का माहौल गर्म हो रहा था। हिंदू-मुसलमान, देशभक्ति-देशद्रोह की बातें कॉलेज की कैंटीन तक पहुँच गई थीं।
एक दिन, इंडिया-पाकिस्तान मैच की चर्चा के बीच राकेश ने सलीम से पूछ लिया – “तू किसको सपोर्ट करता है?”
सलीम हँसकर बोला – “मैं हिंदुस्तानी हूँ, अपने देश को ही सपोर्ट करता हूँ।”
पर राकेश ने तंज कस दिया – “सुना है तुम लोगों का दिल उधर के लिए ही धड़कता है।”

सलीम को ठेस लगी। बहस बढ़ी।
राकेश ने गुस्से में कह दिया – “तुम लोग देशद्रोही हो, तुम देश से प्यार नहीं कर सकते।”
ये शब्द पिघले हुए शीशे की तरह सलीम के दिल में उतर गए।
बाकी दोस्त खामोश थे। कोई सलीम के लिए नहीं बोला।
सलीम अकेला पड़ गया।
वो बिना कुछ कहे वहाँ से चला गया।
उसके बाद उसने कॉलेज आना बंद कर दिया।

सलीम ने खुद को कमरे में बंद कर लिया।
रातों को जागता रहा – “क्या उसकी दोस्ती इतनी कमजोर थी?”
उसने फैसला किया – वो इस अपमान का जवाब नफरत से नहीं, अपने कर्म से देगा।
उसने इंजीनियरिंग की किताबें बंद कर दीं और सेना में भर्ती की तैयारी शुरू कर दी।
उसके अब्बू ने उसका साथ दिया – “देश की सेवा सबसे बड़ा धर्म है।”

कई महीनों की मेहनत के बाद सलीम भारतीय सेना में चुन लिया गया।
उसके घर में ईद से भी बड़ी खुशी थी, पर दिल में सूनापन था।
वो अपने दोस्तों को ये खुशी बाँटना चाहता था, लेकिन उनसे दूर था।

सलीम इंडियन मिलिट्री एकेडमी गया।
वहाँ उसे नया भाईचारा मिला – सबकी एक पहचान थी, हिंदुस्तानी।
उसने सियाचिन में पोस्टिंग पाई, देश की सबसे कठिन सीमा पर।
उसने कई मिशनों में बहादुरी दिखाई, वीरता पुरस्कार पाया।

8 साल बीत गए।
कानपुर के दोस्त अपनी-अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुके थे, पर दिलों में वो गांठ अब भी थी।
राकेश खुद को माफ नहीं कर पाया था।

एक दिन सलीम को लंबी छुट्टी मिली।
वो फौजी वर्दी में कानपुर लौटा।
सीधा राकेश की दुकान पहुँचा।
राकेश ने उसे देखा, आँखों में आँसू आ गए – “मुझे माफ कर दे भाई, बहुत बड़ी गलती हो गई।”
सलीम ने गले लगा लिया – “बस कर पगले, रुलाएगा क्या? मैं तुझसे बदला लेने नहीं आया। तेरी उस बात ने मुझे सबसे सही रास्ता दिखाया। आज मैं फौजी हूँ, देश की हिफाजत करता हूँ। मुझे इस पर गर्व है।”

राकेश ने सब दोस्तों को बुलाया।
पुरानी चाय की दुकान पर सब इकट्ठा हुए।
बरसों की दूरियाँ आँसुओं में बह गईं।
“यार सलीम, तूने बताया क्यों नहीं?”
“अगर बता देता तो तुम लोग जाने देते क्या?”
“तुझ पर गर्व है भाई!”

सलीम बोला – “कामयाब हम सब हैं, बस रास्ते अलग हैं। तुम देश की तरक्की के लिए, मैं इसकी हिफाजत के लिए।”

उस रात उनकी दोस्ती पहले से भी मजबूत हो गई।
कोई मजहब की दीवार नहीं थी।
सिर्फ सच्चा प्यार, भरोसा और देशभक्ति थी।

दोस्तों, यह कहानी सिखाती है –
गलतफहमियाँ आती हैं, पर सच्ची दोस्ती की बुनियाद मजबूत हो तो कोई तूफान उसे हिला नहीं सकता।
देशभक्ति किसी एक धर्म या जाति की जागीर नहीं।
हर हिंदुस्तानी अपने देश से उतनी ही मोहब्बत करता है।
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