“बीमार पिता के इलाज के लिए रोज़ सड़क पर भीख मांगता था एक बच्चा, फिर एक चमत्कार ने उसकी किस्मत हमेशा के लिए बदल दी”

राजू की ईमानदारी: भीख के कटोरे से सल्तनत तक

.

.

.

मुंबई की चमचमाती इमारतों के साये में बसी धारावी की तंग गलियों में रहता था दस साल का राजू। उसके लिए दुनिया बस उसकी सीलन भरी झोपड़ी और उसके बाबूजी रामलाल तक ही सीमित थी। कभी रामलाल शहर के मशहूर बढ़ई थे, लेकिन लकड़ी की धूल और पॉलिश ने उनके फेफड़ों को खोखला कर दिया था। अब वह एक टूटी खाट पर बीमार पड़े थे, और राजू के नन्हे कंधों पर जिम्मेदारी का बोझ था।

राजू की मां बहुत पहले ही दुनिया छोड़ गई थी। बाबूजी ने उसे मां-बाप दोनों का प्यार दिया, लेकिन अब खुद मजबूर थे। सरकारी अस्पताल से दवाइयाँ मिल जाती थीं, मगर डॉक्टर ने कहा था कि अच्छे खाने और महंगी दवाओं के बिना इलाज संभव नहीं। घर की जमा पूंजी खत्म हो चुकी थी, ठेकेदार ने भी साथ छोड़ दिया था। कई दिन दोनों बाप-बेटे सिर्फ पानी पीकर सो जाते।

राजू ने ठान लिया कि वह अपने बाबूजी को ऐसे मरने नहीं देगा। लेकिन दस साल के बच्चे को कौन काम देता? हर जगह से उसे डांट कर भगा दिया गया। एक दिन मंदिर के बाहर भिखारियों को देखकर उसके मन में विचार आया—भीख मांगना। बाबूजी ने हमेशा कहा था, “बेटा, मर जाना पर किसी के आगे हाथ मत फैलाना।” मगर बाबूजी की जिंदगी बचाने के लिए उसने अपने संस्कारों को पीछे छोड़ दिया।

अगली सुबह राजू ने बाबूजी से झूठ बोला कि उसे दुकान पर काम मिल गया है। लेकिन असल में वह ट्रैफिक सिग्नल पर भीख माँगने लगा। शर्म, तिरस्कार, और भूख से लड़ते हुए वह दिनभर पैसे जुटाता, शाम को फल और दवाइयाँ लेकर घर लौटता। खुद के लिए कभी कुछ नहीं खरीदता, जो बचता वह एक डिब्बे में जमा करता कि एक दिन बाबूजी का अच्छे डॉक्टर से इलाज करा सके।

एक बरसात की शाम, जब राजू भीगता हुआ बांद्रा-कुरला कॉम्प्लेक्स के एक बड़ी बिल्डिंग के बाहर खड़ा था, एक महंगी गाड़ी से विक्रम सिंघानिया उतरे—शहर के बड़े उद्योगपति। गुस्से और तनाव में उनका बटुआ गिर गया। राजू ने बटुआ उठाया, देखा—लाखों रुपये, क्रेडिट कार्ड, पहचान पत्र। उसके मन में तूफान आ गया—क्या यह भगवान ने भेजा है? इन पैसों से बाबूजी का इलाज, नया घर, स्कूल सब मुमकिन था। लेकिन बाबूजी की आवाज कानों में गूंज गई, “ईमानदारी की सूखी रोटी बेईमानी के महल से लाख गुना अच्छी होती है।”

राजू ने बटुआ लौटाने का फैसला किया। तीन घंटे बारिश में इंतजार किया। विक्रम सिंघानिया जब बाहर आए, राजू ने बटुआ लौटा दिया। विक्रम ने इनाम देना चाहा, पर राजू ने मना कर दिया—”ईमानदारी बिकाऊ नहीं होती। मुझे बस दुआ चाहिए कि मेरे बाबूजी ठीक हो जाएं।”

विक्रम सिंघानिया ने राजू की पूरी कहानी सुनी और पहचान लिया कि रामलाल वही बढ़ई हैं जिन्होंने 20 साल पहले उनकी जान बचाई थी। विक्रम भावुक हो गए, राजू को गाड़ी में बैठाया और रामलाल के पास पहुंचे। रामलाल का इलाज शहर के सबसे बड़े अस्पताल में हुआ। राजू का दाखिला इंटरनेशनल स्कूल में करवाया गया, परिवार को सुंदर फ्लैट में शिफ्ट किया गया। रामलाल कंपनी में हेड बने और राजू विक्रम सिंघानिया का बेटा।

राजू, जो कभी सड़कों पर भीख मांगता था, आज सल्तनत का वारिस बन गया। यह सब मुमकिन हुआ उसकी ईमानदारी और एक लौटाए हुए बटुए की वजह से। किस्मत ने 20 साल पुराने कर्ज को एक अनोखे तरीके से चुकता किया।

यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का छोटा सा बीज एक दिन विशाल पेड़ बन सकता है, जो पीढ़ियों को छांव देता है। ईमानदारी और कृतज्ञता सबसे बड़ी दौलत है, जिसे कोई खरीद नहीं सकता। अगर राजू की कहानी ने आपके दिल को छुआ है, तो इसे शेयर करें और अच्छाई का संदेश फैलाएँ।