बेटी ने मां को वृद्धाश्रम में छोड़ा – वसीयत खुली तो सब रह गए दंग!
वाराणसी की ठंडी सुबह थी। सात बजने ही वाले थे। हल्की धुंध में पुराने मोहल्ले का हर घर चाय की भाप और पराठों की खुशबू से महक रहा था।
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रुक्मणी त्रिपाठी, उम्र तिहत्तर, अपने आंगन में तुलसी को जल चढ़ा रही थीं। हाथ कांप रहे थे, आंखों पर मोटा चश्मा था, लेकिन चेहरे पर एक अजीब-सी शांति थी। उन्हें लगता था, अब उनका जीवन अपनी बेटी नीलम के साथ सुकून से कट जाएगा।
नीलम, एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में मैनेजर, हमेशा मीटिंग्स, कॉल्स और डेडलाइन्स में डूबी रहती थी। पहले मां की धीमी चाल और पुरानी बातें उसे प्यारी लगती थीं, लेकिन अब वे उसे खटकने लगीं।
“मां, प्लीज़, मीटिंग है… देर हो रही है,” नीलम झुंझलाती।
रुक्मणी चुप हो जातीं, वापस अपने कमरे में जाकर पुराना फोटो एल्बम खोल लेतीं — जिसमें नीलम की स्कूल की तस्वीरें, पति की आखिरी फोटो और वो मुस्कान कैद थी जो अब सिर्फ तस्वीरों में रह गई थी।
समय बीता, और रुक्मणी का स्वास्थ्य गिरने लगा। बिस्तर से उठने में समय लगता, बार-बार पानी के लिए पुकारना पड़ता।
“मां, क्या हर पंद्रह मिनट में पानी चाहिए आपको?”
“बेटा, मैं बूढ़ी हो गई हूं,” रुक्मणी धीमे स्वर में कहतीं।
नीलम का जवाब हमेशा एक-सा होता — “तो क्या मैं अकेली सब संभालूं?”
विकास, रुक्मणी का बेटा, शादी के बाद अमेरिका चला गया था। त्योहारों पर बस एक कॉल कर देता। फिर भी रुक्मणी बेटे के नाम की माला जपती रहतीं, जिससे नीलम को चोट लगती। एक दिन मां के मुंह से निकल गया —
“विकास फोन नहीं करता, लेकिन बेटा तो बेटा होता है।”
उस पल नीलम के भीतर कुछ टूट गया। अब मां उसके लिए बस एक जिम्मेदारी थीं… एक बोझ।
एक रविवार की सुबह नीलम ने अखबार में विज्ञापन देखा — “प्रवासी वृद्धाश्रम: सेवा, सम्मान और सुविधा के साथ”।
वही दिन नीलम के फ़ैसले का दिन बन गया।
“मां, एक जगह है, जहां आपकी देखभाल होगी, आप आराम से रहेंगी,” नीलम ने कहा।
रुक्मणी ने बस मुस्कुराकर पूछा — “क्या मैं बोझ बन गई हूं?”
नीलम के पास जवाब नहीं था।
वृद्धाश्रम का दरवाजा भारी था… जैसे किसी का दिल चीर रहा हो। अंदर कुछ मुस्कुराते चेहरे थे, कुछ बिल्कुल गुमसुम। रुक्मणी खिड़की के पास बैठ गईं, पीछे मुड़कर देखा — नीलम जा चुकी थी।
दिन बीते, खिड़की के पास बैठना, छत देखना, आंखें बंद करना… यही दिनचर्या बन गई। तभी पास के कमरे की शारदा अम्मा से दोस्ती हो गई।
“बेटी ने भेजा?” उन्होंने पूछा।
रुक्मणी ने सिर हिला दिया।
“मेरा भी बेटा ऑस्ट्रेलिया में है। मां-बाप अब बस मेहमान होते हैं… वो भी बिना बुलावे के,” शारदा अम्मा हंसीं।
रुक्मणी भी मुस्कुराईं, लेकिन आंखें भीग गईं।
हर शाम वे अपनी पोती अनवी की तस्वीर लेकर बैठतीं — वही पोती जिसे उन्होंने बचपन में पाला था, क्योंकि नीलम ऑफिस में रहती थी।
एक दिन रुक्मणी ने वृद्धाश्रम की लाइब्रेरी से वकील को फोन किया —
“मैं अपनी वसीयत बनवाना चाहती हूं… सारी संपत्ति एक नाम करनी है, लेकिन नाम गोपनीय रहेगा, वसीयत खुलने के बाद ही पता चलेगा।”
अगले दिन वकील आया, फाइल तैयार हुई —
“मैं रुक्मणी त्रिपाठी अपनी पांच करोड़ की संपत्ति, घर और जमीन सहित, उस व्यक्ति के नाम करती हूं, जिसने मुझे उस समय अपनाया जब सबने छोड़ दिया।”
नाम एक सीलबंद लिफाफे में रख दिया गया।
इधर नीलम का जीवन और व्यस्त हो गया, लेकिन कभी-कभी रात में मां की आवाज गूंज जाती —
“नीलम, एक बार मेरी गोद में सिर रखकर सो जा… तू थक गई है ना?”
वो तकिया पकड़कर आंखें बंद कर लेती।
एक दिन वृद्धाश्रम से कॉल आया — “मैडम, आपकी मां ICU में हैं।”
नीलम उसी वक्त फ्लाइट से बनारस पहुंची।
मां बेसुध थीं, ऑक्सीजन लगी थी। एक पल के लिए आंखें खुलीं —
“मां, प्लीज़… घर चलिए। माफ कर दो,” नीलम रोते हुए बोली।
“अब… देरी हो गई, बेटी,” रुक्मणी ने फुसफुसाया और हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं।
अंतिम संस्कार के बाद वकील ने कहा — “वसीयत पढ़नी है।”
सभागार में वकील ने सील खोली —
“मैं अपनी पूरी संपत्ति उस व्यक्ति के नाम करती हूं, जिसने मुझे तब अपनाया जब मेरी अपनी संतान ने मुझे त्याग दिया। यह व्यक्ति है — अनवी त्रिपाठी, मेरी नातिन।”
नीलम स्तब्ध थी।
वकील आगे बोला —
“मुझे पता है, मेरी बेटी नीलम मुझसे दूर हो गई, लेकिन उसकी बेटी अब भी मुझे नानी मानती है। वो हर बार फोन करती, चुपके से वीडियो कॉल करती, पूछती — नानी, खाना खा रही हो ना?”
नीलम की आंखों से आंसू बह निकले। उसे याद आया — अनवी ने कुछ दिन पहले एक फोटो दिखाई थी, जिसमें वो और नानी वृद्धाश्रम के बगीचे में थे।
“तुम वहां गई थी?”
“मम्मा, मैंने बताया था… आपने सुना नहीं।”
यह खबर मोहल्ले में आग की तरह फैल गई —
“बेटी ने मां को वृद्धाश्रम भेजा, मां ने करोड़ों की संपत्ति नातिन के नाम कर दी।”
कुछ लोग बोले — “गलती हो गई, लेकिन मां तो मां होती है।”
कुछ फुसफुसाए — “बूढ़ी मां ने सही किया।”
नीलम बस खामोश थी… और पहली बार उसे समझ आया कि देर हो जाने के बाद माफी कितनी बेकार होती है।
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